30 सितम्बर 2024, सोमवार का ज्ञानप्रसाद – -—स्रोत- अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान श्रृंखला का नौंवां पार्ट प्रस्तुत है, हमने इसे भी यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके।
“ध्यान” के विषय पर चल रही वर्तमान लेख श्रृंखला की Tagline -ध्यानपूर्वक ध्यान देकर “ध्यान” करो, फिर कभी भी नहीं कहोगे कि “ध्यान” में मन नहीं टिकता “- इतनी पॉपुलर हो गयी है कि शनिवार के विशेषांक पर भी इतनी ध्यानपूर्वक लागू हुई कि परिणाम देखकर हम सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करे बिना नहीं रह सकते। 756 कमैंट्स पोस्ट करते हुए अनेकों साथिओं ने अपने ह्रदय तक को खोल कर रख दिया। शायद इसी को कहते हैं “दिल को दिल की राह होती है।” इतने ज्ञानवर्धक कमेंट लिखने के लिए बहुचर्चित “धन्यवाद्” शब्द को, छोटा होने के कारण, “हाथ चूमने को मन करता है” से Substitute करना उचित समझते हैं। अगर हम “दिल से दिल को राह होती है”, की बात कर रहे हैं तो अवश्य ही यह तर्क परम पूज्य गुरुदेव के साथ भी प्रमाणित हो सकती है। प्रेम और त्याग की मूर्त (हमारे गुरुदेव) के साथ प्यार करके तो देखें, खुद-ब-खुद ही प्यार का फव्वारा फूट पड़ेगा। विशेषांक के प्रति पोस्ट हुए कमैंट्स को अनेकों साथिओं ने नज़रअंदाज़ कर दिया होगा लेकिन हम आने वाले विशेषांक लेखों में पोस्ट करते रहेंगें, सराहते रहेंगें और औरों को मार्गदर्शन मिलता रहेगा। यह ऐसे कमैंट्स हैं जिन्हें कोई दुर्भाग्यशाली ही मिस कर सकता है, अतः आग्रह करते हैं कि इन्हें ध्यानपूर्वक देख लें शायद “जय गुरुदेव” वाले fashionable कमेंट से थोड़ा ऊपर उठ पाएं,हम सभी ने गुरुदेव से संपर्क जो स्थापित करना है।
गुरुवार को प्रकाशित हुए लेख में दीप प्रज्वलन के पीछे प्रकाश प्रदान करती भावना की बात की गयी थी। आज के लेख में दीप प्रज्वलन की ही प्रक्रिया एक और शिक्षा-दृष्टि में प्रस्तुत की गयी है। जिस प्रकार एक नन्हां सा दीपक स्वयं जल कर अनेकों राहगीरों के लिए पथ-प्रदर्शक का प्रतीक है, ठीक उसी तरह मनुष्य अपने जीवन की तप अग्नि में जलकर, एक मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है। हमारे दरवेश गुरु पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने सारा जीवन अपने बच्चों के सुखमय जीवन को समर्पित कर दिया। गुरुदेव की तपशक्ति का ही परिणाम है कि आज हमारी उँगलियाँ यह लेख लिख रही हैं, वोह उँगलियाँ जिन्होंने कभी हिंदी लिखने का साहस भी नहीं किया था। फकीर गुरु ने साधन भी उपलब्ध करा दिए, विवेक भी प्रदान करा दिया, और न जाने क्या-क्या पुरस्कार अनुदान में दे दिए।
“ध्यान” विषय पर चल रही वर्तमान लेख श्रृंखला खुद-ब-खुद सार्थक होकर “ध्यान” लगाने में सहायक होगी जब हम इन बेसिक विषयों को समझ लेंगें।
इन्हीं शब्दों के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ होता है
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दीपक की तरह जलें, प्रेरणा दें
दीप प्रज्वलन की प्रक्रिया से हम भगवान के बहाने स्वयं को देखने की भावना करते हैं। हम चिंतन करते हैं कि हमारी जिंदगी का स्वरूप दीपक जैसा होना चाहिए। “दीपक के प्रकाश” को हम अपने “जीवन के प्रकाश” से, हमारी अपनी “आत्मा के प्रकाश” से Equate करते हैं। यहाँ उस प्रकाश की चर्चा हो रही है जो आज के मनुष्य के जीवन से दूर भाग गया है। आए दिन अंधकारमय जीवन में भटकते हुए दानवों के हाथों किए जा रहे बलात्कार, आतंकवाद, चोरी-डकैती जैसे कुकर्मों का कहीं अंत दिखाई ही नहीं दे रहा। राजनेता से लेकर बुद्धिजीवी तक सभी अपना स्वार्थ सिधाते, अमूल्य जीवन के दिन काटते दिख रहे हैं।
दीप प्रज्वलन, प्रकाशमय जीवन का प्रतीक होने के साथ-साथ भगवान की भक्ति के उस मूलभूत सिद्धाँत को भी दर्शाता है कि दीपक की भांति मनुष्य को भी जलना पड़ता है, गलना पड़ता है। भगवान का भक्त बरगद के पेड़ की भांति बड़ा तो हो जाता है लेकिन पेड़ की स्टेज तक पंहुचने से पहले बीज को गलना पड़ता है। इसीलिए गुरुदेव ने बार-बार दोहराया है कि मनुष्य को भी विकसित होने के लिए स्वयं को गलाना ही पड़ेगा।
परम पूज्य गुरुदेव ने सारा जीवन घोर तपस्या करके स्वयं को गलाया और “गायत्री परिवार” नाम से एक विशाल वट वृक्ष का जन्म हुआ जिसकी ठंडी-ठंडी छांव में विश्व के सभी समर्पित संतानरुपी बच्चे संकल्पित होकर आगे ही आगे बढ़े जा रहे हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार भी इस विशाल गायत्री परिवार वृक्ष की बहुत ही छोटी सी शाखा है जिसमें प्रत्येक साथी अपने समर्पण की खाद-पानी से अनवरत सींच रहा है। इस हरे भरे वृक्ष के सुन्दर-पौष्टिक फलों ने न जाने कितनों का ही पेट भर दिया है लेकिन यहाँ पर सभी परिवारजनों से एक ही अपेक्षा है कि मीठे फलों का स्वयं आनंद लेने के साथ-साथ स्वयं को गलने के लिए भी संकल्पित हों। गुरुदेव ने तो यहाँ तक कह दिया है कि बेटे तू तो “गलना और जलना” अपने प्रारब्ध में लेकर जन्मा है। माता पिता भी तो सारा जीवन अपनी परमप्रिय संतान के लिए जलते और गलते हैं। शायद यह कहना ग़लत न हो कि माता-पिता को अपने लिए भी जीने का अधिकार है लेकिन क्या हम सभी केवल स्वयं के लिए ही जी रहे हैं, शायद नहीं। अगर ऐसी बात होती तो पिछले 40 घंटे में 756 कमैंट्स नहीं पोस्ट पाते, हर कोई साथी (चाहे जितना भी हो सका ) समयदान और ज्ञानदान कर ही रहा है, अपनेआप को गला ही रहा है, जला ही रहा है।
शायद यह प्रकृति का ही नियम है कि वर्तमान पीढ़ी को जलना और गलना ही पड़ता है। हमारे माता पिता हमारे लिए गले और जले ताकि हमारी संतान, उनके द्वारा लगाए वृक्ष की छांव में अपना जीवनयापन कर सके, लेकिन क्या हम (उनकी संतान-अगली पीढ़ी) गलने और जलने को भूल कर विलासभरा जीवन जी सके, कदापि नहीं। माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों का पालन करते हुए हमने भी अपने बच्चों के लिए माता-पिता द्वारा लगाए वृक्ष को सींचना आरम्भ कर दिया। जहाँ कहीं भी प्रकृति के इस नियम का पालन न किया गया, विनाश होते देर नहीं लगी, हम सब प्रतिदिन देख रहे हैं।
गुरुदेव भी हमें यथासंभव जलने और गलने के लिए आग्रह कर रहे हैं और वृक्ष के उदाहरण के साथ -साथ यह भी बता रहे हैं कि हम महासागर में खड़े लाइट हाउस (प्रकाश स्तम्भ) की भांति ज्ञान के प्रकाश से मार्गदर्शक, पथ-प्रदर्शक भी बनें। हममें से लगभग सभी ने महासागर में खड़े लाइट हाउस को देखा होगा जो सदैव जलता रहता है और जल कर, गुजरने वाली नावों को रास्ता बताता रहता है। वोह निर्जीव, बेजान लाइट हाउस न जाने कितनों को दिशा प्रदान कर चुका होगा, कितनों को जीवनदान दे चुका होगा, कितनों को कह चुका होगा,उधर से मत जाइए, इधर से जाइए, वोह मार्ग खतरनाक है। महासागर के बीचो-बीच जल रहे इस लाइट हाउस का योगदान भी कुछ कम नहीं है।
परम पूज्य गुरुदेव का प्रत्येक सन्देश भी लाइट हाउस, मार्गदर्शक एवं पथ-प्रदर्शक है जिससे अनेकों को न केवल स्वयं प्रकाश की और अग्रसर होने की राह मिली है बल्कि साथ चलने वाले, ठोकरें खाते, गिरते हुए राहगीरों को भी उठ खड़े होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
प्रकाश का एक और उदाहरण अमावस की घोर अंधकारमई रात में आकाश में टिमटिमाते सितारे भी हैं। यह सितारे न जाने कितने ही पथिकों को राह दिखा चुके हैं। आकश में डायमंड की तरह चमक रहे नन्हें-नन्हें सितारे पथ-प्रदर्शक होने के साथ-साथ अनेकों नन्हें मुन्नों को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार वाली कविता से प्रेरणा प्रदान कर चुके हैं। हम जैसे अनेकों को हमारी मम्मीयों ने यह Poem न केवल गाकर सुनाई होगी बल्कि इसके पीछे छिपे ज्ञान को भी Explain किया होगा। बच्चा सितारों से पूछता है, How I wonder, What you are, up above the world so high like a diamond in the sky. न जाने कितनों ने ही इस Poem से प्रेरित होकर गगनचुम्बी छलांगें लगाकर अपने जीवन को हीरे जैसा बना लिया होगा।
दीप प्रज्जवलन के समय ऐसी ही भावना होनी चाहिए।हमारा जीवन दीपक की तरह जलने वाला हो तो भगवान भी प्रसन्न होते हैं लेकिन क्या करें मनुष्य भगवान् को महंगें घी से, देसी घी से,मूल्यवान पदार्थों से रिझाने का प्रयास करते है लेकिन भगवान् हमारी तरह मुर्ख नहीं हैं वोह तो भावना के भूखे हैं, वोह तो सुदामा के सत्तू से ही संतुष्ट हो गए थे।
हर बार की भांति इस लेख की रचना भी बड़े ध्यानपूर्वक की गयी है,अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि हो गयी हो तो क्षमाप्रार्थी हैं।
जय गुरुदेव
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कल वाले लेख को 756 कमैंट्स मिले,17 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक कमैंट्स, आहुतियां प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव