16 सितम्बर 2024 सोमवार का ज्ञानप्रसाद–स्रोत- अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में तीसरा पार्ट प्रस्तुत है, लेखक ने इसे भी यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके।
क्रिया और विचार, मनुष्य और ईश्वर, आत्मा और परमात्मा,शरीर और मन आदि Combinations से हम इस अद्भुत प्रैक्टिकल लेख श्रृंखला को समझने का प्रयास कर रहे हैं। आज विचारणा और कर्मकांड के स्टैप्स के समन्वय को समझने के साथ-साथ “मनुष्य का अस्तित्व” समझने का प्रयास है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की बहुत ही संक्षिप्त एवं सरल जानकारी दी गयी है।
हम अक्सर कहते आए हैं कि परमपूज्य गुरुदेव हमारी उँगलियों को पकड़ कर लिखवा रहे हैं। इसका प्रतक्ष्य प्रमाण आज, एक बार फिर मिलता रहा क्योंकि आज के लेख में हमारे द्वारा लिखे गए सभी विचार (यहाँ तक कि आज प्रज्ञा गीत भी), गुरुदेव गूगल सर्च से ऐसे निकाल कर देते रहे जैसे कि कह रहे हों “ बेटे, यहाँ पर यह जानकारी उचित रहेगी।” प्रज्ञा गीत में आदरणीय ओंकार भाई साहिब की ऊर्जावान वाणी एवं भाव-भंगिमाएं लेख की थ्योरी को समझने और प्रैक्टिकल को करने में सहायक होंगीं, ऐसा हमारा अटल विश्वास है।
अब चलते हैं आज की गुरुकक्षा में।
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मनुष्य का वास्तविक अस्तित्व वोह नहीं है, जो दिख रहा है। वास्तविक अस्तित्व वोह है जिसके द्वारा भजन किया जाना चाहिए और वह है “मनुष्य का चिंतन।” चिंतन ही चेतना का स्रोत है और चिंतन को कहाँ लगाना चाहिए? सीधी-सी बात है स्थिर होकर ध्यान में यानि Concentrate होकर ध्यान लगाने के उद्देश्य में। ध्यान तो हमारा चावल, धूप बत्ती की ओर है, इस बात का तो चिंतन ही नहीं है कि यह क्यों हो रहा है। हम analyse तो कर ही नहीं रहे कि सब क्यों कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में चिंतन कैसे होगा? जीभ कहीं भी लग रही हो, वस्तुएँ कही भी रखी हों, माला कहीं भी चल रही हो, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि चिंतन कहाँ लग रहा है? चिंतन को तो मनुष्य टिका नहीं पा रहा है,न जाने किस अंधी दौड़ में भागता फिर रहा है। ऐसी स्थिति में भजन कहाँ हो रहा है? ध्यान का मूल उद्देश्य चिंतन को स्थिर करके टिकाने का है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक परिश्रमी विद्यार्थी एक बार स्थिर होकर बैठ गया तो उठता तभी है जब कुछ सार्थक प्राप्त कर लेता है। उसे पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और क्यों कर रहा हूं।
इस लेख श्रृंखला का भी यही तो उद्देश्य है:ध्यान क्यों करें, कैसे करें?
अक्सर देखा गया है कि माता पिता नन्ने मुन्नों को, स्थिर होकर, बैठकर होमवर्क करने को तो कह सकते हैं, उन्हें शिक्षाप्रद कहानियां सुनाकर प्रेरित कर सकते हैं, पुरस्कार देकर प्रोत्साहित भी कर सकते है, इस प्रक्रिया में बच्चों को लेकर न जाने कौन-कौन से हवाई किले भी बना लेते हैं लेकिन जब बात उनके स्वयं पर आती है तो “क्या करें मन ही नहीं लगता,बहुत भटकन है, आगे-पीछे चिंता और दुःख ने घेर रखा है” आदि बहाने बनाने में ज़रा भी देर नहीं लगाते।
अगर बच्चे को उद्देश्य बता कर, प्रेरित करके, प्रोत्साहित करके स्थिर किया जा सकता है तो स्वयं के लिए समस्या क्यों है ?
ऐसा इसलिए है कि मनुष्य का इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं है कि जो क्रियाएँ कराई जा रही हैं उनके करने से क्या लाभ होगा। इन क्रियाओं के पीछे छिपे हुए “ज्ञान की शक्ति” क्या है। मनुष्य का ध्यान तो शोर शराबे में है, DJ में है, Event management में है,चमकदार रंग-बिरंगें कपड़ों में है ,ड्रेस कोड में है; यह लिस्ट इतनी लम्बी है कि लिखते लिखते थक जायेंगें। ऐसे पार्टीनुमा वातावरण में कर्मकांडों के चिंतन का गौण (मामूली) होना स्वाभाविक है। ऐसी धारणा से किए गए भजन-चिंतन-ध्यान के परिणाम भी मामूली ही होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
ध्यान में स्थिर होने के लिए क्रियाओं से भी अधिक महत्वपूर्ण भाग,अपने अस्तित्व (Existence) से परिचित होने का है, स्वयं को पहचानने का है,अपनी चेतना को जानने का है। मनुष्य के अस्तित्व का विषय बहुत ही विस्तृत है, आइए इसे संक्षेप में जानने का प्रयास करें :
मानवीय अस्तित्व, को तीन भागों में बाँटा जा सकता है: (1) स्थूल (Physical body), (2) सूक्ष्म (Subtle body) और (3) कारण( Causal body)। अध्यात्म शास्त्र में इन्हें ही मनुष्य के “तीन शरीर” कहा गया है। केले के तने की तरह यां प्याज की तरह परत-दर-परत उधेड़ते जाने पर हमें रक्त-मांस निर्मित स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर और उसके भी भीतर कारण शरीर की जानकारी मिलती है। कहा जा सकता है कि शरीर के ऊपर क्रमशः बनियान, कुर्ता, जैकेट पहन रखी गई हों।
सबसे पहली परत (स्थूल शरीर)जो हमें दिख रही है वह जैकेट है। यह परत माँ के पेट से प्रारम्भ होकर श्मशानघाट में समाप्त हो जाती है। इस लोक के समस्त क्रिया-कलापों का माध्यम स्थूल शरीर ही है। खाने, सोने, चलने, रोटी कमाने, शुभ-अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय-सुख भोगने आदि के प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं।
स्थूल शरीर के नीचे वाली दूसरी परत सूक्ष्म शरीर यानि कुरता है। चिन्तन-मनन, आकांक्षा, अभिरुचि आदि मानसिक गतिविधियों का केन्द्र व माध्यम सूक्ष्म शरीर ही है। इस शरीर का प्रधान कार्यस्थल “मस्तिष्क” ही है, यद्यपि सामान्यतः यह पूरे स्थूल शरीर में उसी तरह व्याप्त है, जैसे दूध में घी। जिस प्रकार दूध को मथने से मक्खन प्राप्त होता है उसी प्रकार मस्तिष्क को रगड़ने से चिंतन-मनन होता है जिससे शरीर की सारी क्रियाएं सम्पन्न होती हैं।
सूक्ष्म शरीर की परत के नीचे कारण शरीर (बनियान) का वास होता है जो आत्मा के अति समीप है। कारण शरीर ही “उच्चस्तरीय दिव्य भावनाओं (High level divine feelings)” का आधार है। दया, प्रेम, कर्त्तव्यनिष्ठा, संयम, करुणा, सेवा, धर्म, कोमल संवेदना से भरे उच्च भाव कारण शरीर में ही उठते रहते हैं।
गुरुदेव बता रहे हैं कि जब हम सुबह आत्मध्यान कराते हैं तो साथ-साथ निर्देश भी देते हैं। इसका क्या मतलब है? निर्देश से मतलब है कि जिस समय हम जो बात कहें, वैसे ही आपका विचार चलना चाहिए। जो हम कहें वैसी कल्पना कीजिए। हमने कहा, सप्तऋषियों की तपस्थली, आप ध्यान कीजिए कि सात ऋषि बैठे हुए हैं। बड़ा घना जंगल है और सातों ऋषि समाधि लगाए हुए बैठे हैं। यह पुनीत स्थान जहाँ उनके शरीर पेड़ों की सघन छाया में हैं। अगर आप इस तरह की कल्पना करते हैं तो आपका चंचल एवं अस्थिर मन स्थिर हो जाएगा। बेटे, ऐसा करने के बाद अगर आपका मन भाग जाए, तो हमसे कहना। हम जो बताते हैं उसमें आपको ध्यान (Concentrate) लगाना चाहिए, फिर देखिए कैसे मन भाग जाएगा। सबेरे हम आपको जो निर्देश देते हैं, उसके हिसाब से आप अपने चिंतन को और अपने विचार करने की श्रेणी को उसी पर स्थापित कीजिए, केंद्रित कीजिए। हमने आपसे कहा- “प्रातःकाल का स्वर्णिम सूर्योदय।” आप विचार कीजिए कि प्रातःकाल का लाल रँगा सूर्य, सबेरे उगता हुआ बड़ा वाला सूर्य, पूरब से निकला, थोड़ा निकला, अभी थोड़ा और बढ़ा, अभी और बढ़ा और पूरा सूर्य निकल आया। क्या मतलब है? बेटे, हमने आपसे कहा कि अपने मन को हमारी कही हुई बात पर लगा दें, फिर आपका मन उस काम पर लग जाएगा, तो भागने का सवाल ही नहीं है। यदि काम पर नहीं लगा, तब तो भागेगा ही।
इसलिए क्या करना चाहिए? प्रत्येक क्रिया के लिए जो कर्मकाँड बनाए गए हैं, वे श्रेष्ठ काम के लिए बनाए गए हैं। कर्मकाँड करते समय आपका ध्यान इस क्रिया पर जाए, जो बोलकर तो नहीं बताई गई है,लेकिन क्रिया के माध्यम से बता दी गई है।
“आचमन” से हमारी वाणी का परिष्कार होता है। कल जब आप आचमन करें तो यह ध्यान करें, यह विचार करें कि हमारी वाणी का संशोधन हो रहा है। हम अपनी वाणी की धुलाई कर रहे हैं,साबुन लगा रहे है। वाणी को पत्थर पर पीट रहे हैं। ठीक उसी तरह वाणी पर पानी डाल रहे हैं, जब बच्चा गंदा हो जाता है तो उसके ऊपर बाल्टी से पानी डालते हैं, उसे धोते हैं, नहलाते हैं,साफ करते हैं।
आप यह विचार कीजिए कि हमारी वाणी जो अभक्ष खाने की वजह से, अवाँछनीय वार्त्तालाप करने की वजह से गंदी हो गई है, इसे हम धो रहे हैं, साफ कर रहे हैं । आप कल्पना कीजिए कि अपनी जीभ को धोबी की तरह से हम घाट पर ले जाते है और पत्थर पर पीट-पीट कर धोते हैं। हमने आचमन कर लिया, उसके सहारे हम अपनी जीभ को दे पिटाई-दे पिटाई, दे डंडा-दे डंडा और उसका सारा कचूमर निकाल देते हैं । फिर देखिए कि वह गंदी रहेगी कि साफ होगी? अवश्य साफ होगी।
आचमन की भांति साधना में हो रही सभी स्टैप्स की क्रियाओं के साथ-साथ चिंतन दिया हुआ है। ऋषियों ने जितने कर्मकाँड बनाए हैं उनके साथ में चिंतन भी दिया है। चिंतन के साथ-साथ क्रिया को मिला दें, तो मन और क्रिया का समावेश हो जाएगा। जब “विचारणा और क्रिया” का समन्वय हो जायेगा तो समझो चमत्कार हो गया । विचारणा और क्रिया को मिला देने से जिस तरह हमारा शरीर और मन, दोनों एक बन जाते है, वैसे ही आपकी साधना जीवंत हो जाएगी।
प्रत्येक क्रिया के साथ हम पाँच उपासनाएँ बताते है। पाँच उपासनाओं का मोटा-मोटा स्वरूप हमने पत्रिकाओं में भी छाप दिया है और पिछले साल भी हमने “स्वर्ण जयंती साधना” सिखाई थी। गुरुजी! हम स्वर्ण जयंती साधना हर वर्ष करते हैं और भजन भी पैंतालीस मिनट करते हैं। भजन तो तू करता है बेटे , लेकिन तू कर्मकाँड के साथ-साथ क्रियाओं का भी चिंतन करता है कि नहीं। नहीं गुरुदेव मैं तो बस आँख बंद करके माला पूरी कर लेता हूँ। माला पूरी कर लेता है तो तेरे लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। तेरे लिए बहुत आशीर्वाद, लेकिन बेटा जब माला करता है, तो उसके साथ-साथ विचारों को भी लाता है कि नहीं? गुरुदेव,विचार तो भागते रहते हैं। तो बेटा,तेरी उपासना तो अधूरी है। तुझे उपासना का जो परिणाम मिलना चाहिए था, उपासना से जिस वातावरण का परिशोधन होना चाहिए था, उस वातावरण का परिशोधन तो नहीं हुआ न ? जिस उद्देश्य से हमने प्रेरणा दी थी, शक्ति दी थी और दीक्षा दी थी, शिक्षा दी थी, न हमारा उद्देश्य पूरा हुआ, न तेरा उद्देश्य पूरा हुआ और न ही भगवान का। तीनों में से किसी एक का भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। इसीलिए हमेशा मैं क्रिया में विचारणा का समावेश करने की शिक्षा देता रहा हूँ और देता ही रहूँगा।
इसके आगे कल वाले लेख में, जय गुरुदेव
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साप्ताहिक विशेषांक का अमृतपान करके 17 युगसैनिकों (साधकों) ने, 24 से अधिक कमैंट्स (आहुतियां) एवं 671 टोटल आहुतियां (कमैंट्स) प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला में कीर्तिमान स्थापित किया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्।