3 अक्टूबर 2024, गुरुवार का ज्ञानप्रसाद -अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान श्रृंखला का 12वां पार्ट प्रस्तुत है।
वर्तमान लेख श्रृंखला की Tagline -ध्यानपूर्वक ध्यान देकर “ध्यान” करो, फिर कभी भी नहीं कहोगे कि “ध्यान” में मन नहीं टिकता,पूर्णतया सार्थक है।
कल वाले लेख का समापन उन महारथिओं के साथ हुआ था जिन्होंने “ध्यान” तो नहीं किया लेकिन तपशक्ति से न केवल बहुत कुछ प्राप्त कर लिया बल्कि उसके दुरूपयोग से नुकसान भी किया। आज के लेख का शुभारम्भ इन्हीं महारथिओं से हो रहा है।
जिज्ञासावश तप और ध्यान का अंतर् जानने के लिए कुछ साहित्य का अध्ययन किया लेकिन उसको किसी और समय शेयर करना उचित समझा।
आइए देखें कौन से ऐसे महारथी एवं गुरुज्ञान से ओतप्रोत हो जाएँ।
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महारथिओं की सूची में जिन्होंने तपशक्ति से बहुत कुछ प्राप्त कर लिया एक नाम रावण था। रावण ने बहुत तप किए थे और तप करने की वजह से शंकर जी को प्रसन्न भी कर लिया था और वरदान भी पा लिया था। क्या वरदान और आशीर्वाद पाने के पश्चात रावण को कुछ मिला? कुछ नहीं, वह घाटे में रहा और उसका नुकसान ही हुआ।
उसने अपने बच्चों को जलते देखा, नाती− पोतों को जलते देखा। गुरुदेव हमसे पूछ रहे हैं कि क्या आपने ऐसा भयंकर दृश्य कहीं देखा है ? मरे हुए व्यक्तियों को तो देखा ही होगा, मरने के बाद सम्मानपूर्वक होती अन्त्येष्टि भी देखी होगी,श्मशान में शोक में डूबे परिवारों को भी देखा होगा लेकिन रावण ने तो जिंदा बेटों/बेटियों आदि को जलते देखा। उसने तप तो किया, वह महान तपस्वी तो था,लेकिन बेचारे को हजम करने की शक्ति न मिल सकी। वह तपता रहा और जैसे ही शक्ति आई, बड़े-बड़े मनसूबे बनाने लगा। उस अभागे से यह नहीं बन पड़ा कि अपने पिता लोमश ऋषि की तरह जीवनयापण करे। वह जिस भी काम में लग गया, उसका सफाया कर दिया। वह कुछ नहीं कर पाया।
कुँभकर्ण भी कुछ नहीं कर पाया। कुँभकर्ण ने अपनी वाणी को शुद्ध नहीं किया और अशुद्ध वाणी से ही जप करता रहा। जब सरस्वती सामने आकर खड़ी हो गई और बोली कि वरदान माँग, तो उसने छह महीने सोने का और एक दिन जगने का वरदान माँगा। क्यों क्या बात थी कि वह “छह महीने जागूँ और एक दिन सोऊँ” का वरदान न माँग सका?
इसी तरह हिरण्याक्ष से लेकर हिरण्यकशिपु तक, कंस से लेकर जरासंध तक और मारीचि से लेकर सुबाहु तक, सभी तपस्वी थे,सभी भजन करने वाले थे, पूजा करने वाले थे लेकिन इनमें से कोई भी अपना “आत्मशोधन (Self-purification)” न कर सका।
आत्मशोधन के अभाव में भगवान की कृपा तो मिल जाती है,इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन मनुष्य इससे लाभ तो नहीं उठा सकता, हानि जरूर कर सकता है।
गुरु की शक्ति सूक्ष्म में भी कार्यरत है -एक उदाहरण :
अमेरिका में विवेकानंद जिसके यहाँ ठहरे थे, वहाँ एक महिला थी। वह स्वामी जी के साथ दिल्लगीबाजी करती रहती थी । स्वामी जी के गुरु,गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस ने चेतावनी देते हुए कहा, “अच्छा तो ये बात है, तू अमेरिका अपनी मनमानी करने आया हुआ है।” उन्होंने लाल−लाल आँखें तरेरीं और कहा कि ठहर जा, अभी तुझे शक्ति के दुरूपयोग का परिणाम बताता हूँ।” गुरुदेव की आँखों ने सूक्ष्म दृष्टि से देखा और कहा: स्वयं के लिए, विलासिता के लिए मेरी शक्ति से लोगों को प्रभावित और चमत्कृत करेगा,ऐसे चमत्कारों से अनेकों लोगों में श्रद्धा उत्पन्न होगी और तू उस प्रसिद्धि, वाहवाही को अपने लाभ के लिए प्रयोग करेगा?
सूक्ष्म में यह दृश्य देखकर विवेकानंद वहीं अमेरिका में काँपने लगे। उन्होंने स्वयं को न केवल धुना और पीटा बल्कि अपने मन को भी धोया । उन्होंने अपने मन को समझाया कि अरे मूर्ख! तू समझता नहीं कि तू क्या करने जा रहा था। जब गुरुदेव ने आँखें निकलीं, स्वामी जी को और कुछ तो समझ में आया नहीं, वोह सामने जलते स्टोव पर रखे तपते तवे पर बैठ गए, उनकी बैक बुरी तरह से जल गयी। स्वामी जी विदेश में अपना खाना स्वयं बनाते थे। जब स्वामी जी बुरी तरह से जल गए तो उन्होंने अपने मन से कहा कि अब समझा कि नहीं, आग छूते हैं तो छाले पड़ते हैं। तू तो उसे छू रहा था जो आग से भी प्रचंड है। इससे छाले नहीं पड़ेंगे तो और क्या? विवेकानंद गुरु का संकेत समझ गए। इसके बाद महीना भर पड़े रहे।
किसी शिष्य का “ध्यान” में मन टिकता नहीं था। उसे ध्यान में बंदर दिखता था। शिष्य ने गुरु से अपनी समस्या बताई तो गुरु ने कहा कि भजन करते समय तू बंदर का ध्यान मत करना। जब भी मन भटके तो गाय का ध्यान किया कर। ध्यान किया कर कि गाय माता बैठी है, गाय माता का ध्यान करेगा तो बंदर नहीं आएगा। मन की अपनी प्रवृति है, वह भागने से रुकने वाला नहीं है। ठीक एक नटखट बच्चे की भांति। बच्चे की चंचलता (Flickering) को रोकने के लिए माँ उसे काम में लगा देती है, उसी काम में जिसमें उसकी रूचि होती है, फिर तो उसे सब कुछ ही भूल जाता है, यहाँ तक कि खाना पीना भी भूल जाता है। माँ बेचारी उसे आवाज़ें लगाती थक जाती है, खाना ठंडा हो जाता है, वोह एक मिंट, एक-मिंट करता रहता है, उसे कोई सुध-बुध नहीं रहती।
परम पूज्य गुरुदेव हमें ऐसी ही एकाग्रता की ट्रेनिंग दे रहे हैं।
आज की कक्षा का प्रैक्टिकल इस ज्ञानप्रसाद का एकाग्रचित होकर अमृतपान करना है।
गुरुदेव कहते हैं कि आप जो भी कर्मकाँड करते हैं, जो उपासना करते हैं, पूजा करते हैं, भजन करते हैं, हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, जो भी पढ़ते हैं,उसमें सद्विचारों का समन्वय करें। जितने समय तक आपका जप चलता रहे, उतने समय तक प्रत्येक क्रिया के साथ−साथ जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, विचारणाएँ जुड़ी हुई हैं, उन शिक्षाओं में अपने मस्तिष्क को पूरी तरह से (यानि एकाग्रचित होकर, ध्यानपूर्वक) लगाए रखें। मस्तिष्क में फिज़ूल के विचार न आने दें। नटखट बच्चे की मम्मी की भांति अन्य विचारों को रोकिए मत,केवल उनकी दिशा बदल दीजिए, फिजूल के विचार स्वयं ही रुक जायेंगें, आपकी रूचि सद्विचारों में लग जाएगी, आप उन्हीं में एकाग्र हो जाओगे, बच्चे की भांति इतना एकाग्र कि भोजन करना भी भूल जाओगे (ऐसे उदाहरण अनेकों पाठकों ने प्रतक्ष्य देखे होंगें।)
गुरुदेव के चिंतन के साथ भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। हवन में,जप में,उपासना में,देवपूजन में भावना जुड़ी हुई हैं, अर्थ जुड़े हुए हैं, उन्हीं अर्थों को जोड़ कर, समझकर अंतर्मन में उतारने से प्रत्येक कार्य में मन केवल लगेगा ही नहीं, भागने से भी रुक जायेगा, स्थिर हो जायेगा, एकाग्रता आ जाएगी।
कर्मकांडों के साथ ही गुरुदेव अपने साहित्य को भी “ध्यान” से पढ़ने का आग्रह करते हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर वर्षों से यही प्रयास किया जा रहा है, पाठकों एवं समर्पित साथिओं को गुरुदेव के प्रत्येक प्रकाशन (लेख, वीडियो, कमैंट्स, काउंटर कमैंट्स, ऑडियो आदि) को ध्यानपूर्वक पढ़कर अंतरात्मा में उतारने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया जा रहा है। हमारे अनेकों साथी जो गुरुदेव के इस प्रभावशाली तथ्य को समझ पाए हैं उन्हें गुरुदेव के अनंत अनुदान अनवरत, बिना मांगें ही प्राप्त हो रहे हैं। यहाँ तो “हाथ कंगन को आरसी क्या” अर्थात “प्रतक्ष्य को प्रमाण क्या” वाली बात साक्षात् घटती दिख रही है।
गुरुदेव एकाग्रता की दिशा में डाँटते हुए कहते हैं, “आप तो हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं। आप के लिए तो पैसा कामना, लक्ष्मी प्राप्त करना ही सबसे बड़ा उद्देश्य है, उपासना-साधना-आराधना की त्रिवेणी में स्नान करना तो आपका उद्देश्य है ही नहीं। आप तो वही छोटी सी बात के पीछे पड़े हैं कि लक्ष्मी कमाने के लिए ‘श्री’ बीज मंत्र जप तीन बार करना है कि पाँच बार। आप तो लक्ष्मी को फटाफट प्राप्त करने आये हैं,चमत्कार के लिए आये हैं। आप कौन से रावण, कुम्भकरण, जरासंध आदि से कम हैं।”
कितना अच्छा होता आप हमसे पूछते कि उपासना के साथ−साथ जितने भी कर्मकाँड हैं, उन कर्मकाँडों में जो शिक्षाएं भरी पड़ी हैं, प्रेरणाएं भरी पड़ी हैं, दिशाएँ भरी पड़ी हैं, उनके बारे में बता दीजिए, हमारा भी मन प्रसन्न हो जाता। आप हमसे पूछते भावना (Emotions) किसे कहते हैं? बेटे यह भावनाओं का खेल है, भावनाओं के बिना सब कुछ व्यर्थ है। भावना उस उमंग (उत्साह, जोश) को कहते हैं जिसे अनुभव किए बिना चैन नहीं मिलता। भावनाएं वे कल्पनाएं हैं जो मनुष्य के दिमाग में आती रहती हैं कि हम जप करेंगे, संत बनेंगे, महात्मा बनेंगे, ज्ञानी बनेंगे, ब्रह्मचारी बनेंगे। इन्हीं भावनाओं में बह कर हम प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं कि हमें ज्ञान दीजिए, सारे दुर्गुण हटा दीजिए।
सदविचारों के साथ−साथ मनुष्य के अंदर सद्भावना का समावेश भी होना चाहिए। भावना का अर्थ यह है कि मन के अंदर तड़पन पैदा हो, ऐसी उमंग पैदा हो कि हम इसे किए बिना रह नहीं सकें। मनुष्य जो भी क्रिया−कृत्य करे, कर्मकाँड करे, उसके साथ चिंतन भी करे कि हम दीपक की तरह से जिएँगे, हम अपना आत्मशोधन करेंगे। जप करेंगे, नैवेद्य चढ़ाएँगे, इस तरह के जो भी कृत्य हों, इन क्रियाओं के साथ−साथ में विचारो का समन्वय हो। विचारों के समन्वय के पश्चात जब आपके विचार जमने लगें, तो आप यह कोशिश कीजिए कि इसके साथ में भाव अर्थात् उमंगे भी उठें ।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन इस प्रतिज्ञा से हो रहा है की हम आज्ञाकारी बच्चों की भांति गुरुदेव का कहा मानेगें। हम प्रतिज्ञा लेते हैं कि हमारे अंतःकरण में संकल्प जाग्रत हो कि हमें भगवान से अधिक ओर कोई भी प्यारा नहीं है। हमें अनुशासन से अधिक प्यारा और कोई नहीं है। हम सबको नाराज़ कर सकते हैं, लेकिन अपने इष्ट अपने गुरु को नहीं।
जय गुरुदेव
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कल वाले लेख को मात्र 390 कमैंट्स ही मिले लेकिन फिर भी 9 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव