14 अक्टूबर 2024 सोमवार का ज्ञानप्रसाद, सोर्स- अनेकों लेख
आज सोमवार के दिन, सप्ताह के प्रथम दिन, गुरुकक्षा में सभी सहपाठिओं का स्वागत, अभिवादन है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक सहकर्मी इस बात से भलीभांति परिचित है कि हम पिछले कई दिनों से “ध्यान लगाने का” और “ध्यान लगाकर प्राप्त होने वाले आनंद” को अनुभव करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारे अनेकों साथी पहले ही, वर्षों से ध्यान प्रक्रिया में महारत हासिल करके ध्यान कर रहे हैं, लेकिन अनेकों ऐसे भी होंगें जिन्होंने कई प्रयास किए, सफलता न मिल पाने की सूरत में बीच में छोड़ दिया और फिर कभी प्रयास करने का साहस ही नहीं किया। ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ ध्यान लगाने की सफलता/असफलता पर प्रश्नचिन्न लगाए जा सकते हैं। ध्यान की प्रक्रिया में खोट नहीं है, अगर कहीं कोई कमी है तो वह पूर्णतया व्यक्तिगत है।
ध्यान का विषय इतना विशाल और विस्तृत है कि इसे सीमाबद्ध करना लगभग असंभव ही है। हर किसी की अपनी सामर्थ्य है, अपनी ज़रुरत है, अपनी परिस्थिति है, अपनी कमी है। इसी सिचुएशन को ध्यान में रखते हुए विचार उठा है कि क्यों न सरलतम और कठिनतम ध्यान का संक्षिप्त विवरण समझने का प्रयास किया जाए।
आज के लेख में आधे घंटे में सम्पन्न होने वाली “सरलतम ध्यान प्रक्रिया” को वर्णन किया गया है। इसमें कोई भी क्रिया, कर्मकांड नहीं है, केवल भावना के स्तर पर सम्पन्न की जाने वाली यह प्रक्रिया कोई भी कर सकता है, शर्त केवल एक ही है और वोह है भावना और मन को स्थिर रखने की। अगर कोई इन 30 मिंट में गुरुदेव के निर्देशों का पालन कर सकता है तो समझ लेना चाहिए कि बहुत कुछ प्राप्त कर लिया गया है।
कल वाले लेख में “कठिनतम ध्यान प्रक्रिया” का संक्षिप्त विवरण देने की योजना है। यह वही प्रक्रिया है जिसका परम पूज्य गुरुदेव ने 24 वर्ष तक दादा गुरु सर्वेश्वरानन्द जी के निर्देश पर पालन किया था। जुलाई 1978 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख पर आधारित कल वाला ज्ञानप्रसाद उन साथिओं के लिए बहुत लाभदायक हो सकता है जो पहले ही ध्यान साधना में एक्सपर्ट हैं।
हमारे साथी जानते हैं कि पिछले कुछ एक लेखों में हम कंटेंट का सोर्स लिखने में असमर्थ हैं जिसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। इसका कारण केवल यही है कि यह लेख अनेकों स्थानों के ज्ञान को पढ़कर,समझकर,सरलीकरण के बाद Compile किये गए हैं, हो सकता है हमारी अल्पबुद्धि ने किसी कंटेंट को ठीक से न ही समझा हो, इसके लिए भी हम साथिओं से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं।
तो आइए चलें गुरुकक्षा को ओर।
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आधे घंटे की सरलतम ध्यान प्रक्रिया :
आज बताई जा रही ध्यान की प्रक्रिया गुरुदेव द्वारा बताई गयी सभी प्रक्रियों में सबसे सरल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह इतनी साधारण और सरल है कि बिना किसी कर्मकांड के ज्ञान बिना भी यह की जा सकती है। इसमें शरीर और मन दोनों को साधने का प्रयास किया जाता है। यदि मन सध गया (मन सीधा हो गया) तो समझो बहुत कुछ प्राप्त कर किया। इसीलिए इस ध्यान-प्रक्रिया को मन को रोकने/मन को वश करने के लिए अति लाभदायक माना गया है।
गुरुदेव ने इस ध्यान प्रक्रिया के लिए आधे घण्टे का समय निर्धारित किया है जिसे तीन भागों में बांटा गया है। पहले 10 मिंट वातावरण के लिए, दूसरे 10 मिंट उपासक के अपने लिए और तीसरे 10 मिंट उपास्य (माँ गायत्री का ) ध्यान करने में लगाने के लिए कहा है ।
गुरुदेव बताते हैं कि उत्तम तो यही है कि यह उपासना स्नान करके, धुले वस्त्र पहन कर की जाए, इससे शरीर और मन हल्का रहने से स्थिर मन से ध्यान लगता है, लेकिन यदि कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक दुर्बलता अथवा साधनों की असुविधा के कारण स्नान करने में असमर्थ हो तो इस कठिनाई के कारण उपासना को छोड़ देना ठीक नहीं है। हाथ, पैर, मुँह आदि धोकर यथासंभव वस्त्र आदि बदलकर भी साधना की जा सकती है।
उपासना का प्रधान उपकरण शरीर नहीं “मन” है इसीलिए मन की ही प्रमुखता है। बाहर से स्नान कर लेने पर भी अगर अंतःकरण में गंदगी भरी रहती है तो कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा । इसलिये “शारीरिक शुद्धि” की अधिकाधिक व्यवस्था तो की जाए लेकिन उसे इतना अनिवार्य न बनाया जाए कि स्नान न हो सका तो साधना छोड़ दी जाए। रोगी,अपाहिज, जराजीर्ण और असमर्थ व्यक्ति भी जिस साधना को कर सके वस्तुतः वही साधन है। मैले कुचैले गंदे शरीर समेत उत्पन्न हुए नवजात बछड़े को गाय माता अपनी जीभ से चाट कर उसे शुद्ध कर देती है तो क्या हमारी “उपास्य माता” स्नान न कर सकने जैसी आपत्तिकालीन असुविधा को क्षमा न कर सकेगी?
जन्म होते ही बछड़े का माता से डायरेक्ट संपर्क टूट जाता है, इसलिए माँ चाट कर, उसे पोषण तो प्रदान करती ही है, साथ में Sensitive होने के कारण Infection से भी बचाव करती है।
गुरुदेव ध्यान को आरम्भ करने के लिए माँ गायत्री का चित्र, प्रतिमा आदि रखने के लिए कहते हैं। अगर इन दोनों में से कुछ भी उपलब्ध न हो तो दीपक को देखकर भी ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। कहने को तो यह प्रक्रिया बहुत ही सरल है लेकिन 10-10 मिंट के लिए मन को पकड़ कर रखना, कठिन तो है लेकिन बहुत लाभदायक भी है।
तो आइए हम सब भी ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार द्वारा आयोजित आज की इस गुरुकक्षा में गुरुचरणों में समर्पित होकर इस अति सरल ध्यान प्रक्रिया को करने का प्रयास करें।
1. पहला ध्यान- वातावरण के प्रति प्रेम/आकर्षण
इस संसार के ऊपर नील आकाश और नीचे नील जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। जो कुछ भी दृश्य पदार्थ इस संसार में थे वे इस विशाल ब्रह्मण्ड में तिरोहित हो गए हैं । अब केवल अनन्त शून्य बना हुआ है और मैं उस शून्य में स्वयं को ढूढ़ने का प्रयास कर रहा /रही हूँ। मेरे अंतःकरण में उभरा हुआ यह काल्पनिक दृश्य इस “उपासना भूमिका” के वातावरण का स्वरूप है।
2. दूसरा ध्यान-उपासक का माँ के प्रति प्रेम/आकर्षण :
मैं एक विशाल महासागर में तैर रहे एकमात्र कमल पत्र पर पड़े हुए एक वर्षीय शिशु की स्थिति में निश्चिन्त भाव से पड़ा क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हूँ। मुझे न किसी बात की चिन्ता है, न आकाँक्षा और न आवश्यकता। जिस प्रकार एक छोटे से बालक की मनोभूमि हुआ करती है: पूर्णतया निश्चिन्त, निर्भय, निर्द्वन्द्व, निष्काम, ठीक वैसी ही मेरी भी है। विचारणा का सीमित क्षेत्र एकाकीपन के उल्लास में ही सीमित है। चारों ओर उल्लास एवं आनन्द का वातावरण संव्याप्त है। मैं उसी की अनुभूति करता हुआ परिपूर्ण तृप्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द ले रहा हूँ।
जिस प्रकार माता और पुत्र के बीच क्रीड़ा कल्लोल भरा स्नेह-वात्सल्य का आदान प्रदान होता है ठीक उसी तरह ध्यान ही नहीं भावना भूमिका से भी उतारना चाहिए। शिशु माँ के बाल, नाक, कान आदि पकड़ने की चेष्टा करता है, मुँह नाक में अंगुली देता है, गोदी में ऊपर चढ़ने की चेष्टा करता है, हंसता मुस्कराता और अपने आनन्द की अनुभूति उछल-उछल कर प्रकट करता है, वैसी ही स्थिति साधक को भी अनुभव करनी चाहिए । माता अपने बालक को पुचकारती है, उसके सिर/पीठ पर हाथ फिराती है, गोदी में उठाती-छाती से लगाती दुलराती है, उछालती है वैसी ही चेष्टायें माता की ओर से प्रेम उल्लास के साथ हंसी मुसकान के साथ की जा रही है, ऐसा ध्यान करना चाहिए।
स्मरण रहे केवल उपर्युक्त दृश्यों की कल्पना करने से ही काम न चलेगा बल्कि प्रयत्न करना होगा कि वे भावनाएं मन में भी उठें, जो ऐसे अवसर पर स्वाभाविक माता और शिशु के बीच उठती/उठाती रहती हैं।
दृश्य की कल्पना सरल है लेकिन भाव की अनुभूति कठिन है।
ध्यान की इस अवस्था में यदि साधक स्वयं को वयस्क व्यक्ति के रूप में अनुभव करता है तो कठिनाई पड़ेगी किन्तु यदि सचमुच एक वर्ष के शिशु की स्थिति में अनुभव करता है तो उसके लिए माता के स्नेह के अतिरिक्त और कोई प्रिय वस्तु हो ही नहीं सकती। इस स्थिति का अनुभव करते ही, विभिन्न दिशाओं में बिखरी हुई साधक की भावनाएं एकत्रित होकर उस असीम उल्लासभरी अनुभूति के रूप में उदय होंगी जो स्वभावतः हर माता और हर शिशु के बीच में निश्चित रूप से उदय होती हैं। प्रौढ़ता भुला कर शैशव ( infant ) का स्तर स्मरण कर सकना यदि संभव हो सका तो समझना चाहिए कि साधक ने एक बहुत बड़ी मंजिल पार कर ली। यह भावना शरीर और मन के स्तर की होनी चाहिए।
3.तीसरा ध्यान: गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास:
मन प्रेम का गुलाम है। मन भागता तो है, एक स्थान पर टिकता तो नहीं है लेकिन उसके भागने की दिशा अप्रिय से प्रिय की ओर होती है। मन को (अर्थात मनुष्य को) जैसे ही प्रिय वस्तु मिल जाती है वह वहीँ ठहर/रुक जाता है क्योंकि उसे “प्रेम ही सर्वोपरि प्रिय” है। मनुष्य की यह भी प्रवृति है कि उसे जिससे भी प्रेम हो जाए वह उसे परमप्रिय लगती है, चाहे वोह कितनी भी कुरूप या निरूप ही क्यों न हो। मन का स्वभाव “प्रिय वस्तु” के आस-पास मंडराते रहने का है। इस ध्यान साधना में गायत्री माता के प्रति प्रेम भावना का विकास करना चाहिए । सर्वांग सुन्दर प्रेम की अधिष्ठात्री गायत्री माता का चिन्तन करने से मन उसी परिधि में घूमता रहता है एवं उसी क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करता रहता है।
“इस साधना के माध्यम से मन को रोकने, वश में करने की एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता भी पूरी हो जाती है।”
इस ध्यान धारणा में गायत्री माता को केवल एक नारी-मात्र नहीं माना जाता है बल्कि उसे सत्-चित्-आनन्द स्वरूप (सच्चिदानंद), समस्त सद्गुणों, सद्भावनाओं, सत्यप्रवृत्तियों की प्रतीक, ज्ञान-विज्ञान की प्रतिनिधि और शक्ति सामर्थ्य का स्रोत माना जाता है। प्रतिमा भले ही नारी की लेकिन “दिव्य ज्योति” बन कर ही अनुभूति में उतरनी चाहिए। जब माता के स्तनपान का ध्यान किया जाए तो यह भावना उठनी चाहिए कि यह दूध एक “दिव्य प्राण” है जो माता के वक्षःस्थल से निकल कर मेरे मुख द्वारा पेट में जा रहा है और वहाँ एक निर्मल श्वेत विद्युत धारा बन कर शरीर के अंग प्रत्यंग, रोम-रोम में ही नहीं बल्कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय,अन्तःकरण,चेतना एवं आत्मा में समाविष्ट हो रहा है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोशों में समाये हुए अनेक रोग शाकों कषाय कल्मषों का निराकरण कर रहा है। इस श्वेत जलधारा रूपी विद्युत पयपान का प्रभाव एक कायाकल्प कर सकने वाले “संजीवनी रसायन” जैसा हो रहा है। मैं नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, क्षुद्र से महान और आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हो रहा हूँ। ईश्वर के समस्त सद्गुण धीरे-धीरे व्यक्तित्व का अंग बन रहे हैं। मैं निकृष्टता से उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मेरा आत्मबल असाधारण रूप में प्रखर हो रहा है।
उपासना की समाप्ति:
यह ध्यान करने के बाद उपासना की समाप्ति करनी चाहिये। प्रज्ञागीत,आरती आदि के बाद यह साधना समाप्त हो जाती है।
इति श्री
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शनिवार वाले लेख को 559 कमैंट्स मिले, 13 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव