वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

उपासना-साधना-आराधना लेख शृंखला का प्रथम भाग 

उपासना-साधना-आराधना विषय पर आधारित प्रस्तुत ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला परम पूज्य गुरुदेव द्वारा  मार्च 1980 में दिए गए उद्बोधन पर आधारित है। लगभग 5000 शब्दों का यह उद्बोधन इसी शीर्षक से 32 पृष्ठों की पुस्तक फॉर्म में भी उपलब्ध है। हमारे अनेकों साथिओं ने इस पुस्तक को देखा भी होगा, पढ़ा भी होगा और उस पुस्तक में दी गयी शिक्षा को अपने अंतर्मन में उतार कर “हंस” जैसा अनुभव भी किया होगा। हंस को पक्षी जगत में सबसे शुद्ध प्रवृत्ति का पक्षी माना जाता है।

“उपासना-साधना-आराधना” का विषय इतना  बहुचर्चित,सरल और रोचक है कि इसे जितना भी पढ़ा जाए जिज्ञासा  बढ़ती ही जाती है। सरल होने के बावजूद, मनुष्य कुछ ऐसी धारणाएं बनाए बैठा है जिनका निवारण करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। आज आरम्भ हुई लेख श्रृंखला से इन धारणाओं का निवारण होता है, शंकाओं का समाधान होता है तो समझा जायेगा कि हमारा प्रयास सफल हुआ। 

कल वीडियो कक्षा में आद चिन्मय जी की वीडियो का दूसरा भाग प्रस्तुत करने की योजना है। 

इन्हीं शब्दों के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारंभ गुरुवंदना से होता है। 

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देवियो, भाइयो! गायत्री मंत्र तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है।  गायत्री मंत्र के तीन भाग- प्रस्तावना, मेधा और प्रार्थना हैं। 

क ) प्रस्तावना भाग अर्थात (Introduction part) (ॐ भूर्भुवः स्वः) में  ब्रह्मांड के तीन लोकों का उल्लेख है। यह तीन लोक निम्नलिखित हैं : 

 1) भूलोक/भौतिक लोक यानि हमारी पृथ्वी जिसमें हम सब वास करते हैं 2) भुवलोक (अंतरिक्ष)और 3) स्वर्गलोक (स्वर्ग या आध्यात्मिक जगत)।

ख) मेधा भाग (Intelligence part)  (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि) के अनुसार हम सूर्य देवता/ सविता की उपासना करते हैं , जिसे “ज्ञान का प्रतीक” माना जाता है। यह भाग हमें उस “दिव्य ज्ञान” की ओर आकर्षित करता है जो हमारे अंतर्मन के अंधकार को दूर करता है और हमें “आत्मज्ञान” की ओर जाने का मार्गदर्शन करता है। 

ग)प्रार्थना भाग (Prayer part)(धियो यो नः प्रचोदयात्) के द्वारा हम अपनी बुद्धि को प्रेरित करने की प्रार्थना  करते हैं । यह हमें “उच्चतम सत्य” की खोज करने में सहायता  करता है और हमें अपने आत्मिक लक्ष्यों की ओर ले जाता है। 

आध्यात्मिक साधना का सारा माहौल भी तीन भागों में बँटा हुआ है। यह तीन भाग हैं : 

1) उपासना, 2) साधना और 3) आराधना हैं।  

आज के इस आरंभिक लेख में एवं आने वाले लेखों में इन तीन भागों को समझकर अंतर्मन में उतारने का प्रयास किया जाएगा। 

अधिकतर साधकों के लिए अगरबत्ती जलाना,नमस्कार करना, घंटी बजाना, ज़ोर-ज़ोर से म्यूजिक बजाना एवं उसके साथ गाना गा कर मनोरंजन आदि उपासना है लेकिन परम पूज्य गुरुदेवने ऐसा नहीं किया। गुरुदेव ने अगरबत्ती जलाकर साधना का शुभारम्भ तो अवश्य किया है लेकिन समापन ऐसे नहीं किया। गुरुदेव अपने उद्बोधन में बता रहे हैं कि हमने अपने जीवन में “अध्यात्म के सिद्धांत” अपनाने का प्रयास किया,उन्हें धारण करने का प्रयास किया। जिस प्रकार त्रिवेणी में स्नान करने के बाद कौआ कोयल बन जाता है ठीक उसी तरह हमने भी “उपासना-साधना-आराधना” की त्रिवेणी में स्नान किया और समझा कि “अध्यात्म की सही शिक्षा” यही  है।

उपासना का अर्थ है भगवान् के पास  बैठना। पास  बैठने का एक अद्भुत प्रभाव  होता है। चंदन  के वृक्ष के समीप जो पेड़-पौधे होते हैं, वह भी सुगंधित हो जाते हैं। हमारी भी स्थिति कुछ वैसी ही हुई। हमारे गुरुदेव (दादा गुरु), हिमालय में उगे हुए चंदन के वृक्ष  की भांति वसंत पंचमी को हमारी पूजा की कोठरी में आए, हमने उनसे जीवनभर का सम्बन्ध जोड़ लिया और खुशबूदार हो गये। जब लकड़ी आग के संपर्क में आ जाती है, तो वह भी आग जैसी लाल हो जाती है, उसे कोई  नहीं छू सकता क्योंकि वोह आग जैसी ही बन जाती है। इसे कहते हैं “उपासना”, पास बैठना, चिपक जाना अर्थात् समर्पण कर देना, विलय (Merge) कर देना। हमारे गुरु ने चिपकने की यह अनूठी विद्या हमें सिखा दी और हम चिपकते ही चले गये। 

गाँव की गँवार/अनपढ़  महिला सेठ के साथ विवाह होते ही सेठानी बन जाती है, पंडित के साथ विवाह होने पर पंडितानी की पदवी स्वयं  ही प्राप्त कर लेती है। 

गुरुदेव हम बच्चों को समझा रहे हैं कि  “उपासना का अर्थ समर्पण है।” यदि आपको भी शक्तिशाली/महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है,बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा, सम्बन्ध कायम करना होगा। आप अगर शेर के बच्चे हैं, तो आपको भी शेर होना चाहिए। आप अगर घोड़े के बच्चे हैं, तो आपको घोड़ा होना चाहिए। आप अगर संत के बच्चे हैं, तो आपको संत होना चाहिए। अगर आप भगवान् के बच्चे हैं तो आपको भी भगवान् होना चाहिए। हमने इस बात का बराबर ख्याल रखा है कि हम भगवान् के बच्चे हैं और  हमें भगवान् की तरह ही बनना चाहिए। नन्हीं सी बूँद जिसका स्वयं का कोई अस्तित्व ही नहीं है, जब सागर के साथ मिलती है, चिपकती है, विलय होती है तो वह भी सागर ही बन जाती है। 

समर्पण का अर्थ है “स्वयं के अस्तित्व को समाप्त करना”,यदि  बूँद अपने अस्तित्व को समाप्त न करे, तो वह बूँद ही बनी रहेगी, सागर नहीं बन सकती है। अध्यात्म की दृष्टि में भगवान् को समर्पण करना ही उपासना कहलाती है। 

भगवान् का अर्थ है उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों का समुच्चय। उच्च आदर्शों, उच्च सिद्धान्तों को अपने साथ मिला लेना (उनके पास बैठना) ही उपासना कहलाती है। हमने अपने जीवन में इसी प्रकार की उपासना की है, आपको भी इसी प्रकार की उपासना करनी चाहिए।

आप लोगों को मालुम  है कि ग्वाल-बाल इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने अपनी लाठी के सहारे गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था। रीछ- बन्दर इतने शक्तिशाली थे कि वे बड़े-बड़े पत्थर उठाकर लाये और समुद्र में सेतु बनाकर उसे लाँघ गये थे। 

नहीं बेटे,यह भगवान् श्रीकृष्ण एवं भगवान् श्री राम के प्रति उनके समर्पण की शक्ति थी, जिसके बल पर वोह  इतने शक्तिशाली हो गये थे। भगवान् के साथ, गुरु के साथ मिल जाने से, जुड़ जाने से, पास बैठने से  मनुष्य न जाने क्या से क्या हो जाता है। हम अपने गुरु से, भगवान् से जुड़ गये, तो आप देख रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या-क्या बदलाव आया है, हमने क्या क्या कुछ प्राप्त किया है।

गुरुदेव बता रहे हैं कि आप कृपा करके मछली पकड़ने वाले ,जाल बिछाने वाले,चिड़िया पकड़ने वाले साधक मत बनना। ऐसे साधक मत बनना जो आटे की गोली और चावल के दाने फेंककर मछली को फाँस लेते, पकड़ लेते हैं । आप ऐसे उपासक मत बनना, जो भगवान् को फांसने  के लिए तरह- तरह के प्रलोभन फेंकते हैं।

बिजली के तार को जनरेटर के साथ जोड़ा ही नहीं गया हो तो करेण्ट कहाँ से आयेगा? उसी तरह इसी तरह अगर हमारा अंतःकरण अहंकार, लोभ और मोह आदि से भरा हो तो हम वोह सम्पदाएँ प्राप्त नहीं कर पाएंगें जो भगवान् के पास हैं। अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी आप तभी हो सकते हैं, जब आप उनकी बात मानते हों, उनके प्रति समर्पित हों, उनके आदर्शों पर चलते हों। केवल पिताजी-पिताजी रटते रहना,चापलूसी करते रहना और   अपना सारा वेतन अपनी पाकेट में छिपा कर रखना,माता-पिता की हारी-बीमारी आदि का ,दुःख-चिंता से कोई लेना देना है तो फिर उनकी सम्पत्ति पर आपका कोई अधिकार नहीं है।

गुरुदेव कह रहे हैं कि  हमने भगवान् को तो देखा नहीं है लेकिन अपने गुरु को हमने भगवान् के रूप में पा लिया है। हमने पूरा जीवन उन्हें समर्पित कर दिया है। उनके हर आदेश का पालन किया है। इसीलिए आज हम उनकी सारी सम्पत्ति के हकदार हैं।आपने  स्वामी विवेकानन्द -रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द -विरजानन्द  और चन्द्रगुप्त-चाणक्य  जोड़ियों के नाम तो सुने ही हैं। उनके गुरुओं ने जो आदेश दिये उन्होंने उन आदेशों का श्रद्धापूर्वक पालन किया। गुरुओं ने शिष्यों को, भगवान ने भक्तों को जो आदेश दिये, वे उनका पालन करते रहे। समर्थ  गुरु रामदास  के आदेश पर शिवाजी लड़ने के लिए तैयार हो गये थे। उनके एक आदेश पर वे स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार हो गये। 

इसी समर्पण के कारण समर्थ गुरु रामदास की शक्ति शिवाजी में चली गयी । नदी इतनी गहरी और चौड़ी होती है कि बिना नाव/नाविक के कोई पार नहीं कर सकता (Trained तैराकों को छोड़ कर) लेकिन जब हम नाव में बैठ जाते हैं तो फिर पार  लगाने की जिम्मेदारी नाविक  की होती है, नाविक सुनिश्चित करता है कि वह न तो नाव को डूबने दे और न ही उस व्यक्ति को जो नाव में  बैठा है। इस तरह नाविक उस व्यक्ति को पार लगा  देता है। ठीक उसी प्रकार जब हम स्वयं को गुरु,भगवान्,नाविक के प्रति समर्पित  कर देते हैं, तो भगवान हमें इस भवसागर (दुनिया के अथाह सागर)  से पार कर देते हैं । 

गुरुदेव बता रहे हैं:

हमारे जीवन में भी इसी प्रकार घटित हुआ । हमने अपने गुरु को भगवान् बना लिया है। हमने उन्हें एकलव्य की तरह सर्वस्व अपना  मान लिया। हमने उन्हें एक बाबाजी, स्वामी जी, गुरु नहीं माना है, बल्कि भगवान् माना है। इस प्रकार हमारे पास अपने  भगवान् (दादा गुरु) की शक्ति बराबर आती रहती है। पहले हमने  छोटा बल्ब लगा रखा था तो थोड़ी शक्ति आती थी लेकिन अब हमने बड़ा बल्ब लगाया है, तो हमारे पास उनकी अधिक  शक्ति आती रहती है। हमें जब जितना चाहिए, मिल जाता है। हमें आगे बड़ी- बड़ी फैक्टरियाँ लगानी हैं, बड़ा काम करना है। अतः हमने उन्हें बता दिया है कि अब हमें “अधिक पावर, अधिक शक्ति” की आवश्यकता है। आप हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बना दीजिए। अब वे हमारे ट्रांसफार्मर को बड़ा बनाने जा रहे हैं। अगर आपको भी  लाभ प्राप्त करना है, तो जैसे हमने अपने गुरु को भगवान् माना और समर्पण किया, वैसे ही आप भी मानिये तथा समर्पण कीजिए, हमारी  तरह ही  कदम बढ़ाइए। 

हमने उपासना करना सीखा है और अब हम “हंस” बन गये हैं। आपको भी यही स्कीम अपनानी होगी। इससे कम में उपासना नहीं हो सकती है। आप पूरे मन से, पूरी शक्ति से उपासना में मन लगाइये और वह लाभ प्राप्त कीजिए जो हमने प्राप्त किये हैं।

हंस को पक्षी जगत में सबसे शुद्ध प्रवृत्ति का पक्षी माना जाता है।कहते हैं हंस मानसरोवर में ही विहार करते हैं और भोजन के रूप में केवल मोती ग्रहण करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि शुद्ध सात्विक स्थान पर रहकर वह शुद्ध प्रवृत्ति से रहते हैं। वे किसी का फेंका हुआ अन्न नहीं खाते और जहां तहां निवास नहीं करते।   

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कल प्रस्तुत किये गए लेख को 609  कमैंट्स प्राप्त हुए, 13   युगसैनिकों (साधकों) ने  24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स)  प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है, हमारी हार्दिक  बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग  के लिए धन्यवाद्। 

जय गुरुदेव

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आज हमारे परिवार के होनहार क्रिकेट खिलाडी आयुष पाल की अंडर-14 ट्रायल है, हमारा  व्यक्तिगत एवं परिवार के सामूहिक आशीर्वाद की आशा करते हैं। कमैंट्स की नियमितता प्रभावित होने की सम्भावना है  


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