21 अक्टूबर 2024 सोमवार का ज्ञानप्रसाद-उपासना-साधना-आराधना पुस्तक का लिंक
17 अक्टूबर को “उपासना-साधना-आराधना” विषय पर आरम्भ हुई ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला परम पूज्य गुरुदेव द्वारा मार्च 1980 में दिए गए उद्बोधन पर आधारित है। लगभग 5000 शब्दों का यह उद्बोधन इसी शीर्षक से 32 पृष्ठों की पुस्तक फॉर्म में भी उपलब्ध है। हमारे अनेकों साथिओं ने इस पुस्तक को देखा भी होगा, पढ़ा भी होगा और उस पुस्तक में दी गयी शिक्षा को अपने अंतर्मन में उतार कर “हंस” जैसा अनुभव भी किया होगा। हंस को पक्षी जगत में सबसे शुद्ध प्रवृत्ति का पक्षी माना जाता है।
उपासना के बाद आज के लेख में “साधना” को समझने और प्रैक्टिस करने का प्रयास है, आशा की जाती है कि सभी साथी यथासंभव प्रैक्टिस करेंगें, तभी हमारा प्रयास सफल समझा जायेगा।
तो चलते हैं गुरुचरणों में समर्पित होकर गुरुकक्षा की ओर।
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साधना किसकी की जाए?
भगवान् की? अरे भगवान् को न तो किसी की साधना की बात सुनने का समय है और न ही उसे साधा जा सकता है। वस्तुतः हम जो भी साधना/ पूजा पाठ करते हैं, वह केवल अपने लिए ही करते हैं और उस साधना से स्वयं को ही “जीवन सीधे मार्ग” पर चलाने का प्रयास करते हैं ।
साधना का अर्थ होता है “साध लेना, स्वयं को सँभाल लेना, स्वयं को सीधा करना, तपा लेना, गर्म कर लेना, परिष्कृत कर लेना, शक्तिवान बना लेना, यह सभी अर्थ साधना के हैं।
सर्कस के जानवरों का उदाहरण:
साधना के संदर्भ में परम पूज्य गुरुदेव सर्कस के जानवरों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि रिंग मास्टर के कहने पर, जब हाथी, घोड़े, शेर, स्वयं को “साध” लेते हैं, तो कैसे-कैसे चमत्कार दिखा लेते हैं। ऐसे साधे गये जानवर अपने मालिक का पेट पालने तथा सैकड़ों लोगों का मनोरंजन करके, खेल दिखाने में समर्थ बन जाते हैं। इन साधे गए जानवरों को कई बार मनुष्यों से अधिक वेतन मिलता है। पोलिस में नौकरी कर रहे Police dogs की भी कुछ ऐसी ही स्थिति होती है। उनकी ट्रेनिंग और समर्था से अपराधी को पकड़ने में कितनी सहायता मिलती है ,पाठक भलीभांति जानते हैं। इन Police dog कर्मचारिओं को वेतन, प्रोविडेंट फण्ड, रिटायरमेंट Benefits इत्यादि सब कुछ मिलता है।
यह जानवर कैसे साधे जाते हैं ?
बेटे,यह रिंगमास्टर के हण्टरों से साधे जाते हैं। वह उन्हें हण्टर मार-मारकर साधता है। अगर उन्हें ऐसे ही कहा जाए कि भाई साहब आप इस तरह का करतब दिखाइये, तो इसके लिए वे तैयार नहीं होंगे बल्कि उल्टे मास्टर के ऊपर ही हमला कर देंगे। साधना में भी यही होता है। जब साधक के मन पर चाबुक मारने से, हण्टर मारने से, गर्म करने से जो पिटाई होती है तो मन काबू में आ जाता है। साधने की इस प्रक्रिया की तुलना लोहार की पिटाई से की जा सकती है। लोहार, लोहे को पिघलाकर(ढलाई),पीट-पीटकर ऐसी सुंदर वस्तुएं बना देता है कि उन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता,उस लोहे का स्वरूप ही बदल जाता है यानि उसका कायाकल्प (काया-शक्ल कल्प-बदल) ही हो जाता है। सुनार भी तो सोने को बार-बार पिघलाकर , कूट-कूट कर Refinement करता है। कच्चे सोने की Refinement के बाद बनने वाले आभूषण कितने मूल्यवान बन जाते हैं इससे पाठक भलीभांति परिचित हैं।
साधना की लगातार ढलाई और पिटाई के बाद मनुष्य का भी कायाकल्प हो जाता है वोह भी मूल्यवान बन जाता है। तपस्वी आत्मपरिष्कार (Self-refinement) के लिए तपस्या करते हैं। संस्कृत शब्द “तपस्या” को ही हिंदी में “साधना” कहते हैं। साधना यानि स्वयं को सीधा करना और तपस्या यानि स्वयं को तपाना। यह दोनों एक ही हैं। खेत की जोताई अगर ठीक ढंग से नहीं होगी, तो उसमें बोवाई भी ठीक ढंग से नहीं की जा सकेगी। अतः अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए पहले खेत की जोताई करना आवश्यक है ताकि उसमें से कंकड़-पत्थर आदि निकाल दिए जाएँ; उसके बाद ही बोवाई की जाए तो उचित रहता है । चिन्मय जी के बहुचर्चित एवं रोचक उदाहरण के अनुसार,रंगाई से पहले कपड़ों की पीट- पीट कर धुलाई करना बहुत ही आवश्यक है, है, मैले- कुचैले कपड़े रँगे नहीं जा सकते ।
भगवान् का भजन करना भी एक तरह से रँगाई है, उसके प्रेम और आशीर्वाद में रंग जाने के बाद कुछ करने को बचता ही नहीं है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथी अपना स्व-मूल्यांकन ( Self- evaluation) करके देख सकते हैं कि गुरु के प्रेम में रंगने के बाद, उनके पास कुछ और सोचने/करने को बचता है? गुरु की नाव में बैठकर जीवन यात्रा इतनी सुगम हो जाती है कि क्या कहा जाए।
आधुनिक युग तो Diaper-युग है, लेकिन कुछ ही वर्ष पूर्व की माताएं बच्चे को अपनी गोदी में ही पालती थीं, वहीँ पर बच्चा पेशाब/शौचादि कर देता था, माता बच्चे को अच्छी तरह से धोकर, साफ़ करके गले लगाती थी। साधना/ तपस्या की प्रक्रिया में भगवान् भी माँ की तरह, साधक के अंतःकरण को धोकर- साफ़ करके गले लगाते हैं, ऊपर उठाते हैं, साधक आत्मोत्कर्ष (Self-elevation) अनुभव करता है। यही है कायाकल्प, इस प्रक्रिया से एक बदली हुई काया वाला मनुष्य पैदा होता है, अगर कहा जाए कि निम्नस्तर के मनुष्य से उच्स्तरीय मनुष्य का जन्म होता है तो शायद अतिश्योक्ति न हो। This is a process by which a completely “Transformed, Newly born Human being” is born.
प्रस्तुत चर्चा के सन्दर्भ में धुलाई-रंगाई मात्र भौतिक कपड़ों की नहीं है, भगवान के घर में साफ़-सुथरे, धुले हुए कपड़े पहन कर जाना एक शिष्टाचार है, भगवान के प्रति श्रद्धा, प्रेम,विश्वास एवं सम्मान का प्रतीक है लेकिन यहाँ अन्तःकरण की धुलाई व परिष्कार की बात हो रही है,मनुष्य की बुराइओं,कमियों, दोष- दुर्गुण, कषाय-कल्मष (मन की बुराइयां) की बात हो रही है, बात हो रही है उन्हें दूर करने में आ रही कठिनाइओं की, क्योंकि वर्षों की जमी धूल-मिट्टी इतनी आसानी से तो हटाई नहीं जा सकेगी। सामाजिक दिखावे के लिए मनुष्य भले ही मूल्यवान, लाखों रुपए की ड्रेस पहन कर, लाखों का चढ़ावा भेंट कर दे, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि मंदिर की प्रतिमा तो मात्र पत्थर की शिला है, अंतर्मन का स्वामी तो मनुष्य की अंतरात्मा में विराजमान है।
अंतर्मन का परिष्कार, आत्मपरिष्कार का ही दूसरा नाम “पात्रता का विकास” है।
जिसकी जितनी पात्रता उतने ही ईश्वर के अनुदानों की प्राप्ति। पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी की ज्ञानप्राप्ति-क्षमता और M.Sc. कक्षा के विद्यार्थी की ज्ञानप्राप्ति-क्षमता में अंतर समझना बहुत ही सरल है। क्षमता ही पात्रता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो हमारी क्षमता नर्सरी के विद्यार्थी जितनी ही है।
इस तथ्य को ऐसे भी समझा जा सकता है कि बारिश में रखे चम्मच, कटोरी, गिलास, पतीला आदि सब अपनी-अपनी कैपेसिटी के अनुसार ही पानी इक्क्ठा कर सकेंगें।
घोड़ा जितना तेजी से दौड़ सकता है, उसी के अनुसार उसका मूल्य मिलता है। गाय जितना दूध देती है, उसी के अनुसार उसका मूल्यांकन होता है। अगर कमण्डल में सुराख है, तो उसमें डाला गया पदार्थ बह जाएगा। नाव में अगर सुराख है, तो नाव पार नहीं हो सकती, डूब जाएगी। अतः मनुष्य को चाहिए की वहअपने बर्तन को बिना सुराख के बनाने का प्रयत्न करें। गुरुदेव बताते हैं कि हमने सारी जिन्दगी इसी सुराख को बन्द करने में अपना श्रम लगाया है।
वासना, तृष्णा और अहंता- यही तीन सुराख हैं, जो मनुष्य को आगे नहीं बढ़ने देते हैं। इन्हें ही “भवबन्धन” कहा गया है। अगर मनुष्य का मन संसार की ओर अधिक लगा हुआ है, तो आध्यात्मिकता की ओर बढ़ना कठिन होता है, पूजा- उपासना में मन लगना कठिन होता है। अगर निशाना न साधा जाए , तो गोली कहीं की कहीं लग सकती है। हमारा मन न सधे तो वह कभी इधर-उधर भटकेगा। 20 जगह ध्यान रहा, तो विजेता नहीं बन सकते । भगवान् आपको अपनाने के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं लेकिन वासना, तृष्णा एवं अहंता की हथकड़ियां उन तक पहुँचने में रुकावट पैदा कर रही हैं। मनुष्य को इन शत्रुओं से लोहा लेना होगा। अगर इन हथकड़ियों को नहीं खोलेंगे, तो भगवान् की गोद में नहीं जाया जा सकता।
गुरुदेव बता रहे हैं कि “साधना की परीक्षा” में हमें अपने मन को समझाना होगा। अगर मन नहीं मानता है, तो उसकी पिटाई करनी होगी। बैल जब खेतों में हल नहीं खींचता, घोड़ा जब रास्ते पर चलने अथवा दौड़ने को तैयार नहीं होता, तो उसकी पिटाई होती है। हमने अपने मन के घोड़ों को इतना पीटा है कि क्या कहें । हमने स्वयं को इतना धोने का प्रयास किया है कि बता नहीं सकते। इस धुलाई के कारण आज हम धुले हुए उज्ज्वल हो गये हैं। हमने स्वयं को रूई की तरह से धुनने का प्रयास किया है, जो धुनने के पश्चात् फूलकर इतनी स्वच्छ और मोटी हो जाती है कि उससे एक नयी सुन्दर रजाई का निर्माण होता है।
भगवान का भजन करने के लिए आत्मसुधार अति आवश्यक है :
भगवान् का भजन करने एवं नाम लेने के लिए अपना सुधार करना परम आवश्यक है। वाल्मीकि ने जब यह काम किया, तो भगवान् के परमप्रिय भक्त हो गये। उनकी वाणी में ऐसी शक्ति आ गयी कि डकैती तक छोड़ दी। कहने का अर्थ है कि आप स्वयं को धोकर इतना निर्मल बना लें कि भगवान् आपको प्यार करने में विवश हो जाए।
लेकिन समस्या यह है कि रामनाम के महत्त्व से ज्यादा मनुष्य अपनी जीभ को महत्त्व देता है। जीभ पर कंट्रोल रखा जाए तो ही काम बनेगा। जीभ पर काबू रखें, ईमानदारी की कमाई खाएँ, बेईमानी की कभी न खाएँ। अपने जीवन में सादा जीवन उच्च विचार लाएँ। इस सिद्धान्त को जीवन का अंग बनाने से ही काम बनेगा। पेट भरने के लिए दो मुट्ठी अनाज और तन ढँकने के लिए थोड़ा-सा कपड़ा चाहिए, जो सहज ही प्राप्त कर सकते हैं, इतना कुछ जान लेने के बाद भी जीवन को शुद्ध एवं पवित्र क्यों नहीं बना पाते। इसका कारण है कि मनुष्य बड़ा बनने की भागदौड़ में लगा हुआ है। अगर आप हमारी बात मान लोगे तो आप भगवान् की गोदी के हकदार हो जाएँगे।
लेकिन किया क्या जाए, हम तो बार-बार कहते आए हैं :
बेटे तू करता वही है जो तू चाहता है, लेकिन होता वही है जो ईश्वर चाहते हैं। एक बार वोह करके देख जो ईश्वर चाहते हैं फिर वही होगा जो तू चाहता है।
यह कैसे हो पाएगा ? सादा जीवन उच्च विचार से !!
सादा जीवन अर्थात कसा हुआ जीवन। आपको अपना जीवन सादा बनाना होगा। मज़ा उड़ाते हुए, लालची और लोभी रहते हुए आप चाहें कि रामनाम सार्थक हो जाएगा? नहीं, कभी सार्थक नहीं होगा। हमारे महापुरुषों ने हमें यही सिखाया है कि जो आदमी महान बने, ऊँचे उठे हैं, उन सभी ने स्वयं को तपाया, पिघलाया और ईश्वर के अनुसार ढाला। आप किसी भी महापुरुष का इतिहास पढ़कर देख लें, सभी ने स्वयं को तपाने के बाद ही वर्चस्व/ख्याति प्राप्त की, उसके बाद वे जहाँ कहीं भी गये चमत्कार होते गए । तलवार से सिर काटने के लिए उसे तेज करना पड़ता है, पत्थर पर घिसाना पड़ता है। आपको भी प्रगति करने के लिए स्वयं को तपाना होगा, घिसाना होगा,यही गुरुदेव का एक ही निर्देश है।
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शनिवार वाले लेख को 564 कमैंट्स प्राप्त हुए, 13 युगसैनिकों (साधकों) ने 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है, हमारी हार्दिक बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्।
जय गुरुदेव