12 सितम्बर 2024 गुरुवार का ज्ञानप्रसाद–स्रोत- अखंड ज्योति नवंबर,दिसंबर 2002 एवं जनवरी, फरवरी 2003
“ध्यान क्यों करें, कैसे करें” विषय पर जून,1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में परम पूज्य गुरुदेव ने अपने बच्चों की सुविधा एवं ट्रेनिंग के लिए एक विस्तृत उद्बोधन दिया। यह उद्बोधन अखंड ज्योति नवंबर, दिसंबर 2002 के दो अंक और जनवरी, फरवरी 2003 के दो अंकों में प्रकाशित हुआ ।इन चार अंकों के विशाल कंटेंट (लगभग 17000 शब्द) को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में गुरुज्ञान को समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज गुरुकक्षा में दूसरा पार्ट प्रस्तुत है, लेखक ने इसे भी यथासंभव, यथाशक्ति प्रैक्टिकल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि इस ज्ञान का अमृतपान सार्थक हो सके।
चलते हैं आज की गुरुकक्षा में।
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काम में मन लगाइए:
गुरुदेव कहते हैं: बेटे,अपने जीवन के सभी क्रियाकलाप, चाहे वे बहिरंग जीवन के हों या अंतरंग जीवन के, मामूली कामों के लिए भी अगर मन नहीं लगाया तो वह बेढंगा हो जाएगा। अगर किसी काम में मन लगा दिया जाए, तो उसमें चमत्कार दिखाई पड़ेगा, जादू दिखाई पड़ेगा। मन लगाकर किए हुए काम और बिना मन लगाए किए हुए कामों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। स्पष्ट दिखाई देता है कि यह काम मन लगाकर किया गया है या नहीं। गुरुदेव टेप रिकॉर्डर की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि इस मशीन में दो तार हैं, एक निगेटिव और दूसरा पॉजिटिव। इन्हें ठंडे और गर्म तार भी कहते हैं। दोनों मिल जाते है तो करंट चालू हो जाता है और जब अलग कर देते हैं,तो दोनों तार बेकार हो जाते हैं, दोनों से कुछ भी काम नहीं लिया जा सकता।
शरीर और मन के विषय में भी यही तर्क दिया जा सकता है,दोनों का समन्वय न हो तो हमारे जो भी काम होंगें वोह बेसिलसिले और बेहूदे होंगे।
भजन के संबंध में भी यही बात है। बिना मन से किया हुआ भजन और मन से किए हुए भजन में जमीन-आसमान का फर्क होता है। बिना मन से किया हुआ भजन ऐसा है, जिसमें केवल जबान की नोंक की लपालपी और हाथों की उँगलियों की नोंक की मात्र क्रिया भर ही होती रहती है। चावल यहाँ रख दिया, नमस्कारं करोमि, जैसी क्रियाएँ, दीपक इधर का उधर किया, आरती उतार दी, यह कर दिया, वह कर दिया। हाथों की हेराफेरी, वस्तुओं की उलटा पलटी और जीभ की लपालपी, बस भजन हो गया। गुरुदेव पूछते हैं,
“बेटे, यह सब कुछ करने से हो गया भजन, हो गया अनुष्ठान, हो गई साधना? नहीं बेटे, कुछ नहीं हुआ। यह तो केवल “शारीरिक क्रिया” हुई है, केवल Physical exercise हुई। शरीर की क्रियाओं का जो फल मिलना चाहिए, आपको भी मिल जाएगा। इससे ज्यादा और कुछ भी फल नहीं मिल सकता।”
इसी सन्दर्भ में योग के बारे में कहा जा सकता है कि शरीर को तोड़-मरोड़ कर, भांति भांति के शरीरिक क्रियाएं (करतब) दिखाकर शरीरिक लाभ (Physical benefit) तो मिल सकता है लेकिन सही मायनों में योग के प्रभाव अनुभव करने के लिए “शरीर और मन” का समन्वय करना बहुत आवश्यक है। बचपन से पढ़ते आए हैं कि 2 और 2 का योग (जोड़,Sum) 4 होता है। मस्तिष्क प्रयोग करते-करते आधुनिक मानव इस स्थिति तक पँहुच चुका है कि स्कूल लेवल की तो बात ही छोड़ दें, मेन्टल मैथ की सहायता से हम कोई भी Calculation कंप्यूटर से तेज़ कर सकते हैं। यही है मन और शरीर के समन्वय के अविश्वसनीय,आश्चर्यजनक किन्तु सत्य परिणाम। वर्तमान प्रैक्टिकल कक्षाओं में इस समन्वय को सार्थक करने का प्रयास है।
कल वाली प्रैक्टिकल कक्षा में “क्रिया और विचार” के समन्वय पर संक्षिप्त सी बात हुई थी। गुरुदेव ने कहा था कि अगर “क्रिया और विचार” का समन्वय हो जाए तो “चमत्कार” हो जाएगा। Weaver पक्षी की बात हुई थी, इतने ध्यान (Concentration) और मन से घोंसला बुनता है कि बड़े-बड़े टेलर मास्टरों को भी पीछे छोड़ दे, इस समन्वय का ही परिणाम है कि उसे “पक्षियों के बुनकर इंजीनियर” की उपाधि से सम्मानित किया गया है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की ओर से उपाधियाँ तो हमें भी अनेकों मिल चुकी हैं लेकिन शैफ की दक्षता तो तभी सार्थक होती है जब भोजन ग्रहण करने वाले का शरीर और आत्मा (मन) दोनों तृप्त हो जाएँ और भोजन की प्रशंसा से स्वतः ही विज्ञापन भी हो जाए। परिवार वालों ने उपाधियाँ देकर हमें बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी है, हम इस चुनौती को सार्थक करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं, लिखते समय सदैव “The best” की superlative degree ही सामने दिख रही होती है।
क्रिया और विचार, शरीर और मन, मनुष्य और ईश्वर, आत्मा और परमात्मा का समन्वय ही “ध्यान” का परम उद्देश्य है।
शरीर तो प्रतक्ष्य दिख ही रहा है, वोह तो किसी तरह पूजास्थली में बैठ ही जाएगा, समस्या तो मन की है, उसे पकड़ कर, डाँट-फटकार कर,मज़बूत रस्सों से बांधने की आवश्यकता है।
हम सब जानते हैं कि जिस प्रकार सतयुग, त्रेता, द्वापर आदि युग हुए हैं, आज का युग “तकनीकी युग” है। अनेकों प्रगतिओं और प्राप्तियों को एक तरफ छोड़ दें तो Multi-tasking, आधुनिक युग का बहुत बड़ा कलंक (अभिशाप) है, जिसके अनुसार मनुष्य एक साथ कई कार्य करने की डींगें मारता है। वर्तमान सन्दर्भ में तो इस कलंक ने ऐसा स्थान ले लिया है कि एक हाथ में माला ली हुई है, मुँह से गायत्री मंत्र बोला जा रहा है, TV पर कोई रोचक सा सीरियल चल रहा है, फ़ोन पे मैसेज न केवल देखे जा रहे हैं बल्कि रिप्लाई भी किए जा रहे हैं, और न जाने क्या कुछ हो रहा है। यह है “आज की साधना” और तुलना की जाती है परमपूज्य गुरुदेव की साधना से।
वर्तमान प्रैक्टिकल कक्षाओं में इसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बाहिर निकलने का प्रयास होता रहेगा।
परम पूज्य गुरुदेव तो हमें “साधना से सिद्धि” (ऐसे स्तर की साधना जिससे कही हुई बात सिद्ध हो जाए) के लिए train करना चाहते हैं और हम हैं कि Multi-tasking की बात करते हैं। यह तो वही बात हो गयी की पिताजी बच्चे को कुछ समझाना चाहते हैं और बच्चा फ़ोन में busy है लेकिन कहे जा रहा है कि मैं सुन रहा हूँ, आप बोलते जाइए लेकिन वोह सुन नहीं रहा होता। ऐसी स्थिति में पिताजी भी यही कर कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि इसने सुनना तो है नहीं, इस पर अपनी एनर्जी क्यों waste करें। अगर मनुष्य भी भगवान् की बात ऐसे ही सुनेगा तो वोह भी पल्ला झाड़ लेते हैं।
हमारी आदरणीय सुमनलता बहिन जी ने “ध्यान लगाने” और “ध्यान देने” के बारे में बहुत ही बड़ी बात कही है एवं बेटी संजना ने योग की परिभाषा को निम्नलिखित शब्दों में वर्णन करके इस कक्षा को प्रैक्टिकल तो बनाया ही है, Multi-tasking के फितूर को भी नकारा है :
Yoga is the unification of mind and bodily actions -विचार और क्रिया का समन्वय
गुरुदेव कह रहे हैं कि बच्चो अगर साधना का चमत्कार देखने का मन हो तो आपको सबसे पहले अपने काम में “मन” लगाना पड़ेगा। कोई भी काम हो, जिसमें भजन भी शामिल है, मन लगाकर करना पड़ेगा। मन लगाने से क्या मतलब है? मन लगाने से मतलब यह है कि “मन भागना नहीं चाहिए और उपासना में लगना चाहिए।” मनुष्य की सबसे बड़ी शिकायत यही तो है। गुरुदेव कहते हैं कि हम आपको एक उपाय बताते हैं, अगर फिर मन भाग जाए तो आप हमसे कहना। गुरुदेव कहते हैं कि बेटे, मन को किसी काम में लगाया जाए। मन की प्रवृति चंचल है, यानि यह चलता ही रहता है,नन्हें बच्चे की भांति ऊपर-नीचे, इधर उधर भागना उसकी प्रवृति है।
जब मन को कोई काम नहीं होगा तो वह भागता ही जाएगा। जब मन के भागने की शिकायत की जाती है तो उसका एक ही सटीक उत्तर है: मन को किसी काम में नहीं लगाया, मन को काम में नहीं लगाया जाएगा तो वह भागेगा ही। घोड़े को आप काम में लगा दीजिए, ताँगे में लगा दीजिए, सवारी में चला दीजिए, कहीं भी लगा दीजिए तो घोड़ा काम में लगा रहेगा, घोड़े को आप खोल दीजिए, उसके गले में से रस्सी खोल दीजिए फिर देखिए घोड़ा भागेगा ही। फिर आप कहेंगे कि साहब हमारा घोड़ा भाग गया। बैल को आप खाली छोड़ दीजिए, वह भाग जाएगा।
बच्चे को कार्टून फिल्म लगा दीजिए और फिर देखिए उसकी साधना, फिर देखिए उसका योग, यह देखकर तो योगीराज भगवान् कृष्ण भी शर्मा जाएँ।
है न कितना सटीक और practicable उपाय एवं उदहारण। छोटे से, नटखट, नन्हें से, चंचल बच्चे ने मन को साधने का मार्ग ही बता दिया।
मनुष्य उपासना के समय भी “मन” को खाली छोड़ देता है यां कूड़े-करकट से जूझता रहता है।मनुष्य को चाहिए कि मन को ज़िम्मेदारी सौंपे, जब तक ज़िम्मेदारी नहीं सौंपता तब तक मन भागता ही रहेगा। उसकी इलेक्ट्रॉनिक संरचना ही ऐसे ढंग से की गई है कि उसको भागना चाहिए। भागना तो उसका स्वाभाविक गुण है।
ऐसी प्रवृति एवं इलेक्ट्रॉनिक संरचना क्यों है ?
अगर वह भागेगा नहीं तो आदमी या तो सिद्धपुरुष हो जाएगा, समाधि में चला जाएगा या फिर पागल हो जाएगा। दो में से एक काम हो जाएगा। मन को तो भागना ही चाहिए। भागना उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए उसका कोई कसूर नहीं है।भागना बंद तो नहीं हो सकता लेकिन उसे काम में लाना तो संभव हो ही सकता है। उपासना में शारीरिक क्रिया के साथ-साथ मन को भी लगाइए। क्रिया का प्रत्येक स्टैप गूढ़ शिक्षण से भरा हुआ है,उस पर गौर कीजिए, साथ ही यह भी गौर कीजिए कि यह सब किस काम केलिए किया जा रहा है, उसका क्या उद्देश्य है। अक्सर लोग उपासना की क्रियाओं को इसलिए करते हैं कि बस करनी हैं। कुछ लोगों का यह भी ख्याल है कि क्रियाओं को देखकर भगवान प्रसन्न होते हैं।ज़रा ध्यान से सोचिए आप दीप जलाते हैं, धूप जलाते हैं, इसलिए कि भगवान् प्रसन्न होते हैं ? क्या कह रहे हैं ? क्या बच्चों जैसी उलटी-पुलटी बातें कर रहे हो। तुम खेलते समय अपनी मम्मी को रिझा सकते हो कि हम यह घर बना रहे हैं और वह भी प्रसन्न होकर कहती है: बेटे, अच्छा है,बहुत अच्छा घर बनाया है।
जीभ की नोक से आप गायत्री मंत्र, ॐ भुवः स्वः- – – – तो बोलते हैं, 108 बार भी बोलते हैं, हो सकता है वरेण्यम का अर्थ भी जानते हों, धियो योनः का अर्थ भी जानते हों लेकिन क्या यह उच्चारण मन से निकल रहा है ? क्या ऐसा सच में मन से कहा जा रहा है कि हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की और प्रेरित करें ?
यह माँ और बालबुद्धि बालक जैसी स्थिति नहीं है, यह भगवान् और साधक के कनेक्शन की बात है, गर्म-ठंडे तार के कनेक्शन की बात है ,साधक के मन में, हृदय में उठने वाली भावनाओं की बात है, चमत्कार तभी होगा जब साधक की निर्मल भावनाएं भगवान् तक पँहुच जायेंगीं।
आज की कक्षा में यही प्रैक्टिकल करना है, कल की वीडियो कक्षा में ज्ञानरथ सम्बंधित गुरुदेव के निर्देश का पालन करने का सौभाग्य है, हमारे साथी इस निर्देश की अनेकों शार्ट वीडियोस देख चुके हैं।
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18 साधकों ने 628 आहुतियां प्रदान करके ज्ञान की इस दिव्य यज्ञशाला का सम्मान बढ़ाया है जिसके लिए सभी को बधाई एवं सामूहिक सहकारिता/सहयोग के लिए धन्यवाद्
जय गुरुदेव