17 सितम्बर 2024 मंगलवार का ज्ञानप्रसाद –स्रोत- अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में चौथा पार्ट प्रस्तुत है, हमने इसे भी यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके।
ज्ञानप्रसाद लेखों में हमारा सदैव प्रयास रहता है कि जो भी लेख लिखा जाए वोह अपनेआप में कम्पलीट हो ताकि पाठकों को इसे समझने के लिए भटकना न पड़े । इस Completeness के लिए तरह-तरह के Cross-references की सहायता लेनी पड़ती है। इसी प्रक्रिया में आज साथिओं को यह जानने का अवसर मिलेगा कि देवता भी मनुष्य जन्म को पाने के लिए तरसते हैं, वोह तो सर्वशक्तिमान हैं फिर ऐसा क्यों ? बार-बार भट्टी में तपने के बाद सोना कुंदन बनता है। ध्यान का उद्देश्य मात्र माला फेरना न होकर परिष्कृत जीवन जीना है।
इसी सारांश के साथ, हमारा का आज का प्रयास प्रस्तुत है
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उपासना में पहला काम है सफाई करना। हमारे दिमाग में एक बात आनी चाहिए कि हमको भगवान के चरणों में जाने के लिए नहा-धोकर (मात्र शारीरिक स्न्नान नहीं) जाना चाहिए। स्वच्छ और पवित्र होकर जाना चाहिए। हमारे जीवन के कृत्य पवित्र होने चाहिए। हमारा चिंतन पवित्र होना चाहिए। हमारे साधन पवित्र होने चाहिए और हमारे जीवन की गतिविधियाँ पवित्र होनी चाहिए। अगर हम “पवित्रता एवं स्वच्छता” का पहला उद्देश्य पूरा कर लेते है, तो समझ लेना चाहिए कि हम पंचमुखी गायत्री साधना की ओर अग्रसर है, तभी तो कहा गया है कि Cleanliness is next to Godliness अर्थात “स्वच्छता भक्ति से भी बढ़कर है।” स्वच्छता भक्ति या देवत्व के मार्ग की ओर ले जाती है। स्वच्छता केवल शरीरिक न होकर, सकारात्मक विचारों के प्रसार को भी कहा गया है।
गुरुदेव ने किसी युवक से पूछा, “बेटे आपने अपने “जीवन का परिष्कार( Refinement) ” कर लिया है कि नहीं,इसके बिना बात बनेगी नहीं बेटे ।”
गुरुदेव ने कहा कि हमारे गुरु ने हमें बार-बार हिमालय बुलाया। बार-बार बुलाने की श्रृंखला उन्होंने उस समय प्रारंभ की जब हमारे चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण पूरे हो गए। जब उन्होंने यह देख लिया कि इसने अपना मन,शरीर और जिह्वा का परिशोधन करके इस लायक बना लिया कि हमारी गोदी में आ सकता है,तभी उन्होंने अपनी लंबी वाली भुजाएँ फैलाई और कहा कि अब तुझे मेरे पास आना चाहिए। मैंने पूछा, “आपने पहले क्यों नहीं बुलाया ? मुझे 24 वर्ष हो गए, तब तो मैं जवान भी था। उन्होंने कहा, “तब तक तू “परिशोधित” नहीं था। मैंने देखा था कि तेरी सफाई और शुद्धता में कमी थी। मैंने देखा कि तेरी शारीरिक और मानसिक शुद्धता का जो स्तर होना चाहिए, वैसा नहीं था। इसलिए हमारे गुरुदेव ने सोचा कि इसे अभी और निखार लूँ,इसके कपड़ों की और धुलाई कर लूँ। अब तेरा मन भी धुल गया,तेरा सब कुछ धुल गया, अब मेरा मन आता है कि तुझे गोदी में ले लूँ।”
“यह वोह समय था जब मैं अपने पिता से लिपटता हुआ चला गया, उनकी शक्ति-सामर्थ्य को प्राप्त करता हुआ चला गया।”
आत्म-परिशोधन की प्रक्रिया उपासना, भजन और कर्मकांड से भी अधिक आवश्यक है। गुरुदेव इस प्रक्रिया को समझाने के लिए कच्चे (Crude) लोहे की Refining का उदाहरण देते हैं। जब तक लोहा कच्चा रहता है, तब तक उसकी कोई चीज़ नहीं बन सकती। स्टील प्लांट्स में कच्चा लोहा आता है जहां उसको भट्टी में डाल दिया जाता है,गर्म किया जाता है,पिघलाया जाता है। मिट्टी तो पिघलती नहीं है और लोहा पिघल कर तरल(liquid) हो जाता है। इस प्रक्रिया में मिट्टी अलग होती चली जाती है और लोहा अलग होता चला जाता है। एक बार सफाई हो गई, पिघले हुए, अलग हुए लोहे को दोबारा भट्टी में डाला जाता है, जिससे लोहा और अधिक रिफाइन होता जाता है। बार- बार रिफाइनिंग की प्रक्रिया से एवम लोहे में क्रोमियम (Chromium) धातु मिलने से स्टेनलेस स्टील बनती है। परिशोधन के बाद स्टेनलेस स्टील बनती है,जिसे जंग (Rust) भी नहीं लगती है।
जीवन को परिष्कृत करना अपनेआप में ही सबसे बड़ा योगाभ्यास है :
गुरुदेव बताते हैं कि पुरातन काल में जीवन जीने की यही विधि हुआ करती थी । लोहे की तरह जीवन को भी बार-बार,समय की भट्ठी में, परिस्थितियों की भट्ठी में, उपासना की अग्नि में तपना पड़ता है, तब कहीं जाकर एक “परिष्कृत मनुष्य” का निर्माण होता है।
लोगों ने उपासना और साधना को जादू मान लिया। अध्यात्म को अल्लादीन के चिराग की भांति “जो मांगोगे वही मिलेगा” वाला जादू मान लिया। यह जादू नहीं है, यह “जीवन जीने की कला” है। जीवन के परिशोधन की प्रक्रिया है। मनुष्य का जीवन इतना उच्चकोटि का है कि इस पर देवताओं का जीवन निछावर होता है, भगवान को हम इस पर निछावर कर सकते है। भगवान से भी बड़ा है मनुष्य जीवन।
इस योगाभ्यास को साधना कहिए, तप कहिए, भजन कहिए-सबका उद्देश्य भगवान का रिझाना नहीं है, भगवान की खुशामद करना नहीं है, भगवान को फुसलाना नहीं है, भगवान को बहकाना नहीं है। भगवान के आगे तरह-तरह के जाल बिछाना नहीं है। उपासना का उद्देश्य तो यह है कि हम अपनेआप को परिशोधित करते चले जाएँ। अपनेआप का परिशोधन करते हुए चले जाएँगे, तो फिर देखेंगे कि क्या कमाल होता है, क्या मज़ा आता हैऔर स्वयं ही चमत्कार भी होते जाएंगें ।
हमारे ग्रंथों में वर्णन है कि देवता भी मनुष्य जन्म पाने के लिए तरसते हैं, आगे बढ़ने से पहले,आइए देखें ऐसा क्यों कहा जाता है:
ऐसा इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य जन्म (योनि) ही एकमात्र ऐसा जन्म है जिसमें हम जो चाहें वह कर सकते हैं। इसलिये इसको “कर्मयोनि” कहा जाता है ।इस योनि में परमात्मा ने मनुष्य को पूरी छूट दी है कि वह अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा, जो चाहे कर्म कर सकता है। बाकि जितनी भी योनियाँ हैं उन सब को ये अधिकार नहीं है वो सब “भोगयोनि” हैं, यहाँ तक कि देवताओं को भी ये अधिकार नहीं है, इसीलिए कहा जाता है कि देवी-देवता भी मनुष्य जन्म पाने के लिए तरसते हैं। मनुष्य जन्म में रहकर ही, अच्छे कर्मों से, उपासना/ साधना/आराधना/तप आदि से मनुष्य से देवता बना जा सकता है। कर्मयोनि से भोगयोनि की यात्रा की तुलना एक उद्योगपति से की जा सकती है जो सारा जीवन परिश्रम करके(कर्म) पूंजी कमाता है और जीवन के अंतिम दिनों में उस कमाई हुई पूंजी का भोग करता है।
ध्यान करने का यही तो उद्देश्य है, इसीलिए तो यह प्रैक्टिकल प्रयास हो रहा है।
सामवेद में कहा गया है कि अनेकों जन्मों के सत्कर्मों के कारण ही मनुष्य का शरीर मिलता है। वैदिक परंपरा में माना गया है कि मनुष्य का जन्म चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मिलता है। मनुष्य के अलावा दूसरे सभी जन्मों में “भोग” ही प्रमुख रहता है। अच्छे कर्म केवल मनुष्य शरीर मिलने के बाद ही किए जा सकते हैं। वेदों में कहा गया है, “मनुर्भव” यानि मनुष्य बनें।
लेकिन यहां महत्वपूर्ण सन्देश है कि केवल मनुष्य शरीर पाने से हम मनुष्य नहीं हो जाते, इसके लिए अच्छे कर्म करने की जरूरत है। गोस्वामी तुलसीदास ने एक स्थान पर लिखा है कि मनुष्य जन्म की बड़ाई देवता, ऋषि-मुनि और संतजनों ने की है, इसलिए हमें इसकी कीमत समझनी चाहिए। मनुष्य का जन्म पाकर भी जो लोग केवल मौजमस्ती में जीवन गंवा देते हैं, उनका जन्म बेकार चला जाता है। इंसान और शेष जीवधारियों में चार बातें समान हैं। खाना-पीना, संतान उत्पन्न करना, जन्म और मृत्यु। केवल एक “विशेषता” की वजह से इंसान दूसरे जीवों से अलग है और वह है चिंतन-मनन की शक्ति। अगर किसी इंसान में मनन (सोचने-समझने और अच्छाई-बुराई में भेद करने की) की शक्ति नहीं है, तो वह मनुष्य, मनुष्य होते हुए भी जानवर जैसा है। हीरे जैसा अमूल्य मनुष्य-जीवन, बड़ी मुश्किल से हासिल की हुई कीमती वस्तु है, अतः इसकी हिफाजत भी बड़े ढंग से की जानी चाहिए। इसलिए इंसान के जन्म की तुलना हीरे जैसे रत्न से की गई है। तभी तो कहा गया है सोना आग में तपने के बाद ही कुंदन बनता है। 100 प्रतिशत सोने का ही दूसरा नाम कुंदन है।आभूषण ज्यादातर 22 कैरट सोने से बनते हैं जिसमें 91.7 सोना होता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह भी ज्ञान की भट्ठी में तपकर, परिष्कृत होकर, 100 प्रतिशत सोना अर्थात कुंदन बनने का प्रयास करे।
लेकिन क्या हम इस “जीवन दर्शन” (Philosophy of life) को जानने की कोशिश करते हैं? जानकर उसको अमल में लाते हैं? अगर नहीं, तो हममें और पशुओं में कोई अंतर नहीं है। इस जीवन दर्शन के कुछ सूत्र बहुत ही संक्षेप में निम्नलिखित दिए गए जिन्हें ध्यानपूर्वक समझने एवं अमल में लाने की आवश्यकता है :
1. अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक संग्रह )को समझें:
दुनिया में ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, भौतिकता, धर्म, समाज और शासन व्यवस्था के विभिन्न रूप दिखाई दे रहे हैं। यह सब मानव बुद्धि, विवेक और उसके कार्यों का फल है। वेदों में कहा गया है- दुनिया में जितनी भी भोग की चीजें हैं, उनका उपभोग (इस्तेमाल) करें, लेकिन उतना ही, जितने की हमें जरूरत है। जरूरत से अधिक पदार्थों को इकट्ठा करना पाप है, इसे ही पदार्थवाद और भोतिकवाद कहा गया है जो अधर्म है। जो रात-दिन जरूरत से अधिक धन, संपत्ति और नाना प्रकार की चीजों को इकट्ठा करने में लगे रहते हैं, वे सृष्टि और परमात्मा की बनाई व्यवस्था को भंग करते हैं। ऐसे ही लोग सामाजिक असंतुलन पैदा करने के दोषी हैं।
2.मानव जन्म की सार्थकता:
वेदों में कहा गया है ‘भोगापवर्गार्थं दृश्यम्’, यानी दुनिया में जन्म लेने का मकसद भोग और अपवर्ग (यानी दूसरों के हित के लिए त्याग करना), दोनों है। इस संतुलन के लिए “धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष” के सिद्धांत को सामने रखा गया। संसार की प्रतिकूलताओं को अपनी योग्यता, पुरुषार्थ और वीरता से अनुकूल बनाकर न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए राह सुगम करना और उसे सुखद बनाना ही जीवन है। जो इस “जीवनदर्शन” को समझ लेता है, उसका जन्म लेना सार्थक हो जाता है। वेद में कहा गया है: ‘हे जीवन से परिपूर्ण प्राणी! तू मरे नहीं।’ अर्थात्, मौत पर जीत हासिल करके तू अपनी इंसानी वीरता और संकल्प को प्रदर्शित कर। जिसने यह अजूबा किया, वह हमेशा के लिए अमर हो गया। सामवेद में कहा गया है: मनुष्य परमात्मा का “ध्यान” करते हुए अच्छी बुद्धि हासिल करे। ईश्वर का चिंतन करते समय यह चिन्तन भी करे कि यह जन्म क्यों मिला ? किसके लिए मिला ? जन्म का उद्देश्य क्या है? हमारी मंजिल हमारी क्या है? साथ ही, अपनी कमियों पर गौर करते हुए उसे दूर करने की कोशिश करे। अच्छाइयों को कायम रखे। दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा हम दूसरे से चाहते हैं। तभी मानव जन्म लेना सफल हो सकता है।
“बड़े भाग्य से यह मानव शरीर मिला है, इसलिए इसकी श्रेष्ठता साबित करें।”
कल वाली कक्षा में इसके आगे का ज्ञानर्जन करेंगें।
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आज 10 युगसैनिक एवं 432 टोटल कमैंट्स ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला की शोभा बढ़ा रहे हैं, सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्।