वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ध्यान क्यों करें, कैसे करें ? पार्ट 6


ध्यान के लिए भगवान को रिश्तेदार बनाइए
भगवान निराकार हैं अर्थात इनका कोई आकार नहीं है। निराकार भगवान श्रेष्ठ विचारों के रूप में, आदर्शों के रूप में, सिद्धांतों के रूप में मनुष्यों में विराजित होते हैं। इसीलिए दिव्य विचारों वाले मनुष्यों का देवतुल्य,ईश्वरतुल्य विशेषण देकर सम्मान किया जाता है। पंजाबी में तो ऐसा भी कहा जाता है “ओह ते सचमुच रब्ब दा ही बंदा ही है।”
भगवान कोई व्यक्ति नहीं हैं लेकिन मनुष्यों ने इन्हें व्यक्ति बना रखा है। भगवान को तो “ध्यान (Concentration) के लिए, विचारणा के लिए बनाया गया था क्योंकि “ध्यान” करने के लिए किसी-न-किसी चीज़ पर मन को एकाग्र करना होता है। इसलिए “ध्यान” में एकाग्रता के लिए हम कोई-न-कोई मनगढंत मूर्त बना लेते हैं और न केवल मूर्त बनाते बल्कि उससे अपना कोई-न-कोई रिश्ता भी निकाल ही लेते हैं,जबकि भगवान किसी के रिश्तेदार नहीं है। मनुष्य को भगवान के साथ रिश्तेदारी निकालनी ही पड़ती है, स्वार्थी जो ठहरा। मनुष्य को पता है कि इसके पास शक्ति है, सामर्थ्य है, अल्लादीन का चिराग है तो क्यों न इसे अपना चाचा,ताऊ ही बनाकर अपना काम निकलवा लूँ। आरती भी यही गाता “मात- पिता तुम मेरे- – -” रिश्तेदारी के बाद, करतब भी वही है करने लग जाता है जैसे साधारण जीवन में अपने सामजिक रिश्तेदारों के साथ करता है। काम निकलवाने के लिए तो मनुष्य गधे को भी बाप बनाना स्वीकार कर लेता है, यह है उसकी सही फितरत। रिश्तेदारी में अक्सर कहते सुना गया है कि मैंने 50 रुपए का गिफ्ट दिया उसने मेरे बर्थडे पर केवल 15 रुपए का ही दिया, आगे से मैंने उसके घर नहीं जाना । भगवान के मंदिर में मनुष्य ने 5000 रुपए का प्रसाद चढ़ाया और मिन्नत की कि मेरे बेटे को IIT में एडमिशन दिला देना, एडमिशन नहीं मिली तो भगवान बुरे हो गए, निष्ठुर हो गए, निर्दय हो गए, मेरे 5000 रुपए की भी कदर नहीं की।
बातें कड़वी हैं परन्तु हैं बिल्कुल सच्ची।
इन्हीं Theoretical facts को पढ़कर,समझकर, विश्वास करके ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की प्रैक्टिकल लेबोरेटरी में प्रयोग करने को प्रेरित किया जा रहा है । इस परिवार के अनेकों साथी यह प्रैक्टिकल कर भी रहे हैं और लाभ भी उठा भी रहे हैं। हमारे समर्पित साथी आदरणीय अरुण जी बहुत प्रयत्न करने के बाद भी अपने मन को बाँध सकने में असमर्थ रहे, इच्छा थी कि उनके कमेंट पर चर्चा करें लेकिन शब्द सीमा एवं समय सीमा की दो-दो ज़ंजीरों ने इस विषय को किसी विशेषांक के लिए पोस्टपोन करना उचित समझा।
गुरुदेव हमें समझा रहे हैं कि भगवान् के साथ रिश्तेदारी स्थापित करने का उद्देश्य मात्र इसलिए है कि मनुष्य का “ध्यान” लगा रहे। ध्यान की तीव्रता के लिए, मन की चंचलता ,स्थिरता, अधीरता को दूर करने के लिए मन की वृत्ति को “ध्यान” में लगाए रखने के लिए मनुष्य किसी-न-किसी रूप की कल्पना करता है। कल्पना करने के पश्चात मन लगा रहता है, विश्वास बना रहता है। धीरे-धीरे, नियमित एवं अनवरत प्रयास/प्रैक्टिस से विश्वास इतना दृढ़ हो जाता है कि जो व्यक्ति पाँच मिंट भी टिक नहीं पाता था,अब वही व्यक्ति, भूखा-प्यासा, घंटों भगवान से सानिध्य में बैठा “ध्यान” लगाने में समर्थ हो जाता है। और फिर एक दिन वोह भी आ जाता है जब वही व्यक्ति भगवान से वार्तालाप भी करने लगता है। इस स्टेज पर पँहुचने के लिए वर्षों क्या, पूरा जीवन भी लग जाता है लेकिन एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मन को एकाग्रचित्त करने के लिए भगवान् से रिश्तेदारी निकालने से उत्तम कोई तरीका नहीं है।
सही मायनों में देखा जाए भगवान एक ही हैं। गुरुदेव थोड़ा Lighter मूड में कहते हैं कि अगर दुनिया में इतनी तरह के देवी-देवता होते, तो आपस में मार-काट फैल जाती, लड़ाई-झगड़ा होता, मुकदमेबाज़ी शुरू हो जाती, फिर फौजदारी खड़ी हो जाती कि ये संतोषी माता है , वह काली माता है आदि आदि। काली माता कहती कि हमारे समर्पित और आज्ञाकारी चेले को संतोषी माता झटक कर ले गई, मैं उनके बाल उखाडूँगी। संतोषी माता का चेला, जो कल तक शुक्रवार के दिन खटाई-मिठाई नहीं खाता था, अब रात्रि में चंडी की पूजा करने लगा, तो संतोषी माता गाल फुला के बैठ गई। संतोषी माता का चेला चंडी के यहाँ और चंडी माता का चेला संतोषी माता के यहाँ चला गया, तो वे आपस में लड़ेंगीं। गुरुदेव इन देवियों की लड़ाई की Picturization बिल्कुल ऐसे ही करते हैं जैसे हम समाज में,राजनीति में 24 घंटे देख रहे हैं। आज का युग कलपुर्ज़ों का युग, कलयुग है, टेक्नोलॉजी का इतना विकास हो चुका है कि लड़ाई के ऐसे दृश्य देखने के लिए मनुष्य को टीवी का स्विच भी ऑन नहीं करना पड़ता, 24 घंटे हाथ में लिए अपने बुद्धू-बक्से रुपी कलयुगी पिता से ही मार्गदर्शन प्राप्त कर लेता है। कभी समय हुआ करता है,बेटा अपनी समस्याओं का समाधान अपने पिता के वर्षों के अनुभव से प्राप्त किया करता था लेकिन आज फ़ोन/इंटरनेट/गूगल ही उसका सब कुछ है।
गुरुदेव बताते हैं कि बेटे भगवान तो एक ही है जो सर्वव्यापी है। अनेक प्रकार के देवी-देवता मात्र मनुष्य की कल्पनाएँ हैं। अपनी कल्पनाओं, विश्वास एवं न जाने कौन-कौन सी आस्थाओं को आधार बनाकर मुसलमानों ने अपना दाढ़ी वाला भगवान् बना लिया है, हिन्दुओं ने मोर पँख वाले मुरली मनोहर बना लिए,ये सब कल्पनाएँ हैं।
अगर यह सब कल्पनाएं हैं तो फिर असली भगवान क्या हैं ?
गुरुदेव कह रहे हैं कि उच्च एवं श्रेष्ठ विचारणा के समुच्चय को, उत्कृष्टता के समुच्चय को, सद्गुणों के समुच्चय को भगवान कहते हैं। बेटे, भगवान जब कभी आते हैं, तो श्रेष्ठ विचारों के रूप में आते हैं, आदर्श उत्कृष्टता के रूप में आते हैं, उत्कृष्ट चिंतन के रूप में आते हैं ,शक्ल के रूप में नहीं आते। जिन मनुष्यों के स्वपन में कभी भगवान् शिव के, माँ लक्ष्मी के, हनुमान जी के दर्शन होते हैं वोह उनकी अटूट श्रद्धा एवं आस्था है क्योंकि भगवान तो निराकार हैं, उनका कोई आकार तो है नहीं।
सुप्रसिद्ध श्लोक “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।” में भगवान कृष्ण कहते हैं जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, विनाश का कार्य होता है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर आता हूँ और इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।” सज्जनों और साधुओं की रक्षा करने लिए और पृथ्वी पर से पाप को नष्ट करने के लिए तथा दुर्जनों और पापियों के विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में बार-बार अवतार लेता हूँ और समस्त पृथ्वी वासियों का कल्याण करता हूँ।
आदर्शों का समुच्चय भगवान:
श्रेष्ठता के प्रतीक,आदर्शों के प्रतीक, को भगवान् कहा जाता है। जिन मनुष्यों ने इन आदर्शों का पालन किया, वह भगवान के भक्त कहलाए और भगवान के अनुग्रह के अधिकारी होते चले गए। देव-पूजन के साथ जुड़े हुए जो लोग “श्रेष्ठता के मापदंड” हैं, वही हमारे विचार होने चाहिए कि हम अपना श्रम,उच्च उद्देश्यों के लिए, श्रेष्ठ कामों के लिए निरंतर खर्च किया करेंगे। आप जितनी देर तक जल चढ़ाया करें, आचमन किया करें, उतनी देर तक अपने विचारों को इस तरह घुमाते रहें कि हम अपना श्रम लोकहित के लिए समर्पित करेंगे।
अक्षत (चावल) चढ़ाने के समय “अक्षतं समर्पयामि” बोला जाता है। यह मनुष्य को स्मरण कराने के लिए बोला जाता है कि अरे भुलक्कड़, तुझे सब कुछ याद है: अपनी नौकरी, प्रमोशन आदि सब याद है। बेटे को वकील बनाना याद है,यहाँ तक कि पोते/पोती का विवाह देखने का भी लालच है लेकिन यह याद नहीं कि “भगवान का दिया हुआ करोड़ों रुपये मूल्य का हीरे जैसे अमूल्य जीवन” का भी कोई कर्ज़ है, उस कर्ज़ का भुगतान भी करना है, उसका भी कुछ ब्याज देना है,उसकी भी कोई नियत/नियमित EMI (Equated monthly instalment) देनी है। आजकल तो बड़े-बड़े महलरूपी बंगले और उनमें stuff किया गया सारे का सारा सामान भी EMI पर मिल जाता है, Possession लेते ही बैंक अकाउंट से इंस्टालमेंट निकलनी शुरू हो जाती है,इंस्टालमेंट की अदायगी न होने पर Bankruptcy की स्थिति भी आ जाती है लेकिन “मनुष्य शरीररुपी महल” एवं उसमें विराजमान “ईश्वररूपी आत्मा” की अदायगी करने की याद तक नहीं आती।
इस विषय पर विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है लेकिन अगर हम अक्षत चढ़ाने का अर्थ ही समझ लें तो बड़ी बात होगी।
चावल लेकर रोजाना अक्षत (अ-क्षत अर्थात बिना टूटे हुए चावल) चढ़ाते हुए हम संकल्प लेते हैं कि अपनी “कमाई का एक अंश” भगवान् को निष्ठापूर्वक नियमित रूप से देते रहेंगे। आप हमारे जीवन के हिस्सेदार हैं, शेयर होल्डर हैं। हमारी “जिंदगी की दुकान” एक ऐसा व्यापार है जिसमें हमारा ही हिस्सा नहीं है आपका भी हिस्सा है, इसमें आपकी की भी कुछ पूँजी लगी हुई है, इसमें भगवान ने भी कुछ रकम लगाई है, हमारे शरीर के अंदर लगी भगवान की मशीनें ही इस फैक्टरी में काम कर रही हैं। हमारे शरीर के अंदर दिमागरुपी कंप्यूटर भगवान् का ही दिया हुआ है। 24 घंटे अनवरत ऑक्सीजन प्रवाह करने वाला ह्रदय भगवान् का ही दिया हुआ है ,मनुष्य तो केवल भगवान की फैक्ट्री में काम करने वाला कार्यकर्ता ही है, अरे मुर्ख, बड़ी शान से शेयर होल्डर बन बैठा है लेकिन इस फैक्ट्री की Maintenance तक के लिए तो पैसे दिए नहीं है।
यही है आज के ज्ञानप्रसाद लेख की शिक्षा ,जय गुरुदेव


कल वाले लेख का अमृतपान करके 11 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक कमैंट्स (आहुतियां) एवं 501 टोटल आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्।


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