वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ध्यान क्यों करें, कैसे करें ? पार्ट 8       

“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द)  को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में इस गुरुज्ञान श्रृंखला का आठवां  पार्ट प्रस्तुत है, हमने इसे भी  यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके। 

आज के लेख में एक समय पर एक ही विषय पर चिंतन करने की शिक्षा मिल रही है। पूजास्थली में जो-जो क्रिया की जा रही है उसके पीछे छिपे ज्ञान को समझ कर “ध्यान” लगाया जाए तो Concentration में बहुत बढ़ावा हो सकता है। अगर हम अपनेआप की  तुलना उस नन्हें बच्चे के साथ करें जिसे उसकी मम्मी ज़बरदस्ती नर्सरी क्लास में बिठाने के लिए प्रयत्न करती है तो शायद कोई अतिश्योक्ति न हो। जिस प्रकार उसकी टीचर मम्मी को सांत्वना देती है कि एक बार बच्चा बैठना सीख गया तो फिर गाड़ी स्वयं ही चलेगी। हम में से अनेकों का हाल ऐसा ही होगा। 

आज के लेख में पुष्प अर्पित करने एवं दीप प्रज्वलन के पीछे की भावना की जानकारी मिल रही है। आज के प्रज्ञागीत के  स्थान पर अंधकार से प्रकाश वाली दिव्य वीडियो शार्ट अटैच की है। आद. डॉ शर्मा जी का इस वीडियो के लिए धन्यवाद् करते हैं। लेख का समापन देने और लेने की प्रवृति से होता है।

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कल वाले लेख में  एक समय पर एक धारा पर,एक विषय पर गहराई से चिंतन करने की बात की गयी थी। यह चिंतन इतना गहरा हो कि “ध्यान” करते समय, उन  Microseconds के  लिए बाकी सभी बातों को एवं सबको भूल जाना चाहिए। अगर कुछ  स्मरण रहे भी तो केवल “ध्यान” की ही बात स्मरण रह जाए। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथी, सहचर होंगें जो इन दिव्य ज्ञानप्रसाद लेखों को पढ़ते समय इतने एकाग्र हो जाते है कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि पास में कौन बैठा हुआ है, कौन आया था, कौन चला गया,कौन क्या कर गया। यह तो लेख पढ़ने की स्थिति है लेकिन जब कमेंट लिखने की बात आती है तो एकाग्रता और भी अधिक हो जाती है। लगभग सभी को बड़ी ही सावधानी से कमेंट लिखने की इच्छा होती है ताकि और कुछ नहीं तो इस ज्ञानप्रसार में ही अपना योगदान दे पाएं। परम पूज्य गुरुदेव इतने से  प्रयास से ही बच्चों की  पात्रता का मूल्यांकन करके अपने ऑफिस में जॉब ऑफर कर देंगें। उस समय ऐसे सहचरों के मन  की दिशा एक होती है- ज्ञानप्रसाद लेख। 

दैनिक ज्ञानप्रसाद compile करना हमारे लिए भी एक चुनौतीभरा प्रयास बना रहता है, मन में इतने तरह के विचार आते है, इतने रिफरेंस आते हैं,उस  विद्वान ने यह  कहा, उस वीडियो में यह बताया  गया था, ऐसा प्रतीत होता है कि हाथ स्वयं ही  लिखते चले जा रहे हैं, सभी विचार एक रोचक फिल्म की भांति  इतनी तेजी से दौड़ रहे होते हैं  कि सिनेमा के पर्दे  वाली फिल्म एक कोने पर रखी जा सकती है।

गुरुदेव फिर से बता रहे हैं कि  एकाग्र होना अलग बात है और स्थिर होना अलग बात है। मीरा हमेशा कहती रहती थी, “घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।” हर वक्त वह बेचैन मालूम पड़ती थी। रामकृष्ण परमहंस उछलते रहते थे। चैतन्य महाप्रभु जब चिंतन करते थे, तो उछलकर बेहोश हो जाते थे और कीर्तन करते थे। वे एकाग्रचित्त हो जाते थे। मनुष्य का दिमाग एक विषय पर, एक धारा पर, कुछ समय के लिए लगा रहे, तो एकाग्र होना आसान होता है  लेकिन एक तरह के विचारों पर बहुत देर तक मन स्थिर नहीं रह सकता। इसीलिए ज्ञानग्रहण की प्रक्रिया में Step by step की बात की जाती है। स्कूलों में भी आधे-आधे घंटे यां 45 मिंट के पीरियड होते हैं, फिर ब्रेक भी होती है। सब्जेक्ट बदलते जाते हैं, टीचर बदलते जाते हैं, वातावरण बदलता जाता है। अगर एक ही सब्जेक्ट सारा दिन पढ़ाया जाए तो शायद दिमाग ही चकरा जाए। “ध्यान” लगाने के लिए एकाग्रचित होने में ऐसे वातावरण का बहुत बड़ा योगदान है।  

उपासना का जब समय आए, तो आप अपनी उपासना के समय जो क्रिया-कृत्य करते हैं, तो उसके पीछे जो शिक्षण दिए गए हैं, उनके साथ स्वयं को  मिलाइए। जब फूल चढ़ाए जाते हैं  तो इस चक्कर में पड़ने की ज़रुरत नहीं कि यह चमेली का फूल हैं, गेंदे  का फूल हैं यां  गुलाब के। महादेव जी तो  आक का फूल खाते हैं, गणेश जी चमेली का फूल खाते हैं और विष्णु भगवान गुलाब का फूल खाते हैं। यह सब  बेकार की बातें हैं। इन्हें  छोड़िए और केवल यही चिंतन किजिए  कि “मनुष्य  का जीवन फूल जैसा होना चाहिए। फूल जैसा कोमल जीवन होगा, तो भगवान के चरणों में भी स्थान मिल सकता है, गले में भी स्थान मिल सकता है, भगवान् सिर पे  भी वे स्थान दे सकते हैं। हर जगह स्थान मिल सकता है।” शर्त केवल यही  है कि 

“हम फूल जैसा मुलायम,कोमल, सुगंधित जीवन बनाने की कोशिश करें। 

जब ऐसे दिव्य विचारों के साथ फूल चढ़ाया जाता है तो परिणाम भी दिव्य ही मिलते हैं। इसके उल्ट  फूल चढ़ाता रहे और बेकार की बातें  सोचता रहे कि गुलदस्ता बनाऊँ या माला बनाऊँ, ये करूं या वोह करू। इन बेकार की बातों में समय खराब करने से कुछ भी हासिल नहीं होता।

ऐसा ही विचार दीप प्रज्जवलन के समय होना चाहिए। भगवान के पास दो दीपक तो सदैव ही जलते रहते है। दिन में सूरज प्रकाश करता है  और रात में चंद्रमा जलता है, और न जाने कौन-कौन से नक्षत्र तारे आदि प्रकाश फैलाते रहते हैं। आपकी पूजास्थली में भी तो पहले से ही बल्ब से इतना प्रकाश फैला हुआ है तो नन्हें से दीपक से क्या होने वाला है। 

दीपक आंतरिक प्रकाश का प्रतीक है, अंतर्मन को रोशन करने का प्रतीक है। पूजास्थली में दीपक से कहीं अधिक प्रकाश होने के बावजूद छोटा सा दीपक अक्ल के अंधों के लिए  मार्गदर्शन का प्रतीक है। यह छोटा सा दीपक ऐसे अंधों को मार्गदर्शन प्रदान करता है जिन्हें विलासिता, तृष्णा, वासना, भोग,लोभ आदि के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। भोग विलासता की ज़ंजीरों में जकड़े ऐसे अक्ल के अंधे मनुष्यों के लिए दीपक की यह व्याख्या हास्यास्पद तो अवश्य हो सकती है लेकिन सत्य यही है कि मनुष्य के  जीवन में प्रकाश का प्रतीक दीपक ही है। खाओ,पियो,मौज करो वाली प्रवृति वाले अक्ल के ऐसे अंधे, दिव्य आयोजनों में ज़बरदस्ती जाते तो हैं लेकिन वहां भी फ़ोन पर एकाग्रचित होते हैं। ऐसे अंधों के इन दिव्य आयोजनों में जाने के पीछे कुछ और ही उद्देश्य होते हैं।        

दीप प्रज्वलन की प्रक्रिया से हम  भगवान के बहाने स्वयं को देखने की भावना करते हैं। हम चिंतन करते हैं कि हमारी जिंदगी का स्वरूप दीपक जैसा होना चाहिए। “दीपक के प्रकाश” को हम अपने “जीवन के प्रकाश” से, हमारी “आत्मा के प्रकाश” से Equate करते हैं। यहाँ उस प्रकाश की चर्चा हो रही है जो आज के मनुष्य के जीवन से दूर भाग गया है। आए दिन अंधकारमय जीवन में भटकते हुए दानवों के हाथों किए जा रहे बलात्कार, आतंकवाद, चोरी-डकैती जैसे कुकर्मों का कहीं अंत दिखाई ही नहीं दे रहा। राजनेता से लेकर बुद्धिजीवी तक सभी अपना स्वार्थ सिधाते, अमूल्य जीवन के दिन काटते दिख रहे हैं।

हमारे फकीर गुरु ने हमारे हाथों में वोह शक्ति थमा दी है, ज्ञान की, प्रकाश की वोह मशाल थमा दी है जिसके आगे कोई भी टिक नहीं पाएगा।  200 वर्ष पूर्व लेखक बुलवर-लिटन द्वारा दिया गया स्लोगन Pen is mightier than sword अर्थात कलम तलवार की तुलना में शक्तिशाली है, सदैव सार्थक रहेगा। कलम यानि लेखन  बेहद शक्तिशाली है, आकार में छोटा होने के बावजूद, यह उन सत्यों  को पूर्ण  करने की शक्ति रखता है जो एक शक्तिशाली तेज धार वाली तलवार भी  पूरा नहीं कर सकती। 

वतर्मान चर्चा में प्रकाश का अर्थ  “तमसो मा ज्योतिर्गमय”  से है जिसमें तमस का अर्थ अन्धकार है। दीप प्रज्वलन की प्रक्रिया से मनुष्य “अंधकार से प्रकाश की ओर”  लेकर जाने की प्रार्थना करता है । यहाँ टॉर्च और बल्ब  के  चमकदार भौतिक प्रकाश से न होकर अंतर्मन के प्रकाश से, अर्थात ज्ञान से है । दीपक जलाकर हम भावना करते हैं कि हमारा मस्तिष्क ज्ञान से, विचारणा से, प्रज्ञा से,प्रकाश से भरा हुआ हो। अगर हमारा मस्तिष्क इन सबसे भरा हुआ हो,तब हम  दीपक की भांति जलने का कार्य करें, ज्ञानदान से मानवजाति के उत्थान की बात करें, विसर्जन और विलय की बात करें। 

यही वोह स्थिति है जिसकी ओर  परम पूज्य गुरुदेव हमें लेकर जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ पँहुचने बाद मनुष्य बिल्कुल शांतमय होकर ध्यानपूर्वक, ध्यान से “ध्यान” लगाएगा तो कभी हो ही नहीं सकता कि उसका मन भटक जाए। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं  के व्यक्तिगत अनुभव अनेकों बार इस तथ्य को सार्थक कर चुके हैं। इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान कर रहे सभी साथिओं से एक ही निवेदन है: समयदान, ज्ञानदान, विवेकदान,श्रमदान कीजिए, अंतर्मन से कूड़ा-कर्कट निकाल फेंकिए, पूर्णतया खाली हो जाइए, तब आप हल्का अनुभव करेंगें, फिर ध्यान लगाकर देखिए और अपने अनुभव शेयर कीजिये।    

परम पूज्य गुरुदेव की एक बात पल्ले बांध लेने की आवश्यकता है और वोह यह है कि जिस बिज़नेस में हमने गुरुदेव के साथ साझेदारी की है वोह “लेने की नहीं बल्कि देने” की साझेदारी है। छोटे से छोटे बिज़नेस में भी कुछ वर्ष तो देना ही देना होता है, एक बार बिज़नेस चल गया तो फिर लाभ ही लाभ है। भगवान के खेत में Give and take, बोओ और काटो, इस हाथ से दे, उस हाथ से ले वाला सिद्धांत काम करता है। जो लोग भगवान के खेत में से केवल लेने/लूटने की ही धारणा लेकर आते हैं, अंत में खाली हाथ ही विदा हो जाते हैं। 

आज के लेख का समापन वर्तमान लेख श्रृंखला की निम्नलिखित Tagline से करने की अनुमति चाहते हैं, लेख की रचना बहुत ही ध्यानपूर्वक की गयी है,अनजाने में हुई किसी भी त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हैं:

ध्यानपूर्वक ध्यान देकर “ध्यान” करो, फिर कभी भी नहीं कहोगे कि “ध्यान” में मन नहीं टिकता 

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कल वाले लेख  को 622   कमैंट्स मिले,16   युगसैनिकों (साधकों) ने,  24 से अधिक कमैंट्स, आहुतियां प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग  के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव


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