5 सितम्बर 2024 का ज्ञानप्रसाद-स्रोत:अखंड ज्योति अगस्त-सितम्बर 1990 संयुक्त अंक
2 जून 1990 को परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद, 201 पृष्ठों वाला अखंड ज्योति का अगस्त-सितम्बर का एक संयुक्त अंक प्रकाशित हुआ। इस श्रद्धांजलि अंक में गुरुदेव से सम्बंधित मास्टरपीस जानकारी दे रहे अनेकों लेख शामिल हैं जिन पर हम पहले भी कुछ लेख प्रकाशित कर चुके हैं। आज का ज्ञानप्रसाद लेख उन्ही में से एक लेख जिसका शीर्षक “बुझ नहीं सकता कभी जो, वह ज्वलित अंगार हूँ मैं” पर आधारित है। इस लेख से प्रभावित होकर हमें कल एक शार्ट वीडियो भी प्रकाशित की है। शब्द सीमा बिल्कुल ही आज्ञा नहीं दे रही इसलिए सीधा ज्ञानप्रसाद लेख की ओर ही चलना होगा।
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लेख का शुभारम्भ निम्नलिखित दिव्य पंक्तियों से होता है :
सुधा बीज बोने से पहले ,कालकूट पीना होगा।पहन मौत का मुकुट, विश्व हित
मानव को जीना होगा।”
यह पंक्तियाँ जनवरी 1940 की “अखण्ड ज्योति” पत्रिका के प्रथम पृष्ठ को सुशोभित कर रही थीं। इन पंक्तियों को अपने मुख पृष्ठ पर देने वाले, स्वयं विश्वव्यापी दुष्प्रवृत्तियों का हलाहल पीकर मृतकों को भी जिंदा कर उठ खड़ा कर देने वाली अमृत संजीवनी का करोड़ों को रसास्वादन कराने वाले युगपुरुष पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य ने स्थूल काया की गतिविधियों को समेटते हुए गायत्री जयन्ती के दिन (2 जून 1990 ) ही अपनी चेतना की माँ गायत्री में समाहित कर अपने दृश्य जीवन पर पटाक्षेप कर दिया। योगिराज भगवान् श्रीकृष्ण का चित्र इस प्रथम अंक को और भी दिव्य बना रगा था।
गुरुदेव ने अपनी बहुमुखी लेखनी, बुद्धि सम्मत प्रतिपादनयुक्त वाणी, ऋषिप्रणीत कर्त्तृत्व तथा स्नेह वर्षा द्वारा आधी शताब्दी से अधिक समय तक अनगणित व्यक्तियों के हृदय पर राज किया। गुरुदेव के लिए “रसौ वै सः” जैसी उपमा देते हुए ह्रदय प्रसन्न हो जाता है जिसका अर्थ है कि वह रस का स्वरूप थे । जो इस रस को पा लेता है वही आनन्दमय बन जाता है। गुरुदेव की प्रत्येक सुन्दर रचना से आनन्द ही आनंद मिलता है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है।
परम पूज्य गुरुदेव अपनी स्थूल काया को छोड़ते हुए इतनी शीघ्र अपनी चेतना को महाचेतना से एकाकार कर लेंगे, इस तथ्य पर अब तक किसी को विश्वास नहीं होता, न ही इस बात का भी विश्वास होता है कि वह हमारे बीच नहीं हैं। ह्रदयपटल पर इसका तो एक ही उत्तर दिखता है:
क्या महाकाल के अग्रदूत महाप्राण व्यक्ति किसी शरीरधारी के रोके रुके हैं?
वे तो धरित्री के कल्याण के लिए ही इस ग्रह की यात्रा करने के लिए विशिष्ट समय पर आते हैं एवं अपनी इस अनवरत यात्रा में अनगणित लोगों को सखा-सहचर बनाकर, उनसे अपौरुषेय पुरुषार्थ संपन्न कराकर, सतयुगी संभावनाएँ साकार करते हुए आगे की ओर चल देते हैं।
“अवतार” शब्द का जिस प्रयोजन से प्रयोग होता है उससे भावार्थ निकलता है: “महाचेतना का अवतरण।”
आज से 113 वर्ष पूर्व जिस महाशक्ति ने, निष्कलंक प्रज्ञावतार के रूप में, अपनी दुर्बुद्धि से अपने ही महाविनाश में जुटी मानव जाति को सद्बुद्धि की ओर मोड़ देने का कार्य करने का संकल्प वाले व्यक्तित्व पर लेखनी उठाना एक प्रकार का दु:स्साहस है। हमारी लेखनी उस बहुमुखी विराट, प्राणवान महापुरुष के साथ समुचित न्याय तो कर नहीं पायेगी लेकिन उसी शक्ति ने यदि यह शक्ति, सम्बल व प्रेरणा दी है एवं लिखने का निर्देश दिया है तो हमारे जैसा “ज्ञान का फकीर” अपनी सॉरी शक्तियां समेट कर प्रयास तो कर ही सकता है। यदि यह प्रयास अनेकों व्यक्तियों में अध्यात्मपरायण, ब्रह्मवर्चस प्रधान जीवन जीने की उमंगें जगा दे, उन्हें देवमानव बन लोकहित में जीवन जीने की प्रेरणा देने का शुभारंभ कर दे तो उनके चरणों में चढ़ाई जा रही यह श्रद्धाँजलि कुछ अंशों में सार्थक मानी जा सकेगी।
अक्सर कहा जाता है कि जीवन जीने को तो अनेकों जीते हैं। नाम भी कमाते हैं लेकिन यश व कीर्ति उनकी ही अमर होती है जो पिछड़ों को बढ़ाने, गिरों को उठाने, पीड़ितों का कष्ट मिटाने के लिए तिल-तिल कर अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं, जीवनयज्ञ एवं समाजयज्ञ के माध्यम से विश्व वसुधा के लिए इतना कुछ कर जाते हैं जिसे कभी भी भुलाया न जा सकें। स्वयं को ऊंचा उठाना, आत्मबल विकसित कर स्वयं के लिए मुक्ति का पथ प्रशस्त करना तो सरल है लेकिन “विश्व मानवता” के लिए उस द्वार को खोल देना अत्यन्त कठिन हैं। ऐसे व्यक्ति न तो समाधि की इच्छा करते हैं, न स्वर्ग की, न मोक्ष की अभिलाषा रखते हैं । वे तो महात्मा बुद्ध की तरह यही उद्घोष करते रहते हैं कि जब तक एक भी व्यक्ति इस वसुधा पर बंधनों से जकड़ा है, मैं अपनी मुक्ति नहीं चाहूँगा। ऐसे देवमानवों को ही पैगम्बर, देवदूत, अवतार की संज्ञा दी जाती है एवं वे कई सहस्राब्दियों (1000 शताब्दियाँ ) में विरले, कभी एक बार जन्म लेते हैं और स्वयं को व युग को धन्य बना देते हैं।
“आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ (छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा, मैं ही हूँ ) जीवन जीने वाले ये महापुरुष दिखने में तो साधारण व्यक्तियों के रूप में ही होते हैं लेकिन उनके जीवन का हर क्षण विश्व मानव के उत्थान के लिए ही समर्पित होता है, इसीलिए वे हर पल का सदुपयोग करते हुए “काल” को भी बाँध कर स्वयं “महाकाल” रूप धारण कर युगसृजन के श्रेयाधिकारी बनते हैं व अपने साथ चलने वालों को निहाल कर जाते है।
ऐसे युगपुरुष हैं हमारे गुरुदेव।
19वीं शताब्दी के अंतिम पाँच दशकों एवं 20वीं शताब्दी के आरम्भ के कुछ दशकों का इतिहास देखें तो जानकारी मिलती है कि विश्वभर में व्यापक परिवर्तन लाने वाले व्यक्ति इसी अवधि में जन्मे हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, योगीराज अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, भगिनी निवेदिता, महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन, संत विनोबा भावे, विंस्टन चर्चिल, विश्व शांति के प्रतिष्ठाता रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चटर्जी, चिकित्सा विज्ञान में नई क्राँति लाने वाले एलेक्जेंडर फ्लेमिंग, लौह पुरुष सरदार पटेल, दो भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस एवं सी.वी. रमन, स्वतंत्रता सैनानी चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, अमर शहीद सुभाष चन्द्र बोस, विज्ञान के क्षेत्र में उड़ान द्वारा नई क्राँति लाने वाले Wright brothers सभी इसी अवधि में जन्मे, यही उन सबका का कार्य काल रहा।
यह सूची तो अत्यन्त संक्षिप्त है लेकिन एक महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट सार्थक करती है कि यह महाकाल की नियत रीति-नीति ही होगी जिसके अंतर्गत इतने अधिक, एक साथ, चेतना सम्पन्न व्यक्ति, एक ही शताब्दी में किस प्रकार अलग-अलग स्थानों पर अवतरित होते हैं।
यही है नियति, यही है परमपिता का विधान ! लेकिन जब तुच्छ सा मानव ही इस सृष्टि का मालिक बन बैठता है तो हँसे यां रोएं, कुछ भी कहना कठिन है।
यहाँ इस प्रसंग को लाना इसलिए आवश्यक समझा गया कि 1886 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के ब्रह्मलीन होने के 25 वर्ष बाद 1911 में आगरा जनपद के आँँवलखेड़ा गाँव में एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में एक युगपुरुष का जन्म हुआ। इन युगपुरुष का बाल्यकाल अति साधारण रहा किन्तु अपनी बहुमुखी क्रियापद्धति, प्राप्त सुसंस्कारिता,अदृश्य सत्ता के मार्गदर्शन एवं विकसित आत्मबल के सहारे 1940 तक लाखों व्यक्तियों के मन मस्तिष्क पर छा गये। श्रीराम नाम के यह युगपुरुष एक सद्गृहस्थ के रूप में तो एक साधारण जीवन जीते चले गए लेकिन बाद में 1958 में मथुरा में एक अलौकिक विराट स्तर का सहस्रकुंडीय महायज्ञ आयोजित कर एक विशाल संगठन के सिरमौर बन गए ।
परम पूज्य गुरुदेव की महायात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।
धर्म-तंत्र के विस्तृत बिखरे ढाँचे को सुव्यवस्थित कर उसे लोकमानस के परिष्कार के लिए नियोजित कर देने के पुरुषार्थ को एक योद्धा ही मूर्त रूप दे सकता था। गुरुदेव ने समस्त प्रतिकूलताओं के बीच अपनी लेखनी, वाणी व ममत्व की त्रिवेणी बहाते हुए सारे कचरे को, दुष्प्रवृत्तियों के समुच्चय को महासागर में बहाते हुए देवमानवों का एक समर्पित समुदाय गठित किया। “गायत्री परिवार’ नामक इस विशाल समूह ने ही “युग निर्माण योजना” को जन्म दिया, युगनिर्माण यानि नए युग का निर्माण। गुरुदेव ने इस परिवार की महत्वपूर्ण स्थापना की एवं वही इस विशाल परिवार के अभिभावक, कुलपिता, संस्थापक-संरक्षक एवं सब कुछ हैं। विश्व भर से अगणित व्यक्ति अपने समय, ज्ञान-उपार्जन विभूतियों की श्रद्धाँजलियाँ उनके चरणों में चढ़ाते हुए उनके अंग-अवयव, सखा-सहचर बनते चले गए। इन पंक्तियों का लेखक एवं पढ़ रहे सभी पाठक ऐसे ही अनगनित व्यक्तिओं के समूह का एक बहुत ही छोटा सा भाग हैं।
माँ गायत्री ने गुरुदेव को उनकी चौबीस वर्ष की 24 लाख की महापुरश्चरण साधना के समापन की पूर्णाहूति पर निश्छल प्यार, निष्काम समर्पण का प्रसाद प्रदान किया।
जब उस पुण्यतोया भागीरथी में विराट गायत्री परिवार का प्रवाह समाहित हुआ तो स्वतः ही एक पवित्र ब्रह्मसरोवर में बदलते हुए महासागर बनता चला गया। संगठन तो हर प्रकार के होते हैं; राजनीतिक,सामाजिक, जातीय एवं शोषकों के भी लेकिन धर्म की रक्षा, संस्थापना संघशक्ति के जागरण से किस प्रकार हो सकती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गुरुदेव ने दिया जिन्होंने केंद्रीय प्रवाह से गोमुख-गंगोत्री से जुड़ने के लिए जनसामान्य के समक्ष एक ही शर्त रखी और वह शर्त थी :
स्वयं पर नियंत्रण, सादगी भरा जीवन तथा लोक मंगल के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपनी आजीविका एवं समय सम्पदा का एक अंश समर्पित करना जो उनके विचारों से जुड़ा वह बदलता ही चला गया। स्वयं गुरुदेव परोक्ष रूप से उसकी चेतना का मार्गदर्शन करने लगे एवं उसने समर्पण के बदले में अपने जीवन में दिव्य अनुभूतियों का रसास्वादन किया।
पूरे गायत्री परिवार के लाखों सदस्यों के प्रथम नाम से लेकर विस्तार से पारिवारिक जानकारी होना तथा मिलने पर तुरन्त याद कर सारी चर्चा करके अपना स्नेह उड़ेल देना, एक चमत्कारी व्यक्तित्व-सम्पन्न महापुरुष के ही वश का था। गुरुदेव का हँसता-मुसकराता, खिला हुआ चेहरा बरबस हर किसी को उनका अपना अन्तरंग बना लेता था।
संभवतः यही कारण है कि बहुमुखी जीवन जीने वाले इस युगपुरुष ने विरासत में सबसे बहुमूल्य निधि अपने प्रति, अपने कार्यों के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की मणि मुक्तकों में पिरोई माला के रूप में छोड़ी है जो मात्र महाकाल के गले का ही श्रृंगार बनने योग्य है जिसका मुकाबला करोड़ों-अरबों की धनराशि से नहीं किया जा सकता जो एक अति बहुमूल्य थाती है जिसे वंदनीया माता जी के माध्यम से वैसा ही स्नेह-दुलार मिलते रहने का आश्वासन वे दे गये हैं।
पूज्य गुरुदेव के 80 वर्ष (1911-1990) के जीवन के प्रत्येक पल का यदि लेखा-जोखा लिया जाय तो ग्रंथों का एक विशाल पर्वत खड़ा किया जा सकता है। लेखनी व कागज़ उनके व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व को अपनी सीमा में बाँध नहीं सकते क्योंकि ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी युगपुरुष को, जिसे निष्कलंक प्रज्ञावतार की गिनती में ही गिना जा सकता है कोई साधारण व्यक्ति लिपिबद्ध नहीं कर सकता।
अखंड ज्योति के श्रद्धांंजलि ग्रन्थ स्मारक स्वरूप में यह प्रयास किया गया है कि पूज्य गुरुदेव के जीवन के हर पक्ष की झाँकी, जन-जन को जो उनसे उनके जीवनकाल में जुड़े अथवा विचारों के मनन के माध्यम से गुरुदेव का परिचय पा सकें एवं उन सभी को परिलक्षित हों जिनमें प्रसुप्त सुसंस्कारिता के बीजाँकुर विद्यमान हैं एवं जिनकी भविष्य में उस विराट नवयुग अभियान में जुड़ने की संभावना है।
यदि इस प्रयास, में कुछ सफलता मिल सकी जिसमें कोई सन्देह नहीं है, तो यही गुरुसत्ता के प्रति सच्ची श्रद्धाँजलि होगी। हम सभी को अपने कर्तव्य का पालन करना होगा।
समापन, जय गुरुदेव
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आज की संकल्प सूची 499 टोटल कमैंट्स और 11 संकल्पधारी कमैंट्स से सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्। इन उत्साहपूर्ण Numbers के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद्।