10 अक्टूबर 2024 का ज्ञानप्रसाद, स्रोत-अनेकों पुस्तकें
आज के लेख में आरंभिक साधना के अगले स्तर में प्रवेश करने का प्रयास तो किया गया है लेकिन अनेकों साधना स्तर, अनेकों साधना प्रक्रियों को देखते हुए यही उचित होगा कि जितना आसानी से समझा जा सके, वहीँ तक अपनी ट्रेनिंग को सीमित किया जाए। ऐसा कहना इसलिए उचित प्रतीत हो रहा है कि कहीं Trigonometry जैसे कठिन विषय को समझने के प्रयास में हम साधारण, बेसिक लेवल Math के Plus/minus operations को ही न भूल जाएँ। गुरुदेव का प्रयास हमें साधना में प्रवेश कराने का है, हम उन्हें आश्वसन दते हैं कि जितना हम कर पाए अवश्य करेंगें, आने वाले लेखों में कठिन साधनाओं के सरल विवरण तो देंगें लेकिन इन साधनाओं को किस सीमा तक कर पाते हैं, यह प्रश्न बना ही रहेगा।
करत-करत अभ्यास जड़ मति होत सुजान; धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होये,माली सींचित सौ घड़ा, ऋतू आये फल होये वाले सूत्र हर जगह ही सार्थक हैं।
कल शुक्रवार है, कल की वीडियो कक्षा में आदरणीय चिन्मय पंड्या जी की अमर उजाला के साथ हुई इंटरव्यू के कुछ अंश प्रकाशित करने की योजना है।
इन्हीं शब्दों के साथ गुरुवार को, गुरु को समर्पित प्रज्ञागीत से आज के ज्ञानयज्ञ का शुभारम्भ करते हैं
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कल वाले ज्ञानप्रसाद लेख में आरंभिक स्तर साधना/सामान्य स्तर साधना पर चर्चा करते हुए कर्मकांडों और “नियमितता” को स्वभाव बनाने की बात की गयी थी। इस साधना के तीन मुख्य आधार : नियत समय-नियत संख्या-नियत विधि के सम्बन्ध में अनेकों उदाहरण देकर बल दिया गया था कि इन तीन सूत्रों की प्रैक्टिस हो जाना कोई कम महत्व की बात नहीं है। मदिरापान, धूम्रपान, यहाँ तक कि चाय/कॉफ़ी को भी Addiction की केटेगरी में शामिल किया गया है। कोई भी मनुष्य जब किसी वस्तु के सेवन के बिना रह नहीं सकता, Uncomfortable फील करता है तो कहा जा सकता है कि उसे इस वस्तु/स्थिति की Addiction हो गयी है। साधना के सम्बन्ध में Addiction की इस स्थिति से भी ऊपर वाली की स्थिति हो सकती है । अंग्रेजी भाषा में इस स्थिति को Ecstasy का नाम दिया गया है जिसे हिंदी में “महान खुशी या खुशीपूर्ण उत्साह की जबरदस्त भावना, ख़ुशी का चरम सीमा” कहा गया है। Ultimate bliss अर्थात परम आनंद की स्थिति भी कुछ ऐसी ही होती है।
यही वोह स्टेज है जिसे “आरंभिक साधना का विद्यार्थी” अनुभव करता है, साधक के लिए यह स्टेज एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
कल वाले लेख पर पोस्ट हुए कमैंट्स/काउंटर कमैंट्स इसी Addiction की बात कर रहे हैं जिनसे प्रमाणित हो रहा है कि अधिकतर साथी इस “आरंभिक साधना स्तर” पर पहले से ही पँहुचे हुए हैं यां पंहुच रहे हैं।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में इसी तरह की Addiction की आशा की जा रही है, नियत समय पर, नियमितता से अंतःकरण में उसी तरह की “तलब” उठे जैसी शाम ढलते ही मदिरापान करने वाला छटपटाता है।
“आरंभिक साधना” के बाद साधना का अगला स्तर “प्रौढ़ साधना स्तर” होता है जिसमें “भावना का विकास” करना होता है। इस साधना का प्रमुख प्रयोजन “भावनात्मक विकास, विचारणा एवं चेतना का परिष्कार” होता है। इसके लिए आवश्यक कर्मकाण्ड विधि विधान जारी तो रहते हैं लेकिन सारा ज़ोर “तन्मयता एवं एकाग्रता” बढ़ाने पर होता है ।
यहाँ पर भी “मन की चंचलता” की समस्या सिर उठाए खड़ी रहती है। हम सब जानते हैं कि यह बड़ी ही आम समस्या है कि साधक का मन जहाँ-तहाँ भागता फिरता है, चित्त स्थिर नहीं रहता, उपासना के समय न जाने कहाँ-कहाँ के विचार आते हैं, सारी समस्याओं की गठरी उसी समय खुल पड़ती है और साधक ईश्वर के प्रेम में Addict होने के बजाए, अपनी समस्याओं का रोना लेकर बैठ जाता है; अनेकों साधक सच में ईश्वर के समक्ष आंसू बहाते देखे गए हैं।कइयों को तो उस समय ईश्वर के साथ इतना बनावटी स्नेह और प्यार व्यक्त करते देखा गया है, मगरमच्छ के आँसू बहाते देखा गया है, मिन्नतें करते देखा गया है लेकिन एक बार काम निकल गया तो “तू कौन और मैं कौन” वाली स्थिति भी आते देखा गया है। ऐसी साधना में तो केवल इतना ही कहा जा सकता है, “अरे मूर्ख भगवान को बुद्धू बनाने चला है, वोह तुम्हारा बाप है, उसे सब पता है, तू कितने पानी में है।”
साधक के आत्मिक विकास में यह स्थिति सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रथम बाधा है।
तो क्या है इस समस्या का समाधान ?
इस समस्या का समाधान बहुत ही सरल है। हमारे अधिकतर पाठक इससे भलीभांति परिचित हैं क्योंकि हम एक महीना लगातार, 13 ज्ञानप्रसाद लेखों के माध्यम से इसी बाधा का समाधान ही तो ढूंढते रहे थे। और समाधान केवल एक ही है- मन को समझाना, प्यार करना (दिल बच्चा है),डांटना,फटकारना,पीटना, कान पकड़ का स्थिर होकर बिठाना आदि आदि।
मन को एकाग्र करने के लिए एवं हृदयगत तन्मयता बढ़ाने के लिए ऐसे कड़े कार्य करने ही पड़ते हैं। यह प्रयोजन पूरा होने पर समझा जा सकता है कि तीन चौथाई (75 %) मंजिल पूरी हो गयी है ।
हम सब इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि जैसे-जैसे साधना का स्तर उठता जाता है वैसे-वैसे उसमें अधिक “एकाग्रता और तत्परता” का समावेश होता चलता है। यह प्रकृति का नियम भी है, “कब तक बच्चे बने रहेंगें ? आखिरकार प्रौढ़ अवस्था तो आनी ही है।” सामान्य आरंभिक साधना में “जप और ध्यान” पर्याप्त समझा जाता है। “आंतरिक ध्यान” न बन पड़े तो प्रतिमा के सहारे प्रत्यक्ष दर्शन से भी किसी प्रकार काम चलाया जा सकता है। जैसे-जैसे स्तर बढ़ता है तो “अनुष्ठानों और पुरश्चरणों” के माध्यम से साधक को अधिक कठोर अनुशासनों में कसना आरम्भ कर दिया जाता है। सभी जानते हैं कि पुरश्चरणों में जप की संख्या का नियत होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसके साथ-साथ उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन, अपनी सेवा आप करना जैसे प्रतिबन्ध लगते जाते हैं और नियत समय, नियत संख्या, अन्त में अग्नि-होत्र, ब्रह्म-भोज आदि के कितने ही उपक्रम जुड़ जाते हैं। वैसा कुछ न हो केवल अस्त-व्यस्त रीति से जब संख्या पूरी कर ली जाय तो पुरश्चरण का जो माहात्म्य बताया गया है, वह उपलब्ध न हो सकेगा। सच पूछा जाय तो साधना के उच्चस्तरीय क्षेत्र में पहुँचने पर “तपश्चर्या” ही प्रमुख हो जाती है क्योंकि तपश्चर्या ही बन्दूक का काम करती है, मंत्र तो उसके साथ कारतूसों की तरह समन्वित रहते हैं।
साधना के सभी स्तर आपस में ऐसे गुंथे हुए हैं कि किसी को भी अलग नहीं किया जा सकता।
साधना के सभी स्तरों की सफलता पूर्वार्ध की क्रियाओं पर आधारित है। उत्तरार्ध में वे विशिष्ट साधनायें करनी पड़ती हैं जो 1. प्राण शक्ति की प्रखरता, 2. शारीरिक तपश्चरण, 3. मानसिक एकाग्रता, 4. भावनात्मक तन्मयता एवं 5. उग्र मनोबल के आधार पर विशिष्ट विधि-विधानों के साथ पूरी की जाती हैं।
आशा करते हैं पाठकों को उत्तरार्ध और पूर्वार्ध का ज्ञान होगा। फिर भी जिन्हें नहीं मालूम, पूर्वार्ध First half और उत्तरार्ध Second half होता है। उदाहरण के तौर पर 10 वर्ष की अवधि में पहले 5 वर्ष पूर्वार्ध हैं और अगले 5 वर्ष उत्तरार्ध हैं
ऊपर वाली ऊंची भूमिकाएं अनायास ही नहीं आ जाती, उन्हें छलाँग मार कर प्राप्त नहीं किया जा सकता। छुटपुट कामयाबी की पूर्ति के लिए साधारण अनुष्ठान कामचलाऊ परिणाम उपस्थित कर देते हैं। यह एक प्रकार के सामाजिक उपचार हैं। दर्द बंद करने के Strong pain killer जैसी कोई नशीली औषधि तत्काल चमत्कारी लाभ दिखा सकती है लेकिन जिस दर्द को उसके कारणों समेत जड़ से नष्ट करना हो उसे स्वास्थ्य सुधार की सारी प्रक्रिया, आहार विहार के संशोधन सहित आरंभ करनी होती है और दीर्घकाल तक उस मंजिल पर सावधानी के साथ चलते रहना होता है ।
ठीक यही बात उपासना/साधना के संबंध में है। किसी भी संकट के तात्कालिक निवारण के लिए कोई बीज मंत्र अनुष्ठान, यज्ञ या क्रिया कृत्य (फैशनेबुल रामबाण की भांति) काम दे सकता है लेकिन मानव जीवन को समग्र रूप में कृतकृत्य बनाने के लिए मंजिल दर मंजिल, Step-by-step ही चलना पड़ेगा। Nursery,Primary,Middle, High school, College, University के स्तर को follow करने के सिवा और कोई विकल्प है ही नहीं। हमारे पाठकों ने Short-term Bridge courses, Capsule-courses,Online courses के बारे में सुना ही होगा लेकिन ऐसे कोर्स डिग्री प्राप्त करके, धन कमाने के लिए तो पर्याप्त हो सकते हैं ज्ञान के लिए नहीं।
सच्ची साधना वही है जिसमें केवल दूरदर्शी साधक ही धैर्यपूर्वक, श्रद्धापूर्वक उपरोक्त आधार का पालन करते हैं।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रतिदिन करवाए “ज्ञानयज्ञ” की प्रथा के लिए सभी को प्रेरणा दी जाती है, प्रोत्साहित किया जाता है। जिस प्रकार साधना में तीर्थयात्रा और सम्पर्क का महत्व है, ठीक उसी तरह इस ज्ञानरथ मंच पर भी कमैंट्स-काउंटर कमैंट्स द्वारा “सम्पर्क-तीर्थयात्रा” को सामाजिक क्षेत्र की तपश्चर्या कहा गया है। जो साधक मात्र जप करके अपनी साधना को पूर्ण मान लेते थे उन्हें कहा गया है कि तपश्चर्या की दिशा में बढ़ना चाहिए। इस दिशा में वे जितनी प्रौढ़ता और प्रखरता का परिचय देंगे, उसी अनुपात से वे अपने साधन प्रयत्नों को सफल होते देखेंगे। ज्ञानरथ परिवार का भी यही उद्देश्य है।
देवता को अनुनय-विनय से फुसलाया नहीं जा सकता। यह तथ्य क्रमशः परिजनों के सामने उजागर होता चला जा रहा है। उन्हें दबाब देकर अब अपनी परिष्कृत मनःस्थिति और आन्तरिक प्रौढ़ता के अनुरूप “साधना क्षेत्र” में अधिक कठोरता अपनाने के लिए अनुरोध आग्रह किया जा रहा है। आखिर हमारे परिवार के सूत्र संचालकों (परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी) ने भी अपनी विशेष स्थिति तपश्चर्या का अवलंबन करके ही प्राप्त की है। अनुकरण कर्ताओं को भी इसी पुण्य परम्परा को अपनाने और कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए विशेष रूप से निवेदन किया जा रहा है, हम सबके लिए यही हमारी साधना होगी, नहीं तो हम केवल बन्दूक लेकर ही बैठे रहेंगें, चलाने का समय, अपने विकारों का वध करने का समय निकल जायेगा।
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कल वाले लेख को 535 कमैंट्स मिले, 10 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव