वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

तोरा मन दर्पण कहलाए -मन की परिभाषा

“ध्यान क्यों करें, कैसे करें?” लेख श्रृंखला से ही सम्बंधित एक लेख, हमारी स्वरचित रचना।   

1965 में रिलीज़ हुई धर्मेंद्र,मीना कुमारी स्टारर बॉलीवुड मूवी का बहुचर्चित गीत (गीत क्या, भजन कहना उचित होगा) “तोरा मन दर्पण कहलाए”  आज के ज्ञानप्रसाद लेख का आधार है। 

लेख के आरम्भ में ही हम अपने सहपाठिओं से करबद्ध प्रार्थना/निवेदन करना चाहेंगें कि आज के इस लेख को पढ़ते समय कहीं यह न समझ लिया जाए  कि हम गुरुशिक्षा को नकार कर बॉलीवुड और फिल्मों आदि की चर्चा करने वाले हैं, कतई नहीं, कभी भी नहीं। ज्ञानप्रसाद  लेखों में जहाँ कहीं भी आवश्यकता होती है बॉलीवुड (यां फिर कहीं से भी ) प्रेरणादायक रिफरेन्स दिए ही जाते हैं क्योंकि ज्ञान कहीं से भी प्राप्त हो, लेने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए , इसका साक्षात् उदाहरण  तो परम पूज्य गुरुदेव का दिव्य साहित्य ही है जिसमें उन्होंने विषय को समझाने के लिए न जाने कौन-कौन से उदाहरण दिए हैं। ज्ञानप्रसाद लेखों में “मन तड़पत हरी दर्शन”,“ईश्वर, अल्लाह तेरे नाम” जैसे कितने ही गीतों को प्रज्ञागीत बनाकर अटैच किया गया है क्योंकि “प्रज्ञा” शब्द का इंग्लिश अनुवाद ही “The highest and purest form of wisdom, intelligence and understanding” है। 

आज का ज्ञानप्रसाद लेख पूर्णतया हमारी स्वयं की ही रचना है जिसे गुरुदेव ने ऊँगली पकड़ कर लिखवाया है। हो सकता है जिस प्रकार इस लेख  ने “मन” के प्रति हमें  प्रभावित किया, अन्य सहपाठिओं को भी प्रभावित करे, प्रोत्साहित करे एवं “मन की परिभाषा” को और अधिक गहराई से जानने में सहायक हो। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि अक्सर मनुष्य इसी भ्र्म और गर्व  में भूला भटका फिरता रहता है उसे बहुत ज्ञान है, जिसके कारण वोह उन छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज़ करता रहता है जिनके बारे में उसे बिल्कुल ही जानकारी नहीं होती। उसकी सिट्टी- बिट्टी तो उस समय गुल हो जाती है जब उसका 5-6 वर्ष का बच्चा आकर पूछता है “ पापा, मन को दर्पण( शीशा) क्यों कहते हैं?” 

आगे चलने से पूर्व, उचित होगा कि  इस लेख की रचना की पृष्ठभूमि, बैकग्राउंड का वर्णन  किया जाए। 

पिछले गुरुवार को सप्ताह का अंतिम ज्ञानप्रसाद लेख प्रस्तुत किया गया था। हम टीवी पर पुराने गीतों पर आधारित  म्यूजिक रियलिटी शो देख रहे थे। पचास-साठ के दशक के पुराने गीत, जिनमें से अधिकतर गीतों को समय-समय पर हमने युवावस्था में कॉलेज/की यूनिवर्सिटी की स्टेज पर गाया होगा, हमारे दिल के बहुत ही करीब थे, आज भी हैं। शो की Compere ( लिपि ओझा) ने काजल फ़िल्म के सुप्रसिद्ध भजन “तोरा मन दर्पण कहलाए” की अनाउंसमेंट करते समय जो शब्द बोले वोह सीधे हमारी अंतरात्मा में उतर गए,हमने  वहीँ से निर्णय ले लिया कि आने वाले सोमवार का ज्ञानप्रसाद इसी गीत पर आधारित होना चाहिए। जिस अमर भजन को बचपन से सुनते आ रहे थे आज वर्षों बाद उसके लिरिक्स ( भजन के शब्द) को सुनकर स्वयं को धिक्कारने के सिवाय और परम पूज्य गुरुदेव को धन्यवाद् करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं सूझा। बार-बार कहे जा रहे थे, “ आजकल बात तो ध्यान की हो रही है, ध्यान क्यों करें, कैसे करें लेकिन “मन” की इतनी सुन्दर जानकारी एवं परिभाषा को कैसे नकार दें”

उस दिन से लेकर,आज लेखन तक, मन दर्पण कैसे है?, प्रश्न पर Extensive रिसर्च करते रहे और जो कुछ भी दिमाग में ग्रहण कर सके, इस ज्ञानप्रसाद कक्षा में प्रस्तुत है। 

सनातन धर्म में पांचों इन्द्रियों का स्वामी “शरीर और आत्मा का सारथि” मन को माना  गया है। “मन ही ईश्वर, मन ही देवता,मन से बड़ा न कोय, मन से कोई बात छुपे न”, कितने अनमोल शब्द हैं। लेकिन इन शब्दों  का महत्व तब तक सार्थक नहीं हो पाता  जब तक इन पंक्तियों को  पढ़ रहे पाठक एवं लिखने वाली उँगलियाँ, पूर्णतया समझकर,चिंतन-मनन करते हुए अपने अंतर्मन में न उतार लें। अनेकों अन्य भजनों की भांति, हिन्दू धर्म के इस दिव्य भजन की पंक्तियाँ भी  इस्लाम धर्म के अनुयायी, पांच बार नमाज़ पढ़ने वाले  साहिर लुधियानवी जी ने लिखी हैं। 

प्रत्येक ज्ञानप्रसाद लेख को ध्यान से पढ़कर, समझकर,अंतर्मन में उतारने के लिए हमारा निवेदन रहता है लेकिन इस लेख के लिए विशेष आग्रह है।  कहीं यह धारणा न रहे यह तो काजल फिल्म का गीत है, आगे भी बहुत बार सुना है, कौन सी नई बात होने वाली है। गीत के लिरिक्स की एक-एक पंक्ति, एक-एक शब्द समझने वाला है। इन पंक्तियों में व्यक्त किया गया “मन” से सम्बंधित ज्ञान अगर हमें समझ आ जाता है तो समझो ध्यान से सम्बंधित आने वाले सभी लेखों की समझ तो आएगी ही, ध्यान लगाना भी सरल हो जाएगा। साथिओं द्वारा पोस्ट किए  जा रहे बहुचर्चित प्रश्न: ध्यान में मन नहीं लगता, मन भटकता रहता है,ध्यान करके हमें क्या मिलने वाला है? जैसे अनेकों प्रश्नों का निवारण भी हो जाएगा।        

“ध्यान क्यों करें, कैसे करें ?” लेख शृंखला का शुभारम्भ “मन” की चर्चा से ही हुआ था। जिन उद्देश्यों को लेकर इस लेख श्रृंखला में हम आगे बढ़ रहे हैं, उनमें “मन की स्थिरता” बहुत ही  महत्वपूर्ण उद्देश्य  है।अगर हम मात्र यही उद्देश्य पूर्ण कर लेते हैं तो समझ लिया जाएगा कि  बहुत कुछ प्राप्त हो गया। आज के युग की, मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या मन को स्थिर करने की ही तो है।   

आज के लेख का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है: “मन एक दर्पण है।” जिस प्रकार हम दर्पण के सामने खड़े होकर  झूठ नहीं बोल सकते, मन के साथ भी दग़ाबाज़ी नहीं कर सकते।  

जो कुछ दर्पण के सामने आता है, हूबहू वही उसमें Reflect  होता है। इतना ही नहीं, हम दर्पण के समक्ष जैसी-जैसी हरकतें करते हैं, हमारा image भी वही करता है। जब हम  गाड़ी चला रहे होते हैं, तो शीशे में देख सकते हैं कि हमारी गाड़ी  के पीछे एक कूड़े का डिब्बा है। दर्पण स्वयं  को कूड़े के डिब्बे से पहचान रहा है, यह एक कल्पना है क्योंकि दर्पण तो निर्जीव है वोह कैसे पहचान सकता है। इसी तरह  कल्पना करें कि दर्पण किसी खूबसूरत नज़ारे  को पहचान रहा है। दोनों ही कल्पनाओं में,साधारण मनुष्य तो यही कहेगा कि यह कैसी मूर्खता है, भला निर्जीव दर्पण का क्या अस्तित्व है। ऐसी बात नहीं है, दर्पण में जो दिख रहा है उसे हमारी आँखें देख रही है, जिसकी छवि हमारी चेतना में बन रही है। हमारी चेतना एक दर्पण की तरह है। इस पर अलग-अलग छवियाँ आती हैं। हमारे मन में उठने वाले विचार, छवियां, सोच, प्रसन्नता, तनाव आदि सब हमारी चेतना के साथ जुड़े हैं। इस चर्चा को  समझने के लिए अगर हम चेतना को ही “मन” कह लें तो शायद कोई हर्ज़ न हो। जिस  प्रकार हम मन को दर्पण कह रहे हैं उसी प्रकार एक बहुचर्चित स्लोगन Face is the index of mind भी हम सबने अवश्य ही सुना होगा। इस स्लोगन का अर्थ सभी समझते तो हैं ही लेकिन प्रतक्ष्य भी अनेकों बार देखा ही होगा। मन में कोई उपद्रव चल रहा है तो चेहरा एकदम लाल हो जाता है। पूजास्थली में ईश्वर के साथ मग्न हैं तो चेहरा चमक जाता है। 

मनुष्य,अपनी कमज़ोरियाँ भले ही छिपा ले, मन के अंदर जो भी रख ले, चेहरा स्वयं ही सब कुछ बोल देगा। यहाँ पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात निकल कर आ रही है कि मनुष्य अपने मन में जैसी भावना रखेगा,जैसा वोह सोचेगा, यह भावनाएं उसकी मनःस्थिति पर वैसे ही हावी होती जाएंगीं और मनुष्य की पर्सनॅलिटी में Reflect  जाएंगीं । अगर आप खुश लोगों के बारे में सोचते रहते हैं, तो आप खुश रहते हैं, दुःखी  चीज़ों के बारे में सोचते हैं तो दुःख अनुभव करते हैं। इसीलिए अक्सर  कहा जाता है: “किसी से नफ़रत मत करो, किसी को बुरा मत कहो,” जिस व्यक्ति से आप नफ़रत करते हैं उसे तो कोई फर्क नहीं पढ़ने वाला लेकिन आपका अपना मन, आपका तंत्रिका तंत्र (Nervous system), उस व्यक्ति का रूप, आकार और रंग ग्रहण कर लेगा। सबसे बुद्धिमानी की बात यह है कि किसी से नफ़रत न करें, क्योंकि आप जिससे भी नफ़रत करते हैं, उसके संस्कार आपके अंदर समा जाते हैं।

आइए आज के लेख का समापन इस भजन की पंक्तियों के विश्लेषण के साथ करते हुए अपने अंदर उतारने का संकल्प लेकर करें।  

“अर्थात अगर मनुष्य मन पर विजय पा ले तो ईश्वर को स्वयं ही प्राप्त  कर लेगा क्योंकि ऐसी स्थिति प्राप्त  होते ही मनुष्य बाहिर की  कभी सोचेगा ही नहीं, ईश्वर की  ही सोचेगा क्योंकि वोह तो उसके  मन में बैठ गया है, वही ईश्वर जिसे वोह मंदिर, मस्जिद, चित्रों आदि में ढूंढ रहा था।”    

“अर्थात मन दर्पण ही तो है, मन सब कुछ कह देता है।” 

“अर्थात मन ईश्वर है, देवता है, अगर मन में उजाला आ गया तो समझो चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश है, मन जैसे दर्पण पर कभी भी धूल  नहीं पड़नी चाहिए।” 

“अर्थात मन से कोई भी बात छिप नहीं सकती। मनुष्य द्वारा किये गए सत्कर्मों  और कुकर्मों के लेखे-जोखे से मनुष्य स्वयं ही भलीभांति परिचित है। मनुष्य की फितरत है कि उसे लोगों के सामने अपनी बढ़ाई करने में बहुत शान प्रतीत होती है लेकिन अगर साफ़ और निर्मल मन से, मनुष्य अकेले में बैठ कर सोचे तो शायद अपने साथ आँखें भी न मिला सके और स्वयं को  धिक्कारते हुए पश्चाताप से शायद कोई शांति मिल जाए” 

“अर्थात नाशवान तन जिसके लिए सारा जीवन मनुष्य गँवा देता है, एक दिन स्वाहा होने वाला है। कितना उचित होगा मन के धन का भी ख्याल करे, उसका भी पालन पोषण करे ताकि हीरे जैसा अनमोल जीवन भी संवर जाए”

लेख का समापन तो हो गया लेकिन साथिओं को बता दें कि गुरुदेव ने एक बार फिर हमारी उँगलियाँ पकड़ कर आज का दिव्य सन्देश भी लेख से सम्बंधित ही लिखवा डाला। हमारी सबकी आदरणीय बहिन राधा त्रिखा ने एक ऐसी कहानी भेजी है जिसमें भगवान का स्थान मनुष्य का मन ही बताया गया है। राधा जी ने यह कहानी भेज कर परिवार पर बहुत कृपा 

की है जिसके लिए हम उनके आभारी हैं, लेकिन पेज नंबर लिखना भूल गयी थीं, हमने वोह सर्च कर लिया था। 

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शनिवार के विशेषांक को 504  कमैंट्स मिले, 9  युगसैनिकों (साधकों) ने,  24 से अधिक कमैंट्स, आहुतियां प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग  के लिए धन्यवाद्। जय गुरुदेव


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