18 सितम्बर 2024 बुधवार का ज्ञानप्रसाद–स्रोत- अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में पांचवां पार्ट प्रस्तुत है, हमने इसे भी यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके।
आज प्रस्तुत किये गए ज्ञानप्रसाद के साथ अखंड ज्योति नवंबर 2002 वाले अंक का समापन होता है,अभी तीन अंक बाकी हैं। कमैंट्स इस बात का साक्षी हैं कि सभी सहपाठी ध्यान की परिभाषा को समझकर थ्योरी और प्रैक्टिकल से अप्लाई करने का प्रयास कर रहे हैं। एक परिश्रमी विद्यार्थी की धारणा है कि कठिन से कठिन विषय को भी अगर समझकर अध्ययन किया जाए तो वह अति रोचक हो जाता है। इसके उल्ट,अगर सरल से सरल विषय में भी रूचि न दिखाई जाए तो वह अतिकठिन प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में गुरुदेव जैसे सरल अध्यापक का बहुत बड़ा योगदान होता है ,ऐसे गुरु को नमन करते हैं।
आज के लेख में गुरुदेव स्वयं को भगवान् के साथ जोड़ने एवं एवं उपासना में मन लगाने को कह रहे हैं। आज का प्रज्ञागीत Exactly हमारे जितना ही बूढ़ा है लेकिन उपासना एवं भगवान् के साथ जुड़ने के लिए युवाशक्ति से भरपूर है, रफ़ी साहब को नमन करते हैं।
आइए गुरुकक्षा की ओर चलें।
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आप अपनी आँखों का परिशोधन कर लीजिए फिर देखिए, कैसे-कैसे चमत्कार होते हैं । सारा चक्र आँखों का ही तो है। कई बार चर्चा हो चुकी है, आज फिर पासिंग रिफरेन्स में स्मरण करते हैं: “नज़रें बदली तो नज़ारा ही बदल गया।” आँखों का परिशोधन कैसे किया जाए ? क्या हमें भी धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी की भांति आँखों पर पट्टी बाँध लेनी चाहिए, सूरदास जी की भांति आँखें फोड़ लेनी चाहिएं ? सूरदास जी के जन्म से ही अंधे होने /आँखें फोड़ने के पीछे कई भ्रांतियां है लेकिन प्रश्न तो यह उठता है कि क्या ऐसा करने के बाद ईश्वर-दर्शन हो जायेंगें ? जिस सन्दर्भ में चर्चा हो रही है यहाँ पट्टी बाँधने का मतलब यह है कि दूसरे व्यक्तियों (नर और नारियों) के लिए जो उचित सामाजिक मान्यताएं हैं, उनका सम्मान किया जाए। केवल ऐसा सोचने से ही आज के समाज में बलात्कार एवं अन्य जघन्य अपराधों से छुटकारा पाया जा सकता है।
परम पूज्य गुरुदेव हम बच्चों से ऐसी ही विचार क्रांति की आशा रखते हैं।
आज कल चल रही ध्यान की प्रैक्टिकल कक्षाओं में आँख बंद करके, धूनी रमा कर, ज़ोर-ज़ोर से लाउड म्यूजिक के साथ, शरीर को तोड़ मरोड़ का योग/ ध्यान आदि की शिक्षा नहीं दी जा रही। इन कक्षाओं का मुख्य उद्देश्य गुरु-शिक्षा में “ध्यान” लगाना, समझना, स्वयं अपने ऊपर अप्लाई करके टैस्ट करना है। अगर स्वयं संतुष्ट होते हैं तो औरों को बताना,उन्हें Convince कराना है।
यही है विचार क्रांति, मात्र नारे लगाने से युगनिर्माण नहीं होने वाला।
गांधारी द्वारा आँखों पर पट्टी बांधने के पीछे भी जितने मुँह उतनी बातों वाली बात है। ऐसे Controversial विषय को यहीं छोड़ दें और इतना समझ लें कि गांधारी ने पट्टी बाँध कर आँखों का परिशोधन कर लिया, उसके पश्चात् उसने न कोई जप किया,न तप किया और न कोई पूजा की, न कोई अनुष्ठान किया, न कोई ध्यान किया।
गुरुदेव हमें बता रहे हैं कि बेटा पट्टी बांधने/ आँखें फोड़ने की बात कभी सोचना भी नहीं। हम कह रहे हैं कि अपनी आँखों पर कण्ट्रोल करना, अंकुश लगाना। कमीनी आंखें, दुष्ट आंखें, जो नारी को, मातृशक्ति को, विषय वासना के रूप में देखती हैं, उन पर अंकुश लगा दो तो फिर देखना कैसे- कैसे चमत्कार कैसे होतेहैं। मात्र 20 सेकंड्स की संलग्न वीडियोशार्ट भी यही मार्गदर्शन दे रही है।
उद्बोधन में ही किसी ने प्रश्न किया कि गुरुदेव कोई ऐसा मंत्र बताइए कि जिससे माँ काली हमारे काबू में आ जाए। गुरुदेव बोले अरे धूर्त, अगर देवी तेरे काबू में आ जाएगी, तो तेरा कचूमर निकाल देगी। आपने शुँभ-निशुंभ की कथा तो सुनी ही होगी। शुँभ ने अपने दूत द्वारा संदेश भेजा, कहा कि देवी तू हमारे काबू में आ जा और हमारी पत्नी बन जा। देवी ने कहा, अच्छा आप हमें पत्नी बनाना चाहते हैं, हम पर अपना हुक्म चलाना चाहते हैं, हमें गुलाम बनाना चाहते हैं? ठीक है हम आपकी नौकरानी बन सकती हैं, गुलामी भी कर सकती हैं लेकिन हमने एक प्रतिज्ञा ले रखी है जिसे आपको मानना पड़ेगा।
यो माँ जयति संग्रामे यो में दर्पं व्यपोहति। यो में प्रतिबलो लोके स में भर्ता भविष्यति॥
उस प्रतिज्ञा की शर्त है कि “यो माँ जयति संग्रामे” जो मुझको संग्राम में जीतेगा, उसे ही मैं अपना पति बनाउंगी, आ मुझसे लड़, जितना साहस मुझ में है,उतना पराक्रम,पौरुष,साहस दिखा, “यो में प्रतिबलो लोके स में भर्ता भविष्यति” मेरे सामान संसार में जो कोई बलवान होगा, जो मुझे संग्राम में पराजित कर देगा, हरा देगा, वही मेरा स्वामी होगा। मैं उसी की पत्नी बनूँगी। उसने कहा, मैं लड़ने को तैयार नहीं हूँ। देवी ने कहा, अब मैं तरी अकल ठीक कर दूँगी।
गुरुदेव कहते हैं आप देवी को अपनी पत्नी बनाना चाहते हैं,उसके पति बनना चाहते हैं? शर्म आनी चाहिए। पति बनना चाहता है या भक्त बनना चाहता है? अपने गंदे मुँह से यह क्या कह रहा है। बेटे, देवी हमारी माँ है। माँ हुक्म देती है और बच्चे को उसका पालन करना होता है। बेटे यही है जीभ का परिशोधन।
अपने मन को भगवान के साथ जोड़ दें:
बेटे,अक्सर प्रश्न किया जाता है कि “ध्यान कैसे करें” ? इसके उत्तर में हम कहना चाहते हैं कि आपको अपने “मन” को भगवान के साथ जोड़ दें । हम बार-बार कह रहे हैं कि “परिशोधन की प्रक्रिया” के साथ कर्मकांड के विचार जुड़े हुए हैं। हम जो भी कर्मकाँड कराते हैं उनका इतना जादू है कि प्रत्येक कर्मकाँड में अद्वितीय शिक्षा भरी पड़ी है। वे सारी-की-सारी शिक्षाएँ आपके हृदयों में गूँजती रहें, दिमागों में चलती रहें। आपके चिंतन और विचारों की धारा बहती रहे, तो मैं समझूँगा कि आपने “विचारों का और क्रिया का समन्वय” कर दिया। जब तक यह समन्वय नहीं होगा, “ध्यान क्यों करें” मात्र प्रश्न ही बना रहेगा।
उपासना में मन को लगाइए
बेटे, देवपूजन के लिए गायत्री माता का एक फोटो रख लेना। दीप, नैवेद्य, अक्षत चढ़ा दिया करना, चंदन लगा दिया करना। धूपबत्ती जला दिया करना आदि। इसके अलावा और कोई कमी हो तो मुझसे कहिए, गुरुदेव। बेटे, तेरी उपासना में सबसे बड़ी कमी है कि तू यह सारी-की-सारी क्रियाएँ करने के साथ में उपासना में मन नहीं लगाता। जब भी कोई क्रिया करे, तो उसमें अपने मन को लगा लिया कर। इन सभी क्रियाओं में जो शिक्षण दिया हुआ है, उसे हृदयंगम करने से ही उपासना का प्रतिफल मिलता है।
पंचोपचार में पाँच चीजें आती है। जब इसमें एक-एक करके कुछ भी चढ़ाया करे, तब अपने विचारों को उन वस्तुओं के साथ उसी प्रकार से लगा लिया कर जैसा शिक्षण बताया गया है। देवपूजन में सबसे पहले देवता का ध्यान करके जल चढ़ाते है और मंत्रोच्चार करते है- ‘पाद्यं समर्पयामिः’, ‘अर्ध्यं समर्पयामि’, ‘आचमंन समर्पयामिः’। ये तीन चीजें है। तीन चम्मच जल से यह प्रक्रिया पूरी होती है। बेटे, तू यह तीन चम्मच से करता है या तीन बाल्टी से ? गुरुदेव , मैं तो तीन चम्मच से ही स्न्नान कराता हूँ और कहता हूँ, ‘स्नानं समर्पयामि।’ अच्छा बता, तीन चम्मच से तू कैसे नहा लेगा? इस चम्मच से या तो तू नहा ले या अपने बच्चे को नहला ले। जब तेरा बच्चा नहा लेगा, तब हम जानेंगे कि भगवान को नहला सकता है। गुरुदेव , मैं तो ऐसे ही करता हूँ, ‘आचमनं समर्पयामि।’ अच्छा बेटे, तो यह बता कि जब कुल्ला करता है तो कितना पानी खर्च कर देता है? गुरुदेव , एक लोटा तो खर्च हो ही जाता होगा। अच्छा तो अब तू ही बता कि एक चम्मच जल से भगवान का होठ भी गीला नहीं होगा, फिर आचमन क्या कराता होगा? भगवान से मखौल करता है, दिल्लगी करता है और कहता है कि एक चम्मच जल से भगवान जी को स्नान कराता हूँ। बेटे, भगवान का पूजन इस तरह से नहीं होता।
गुरुदेव,आपने ही तो बताया था यह। बेटे, मैंने तो बहुत-सी बातें बताई थी, वह तो याद नहीं रखी, केवल क्रिया याद रखी। यह याद नहीं कि जल चढ़ाते समय “प्रवृति” क्या रहनी चाहिए। उस समय यह प्रवृत्ति रहनी चाहिए कि हम स्वयं का समर्पण करें। देवता से माँगना मत, बल्कि यह भाव व्यक्त करना कि हम आपको समर्पण करेंगे। हम आपको देंगे। जो देता है, वही देवता कहलाता है। देवताओं ने भगवान को दिया है और आपको भी देवता की कृपा प्राप्त करने के लिए देने की वृत्ति सीखनी पड़ेगी। जब तक आपके अंदर देने की वृत्ति नहीं आएगी, कोई भी देवता आपके ऊपर कृपा नहीं कर सकता।
देने की वृत्ति का अर्थ यह है कि हम जो जल चढ़ाते हैं, उसके पीछे भगवान को यह आश्वासन दिलाते हैं कि हमारे श्रम की बूंदें, हमारा समय,आपके कामों के लिए लगा रहेगा। जल चढ़ाते समय हम बार-बार विचार करते हैं कि हमारा श्रम अर्थात् पसीने की बूंदें अर्थात् मेहनत, जो जल का प्रतीक है, अपने समय का हिस्सा है, ये समाज के लिए, देश के लिए, संस्कृति के लिए, धर्म के लिए अर्थात् भगवान के लिए लगा रहेगा।
ध्यान रखना, भगवान कोई व्यक्ति नहीं हैं । भगवान को हम अर्पण करते हैं। कहते हैं तेरा तुझको अर्पण और लिए हुए हैं मांगों का अम्भार, यह कैसे पूजा हुई? मंदिर में जिस मूर्ति की पूजा की जाती है वोह केवल भगवान् की प्रतीक है। मनुष्य की श्रेष्ठता ही भगवान का रूप है। भगवान ने जब अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाया था तो सारा समाज दिखाया था। समाज ही भगवान का रूप है। समाज की सेवा के लिए, लोकहित के लिए, लोकमंगल के लिए मनुष्य जो पसीना बहाता है, श्रमदान करता है, वास्तव में जल चढ़ाना उसी का प्रतीक है।
आज की “ज्ञानार्जन कक्षा” का यहीं पर समापन होता है।
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कल वाले लेख का अमृतपान करके 11 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक कमैंट्स (आहुतियां) एवं 456 टोटल आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्।