9 अक्टूबर 2024 का ज्ञानप्रसाद, स्रोत-अनेकों पुस्तकें
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रायः गायत्री साधना के बारे में प्रश्न किये जाते रहे हैं ,यह कब करनी चाहिए, कैसे करनी चाहिए एवं इसका क्या विधान है। आज के लेख में बिलकुल ही बेसिक स्तर की साधना का वर्णन है जो उन साथिओं के लिए सहायक है जिन्होंने अभी गायत्री साधना आरम्भ ही करनी है, इसीलिए परम पूज्य गुरुदेव ने इसे “आरंभिक स्तरीय गायत्री साधना” एवं “सामान्य स्तरीय साधना” का नाम दिया है। जब आरंभिक विद्यार्थी इस साधना में निपुण हो जाते हैं, उसके बाद ही, “उच्चस्तरीय साधना” का प्रयास करना चाहिए।
हम सभी ने अभी-अभी “ध्यान के विषय पर” 13 लेखों की सहायता से लगभग एक माह “ध्यानपूर्वक, एकाग्रचित” होकर ध्यान लगाने का अभ्यास किया गया, कितने साथी इन लेखों से लाभ उठाकर एकाग्रचित हो पाए, कितनों का मन स्थिर हो पाया, यह तो व्यक्तिगत है क्योंकि Everybody is born different लेकिन मन को पकड़ कर बिठाना, डाँट-फटकार लगाना साधना का प्रथम स्टैप है।
आज के भागदौड़ के जीवन में मन की शांति के लिए क्या किया जाए, इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए, इस लेख के साथ आदरणीय चिन्मय पंड्या जी की एक बहुत ही संक्षित सी वीडियो संलग्न की है। हमारा विश्वास है कि अन्य प्रयासों की तरह यह प्रयास भी मन को स्थिर करने को Supplement करेगा क्योंकि अस्थिर मन से इन लेखों का अमृतपान करना समय नष्ट करने से अधिक कुछ नहीं हो सकता।
गुरुकक्षा के सहपाठिओं के समय का ध्यान रखते हुए, आज के प्रज्ञागीत का स्थान इस वीडियो ने लिया है, आशा करते हैं कि इस प्रयोग का भी सम्मान होगा।
परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री साधना को अत्यंत सरल तरीके से इस लेख में वर्णन किया है। आशा है ऑनलाइन ज्ञानरथ के सहकर्मियों को इससे लाभ होगा लेकिन यह लाभ तभी पूर्ण समझा जाना चाहिए जब गुरुदेव के कथन अनुसार गुरुज्ञान 5 से 25 और 25 से 625 परिजनों तक पहुंचेगा।
तो आइए आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करें।
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सामान्य स्तरीय साधना
गायत्री महामन्त्र की सामान्य स्तरीय साधना, स्नान, पूजन, जप आदि क्रिया-कलापों से आरंभ होती है। इस स्तर के साधक जब सामने आते हैं, तब उनकी मनोभूमि के अनुरूप यही बताया जाता है कि
वे शरीर और वस्त्रों को शुद्ध करके , पवित्र आसन बिछायें,जल और अग्नि का सान्निध्य लेकर बैठें । जल-पात्र पास में रख लें और अगरबत्ती या अग्नि जला लें। गायत्री माता की प्रतिमा, साकार होने पर चित्र के रूप में और निराकार होने पर दीपक के रूप में स्थापित कर लें जिससे माँ का सान्निध्य प्राप्त होता रहे। पुष्प,अक्षत, नैवेद्य जल आदि से पूजा-अर्चना करें।
1.पवित्रीकरण, 2.आचमन, 3.शिखाबंधन, 4.प्राणायाम, 5.न्यास, 6. पृथ्वी पूजन – इन षट्कर्मों (6 कर्मों से) से शरीर, मन और स्थान पवित्र करके माला की सहायता से जप आरंभ करें। ओंठ, जीभ चलते रहें पर ध्वनि इतनी धीमी हो कि पास बैठा हुआ व्यक्ति उसे ठीक तरह सुन-समझ न सके। जब जप पूरा हो जाये तो स्थापित जल-पात्र से सूर्य भगवान को अर्ध्य प्रदान करे।
सामान्य साधना का इतना ही विधान है।
क्रिया-कृत्य एवं बताये गए 6 कर्मकांडों में जब मन लगने लगे और इस विधि-विधान की प्रैक्टिस हो जाए, उपासना में श्रद्धा का समावेश हो जाए और मन रुचि लेने लगे तब समझना चाहिए कि “आरंभिक/प्राथमिक बाल-कक्षा (Nursery class) ” पूरी हो गई और अब “उच्चस्तरीय प्रौढ़ साधना (High level adult साधना)” की कक्षा में प्रवेश करने का समय आ गया।
प्रौढ़ साधना में “भावना स्तर का विकास” करना होता है। आरंभिक साधना में “नियमितता” का स्वभाव बनाना होता है।
आरंभिक साधना के तीन मुख्य आधार हैं: नियत समय-नियत संख्या-नियत विधि। इन तीन सूत्रों की प्रैक्टिस हो जाना कोई कम महत्व की बात नहीं है । अक्सर देखा जाता है कि समय व्यवस्थित न कर पाना ही साधक की सबसे बड़ी समस्या होती है।आलस में, गपशप में, व्यर्थ की बातों में समय गंवाते हुए समय का पता ही नहीं चलता लेकिन उपासना में बैठते ही घड़ी की ओर देखना आरम्भ कर देते हैं। यह तो हुई स्वयं साधना करने की बात लेकिन आजकल एक और नया रिवाज़ प्रचलित हो गया है, किसी पंडित आदि से मंत्र ( 24 लाख गायत्री/महामृत्युंजय मंत्र आदि) आदि करवाने वाला रिवाज़ । समय का अभाव उसमें भी साफ़ दिखाई देता है जब पंडित जी को बोल दिया जाता है कि दक्षिणा चाहे पूरी ही ले लो लेकिन समय कम से कम लगे। यह कोई साधना नहीं हुई, भगवान के साथ कोरी सौदेबाज़ी हुई।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में नियमितता का पाठ तो समय-समय पर स्मरण कराया ही जाता है और अधिकतर साथी इसका कड़ाई से पालन भी करते हैं, कभी-कभी दैनिक दिव्य सन्देश भी “नियमितता आधारित” ही होता है, पालन करने वाले सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करना हमारा कर्तव्य है।
इसी सन्दर्भ में गुरुदेव बता रहे हैं कि औषधि सेवन का, व्यायाम का एक नियत समय होता है, नियत Dose होती है , नियत संख्या होती है। कभी व्यायाम सवेरे, कभी दोपहर को, कभी रात को कर लें, कभी 5 बैठक, कभी 60 बैठक और कभी-कभी 200 बैठकें लगाई जाएँ तो वोह कितनी लाभदायक होंगीं, समझा जा सकता है। इसी प्रकार औषधि-सेवन भी कभी रात में, कभी दिन में, कभी दोपहर में ,कभी एक टेबलेट, कभी दो और कभी चार टेबलेट खाई जाएँ तो लाभ का तो पता नहीं, Overdose से हानि अवश्य हो सकती है/ हो भी रही है। Overdose से प्रतिदिन कितने ही लोग अपना जीवन गँवा रहे हैं,पाठकों में शायद कोई भी अपरिचित न हो।
शांतिकुंज से “नियमितता और नियतता” का कड़ाई से पालन करने का आग्रह करता हुआ एक सन्देश पिछले कुछ दिनों से शेयर हो रहा है,इस लेख के साथ उस सन्देश को यथावत संलग्न कर रहे हैं। हमारा आग्रह है कि आज के लेख की सार्थकता के लिए इस सन्देश को ध्यानपूर्वक अवश्य देख लें, हम तो कहेंगें कि इस दिव्य सन्देश को फ्रेम कराकर किसी उचित स्थान पर टांग दें ताकि आते जाते उस पर दृष्टि पड़ती रहे। प्रैक्टिस करने का यह सबसे सरल और Certified तरीका है I
प्रारंभिक साधकों को “जप की चाल नियमित” करने के लिए माला का सहारा लेना पड़ता है। साधारणतया 1 घंटे में 10 माला की उच्चारण गति होनी चाहिए। इसमें थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है, लेकिन बहुत-बड़ा अन्तर नहीं होना चाहिए। घड़ी और माला का तारतम्य मिलाकर जप की चाल को व्यवस्थित किया जा सकता है। चाल तेज हो तो धीमी की जा सकती है, धीमी हो तो चाल में तेजी लाई जाये। इस नियंत्रण में उच्चारण क्रम व्यवस्थित हो जाता है।
साधना के लिए कौन सा समय ?
जप के लिए सूर्योदय एवं सूर्यास्त का काल एक नियमित समय है। इसमें थोड़ा आगे-पीछे किया जा सकता है, लेकिन बहुत बड़ा अन्तर नहीं होना चाहिए। बात ऐसी नहीं कि अन्य काल में करने से कोई नरक को जायेगा या माँ गायत्री नाराज हो जायेगीं । बात इतनी भर है कि समय नियत एवं नियमित होना चाहिए।
नियमितता में बड़ी शक्ति है। जिस प्रकार चाय पीने वालों को, सिगरेट पीने वालों को, मदिरापान करने वालों को समय आने पर “तलब” उठती है, वैसी ही “तलब” नियत समय पर साधना के लिए उठने लगे तो समझना चाहिए कि उस क्रम व्यवस्था ने साधक के स्वभाव में स्थान प्राप्त कर लिया। जब हाथों, नेत्रों आदि को नियत विधि व्यवस्था, नियत स्थान, नियत क्रम, नियत कार्य जुटाने के लिये प्रैक्टिस हो जाए तो समझना चाहिये कि प्रारंभिक कक्षा (सामान्य साधना स्तर) वाली साधना का क्रम पूर्ण हो गया है ।
जब तक ऐसी स्थिति न आए तब तक रिहर्सल करते रहना ही उचित होता है। अनुभवी मार्गदर्शक , साधकों को तब तक इस आरंभिक साधना में ही लगाये रखते हैं जब तक वे समय, संख्या और व्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में नियमित नहीं हो जाते। इस प्रयास में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी साथी से तुलना नहीं करनी चाहिए क्योंकि Everybody is born different, हर किसी की learning capacity and capability अलग है। यह बात बिलकुल उसी तरह सत्य है जैसे एक कक्षा के अनेकों विद्यार्थी; अध्यापक तो सभी को एक जैसी ही शिक्षा दे रहा है लेकिन कोई पास हो रहा है, कोई फैल हो रहा है, कोई टॉप कर रहा है आदि आदि। इस भिन्नता में इतने अधिक Factor कार्यरत हैं कि कुछ भी कहना अस्मभव सा ही है लेकिन नियमितता,नियतता, एकाग्रता, ध्यान, परिश्रम, विवेक आदि तो स्पष्ट दिख ही रहे हैं। जो विद्यार्थी कक्षा में जायेगा ही नहीं, उसका क्या होगा हम सभी जानते हैं।
बस यही है साधना का प्रथम, आरंभिक एवं सामान्य स्तर, इतना ही नियमित रूप से हो जाए तो समझ लेना चाहिए की बहुत कुछ हो गया।
कल वाले लेख में इससे आगे वाले स्तर, “उच्चस्तरीय साधना” की चर्चा करेंगे।
जय गुरुदेव
हम आज और कल के लेख का Source नहीं लिख पायेंगें क्योंकि इनके लिए अनेकों पत्रिकाओं का सहारा लिया गया है।
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कल वाले समापन लेख को 465 कमैंट्स मिले, 11 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव
