4 सितम्बर 2024 का ज्ञानप्रसाद – स्रोत: अखंड ज्योति दिसंबर 1999
आज प्रातः आँख खुलते ही आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी का कमेंट मिला तो सारे शरीर में एक इलेक्ट्रिक करंट सी दौड़ गयी, इस कमेंट को यूट्यूब पर शेयर करने में तनिक भी विलम्ब न कर पाए क्योंकि यह इनाम हमारे साथिओं के सामूहिक प्रयास के कारण ही तो मिला है। आदरणीय बड़े भाई डॉ शर्मा साहिब का एवं सभी साथिओं का बहुत बहुत धन्यवाद् करते हैं। डॉ साहिब के कमेंट से प्रेरित होकर हमने कल वाले लेख का शीर्षक निम्नलिखित होना ज़्यादा उचित समझा :
“गुरुदेव का दादागुरु के प्रति समर्पण, उन्हीं के शब्दों में”
हमारे साथी जानते हैं कि जब तक कोई निश्चित लेख शृंखला का शुभारम्भ नहीं होता, हम ऐसे ही एक अंक वाले लेख लिखने का साहस कर रहे हैं। अभी भी कितने ही ऐसे ज्ञानामृत लेख हमारी Saved list की शोभा बढ़ा रहे हैं। लेकिन विश्वास कीजिये सभी लेख बहुत ही रोचक, ज्ञानवर्धक एवं साक्षात् मार्गदर्शक का कार्य कर रहे हैं।
अखंड ज्योति मात्र कागज़ों का पुलिंदा न होकर, एकदम पारस है जिसने न जाने कितनों का जीवन बदल दिया है। आज का ज्ञानप्रसाद लेख, इस दिव्य पत्रिका के प्रति ऐसे ही विचारों की एक्सटेंशन है।
लेख में व्यक्त किए गए विचार दिसंबर 1999 की अखंड ज्योति में प्रकाशित “अपनों से अपनी बात” सेक्शन पर आधारित हैं। हमारा विश्वास है कि हमें इसके अमृतपान से अवश्य ही अत्यंत लाभ होने वाला है।
तो चलते हैं गुरुकक्षा की ओर, गुरुचरणों में समर्पित होकर जीवनरुपी अमृत की कुछ जन्मघूंटी बूंदों के लिए।
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ऐसा माना गया है कि कितना ही कठोर तप करके, कितनी ही महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की जाएँ, लेकिन उनकी उपयोगिता तभी सार्थक समझी जाती है, जब उसका लाभ व्यक्तिगत स्तर पर न होकर, सामूहिक स्तर पर अधिक से अधिक लोगों के लिए हितकारी हो सके।
समुद्र मन्थन से अमृत कलश तो निकला लेकिन वह देवताओं की निजी धरोहर बनकर रह गया। निकटवर्ती परिवारों ने तो लाभ उठा लिया, लेकिन अन्य लोकवासी, विशाल जनसमुदाय उसका उपयोग तो क्या करते,दर्शन तक न कर पाए । कितना अच्छा होता यदि वह अमृत सर्वसाधारण को मिल सका होता, तो वह भी देवताओं जैसी सुविधा प्राप्त करते और उसी स्तर का सुख-शाँति भरा जीवन जीते। जितना दोष देवताओं की संकीर्णता (Narrow mindedness) को दिया जा सकता है,उतना ही “वितरण प्रणाली” को भी दिया जा सकता है जिसके कारण अस्त व्यस्तता होती है। यह पौराणिक आख्यान कितना सही है, यह बात अलग है। चर्चा उस वृत्ति की चल रही है, जिसमें बहुमूल्य उपलब्धियाँ सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध नहीं हो पाती।
एक ओर अमृतकलश, दूसरी ओर भाप का समूह, जिसे “मेघमाला (बादलों का समूह)” नाम से संबोधित किया जा सकता है। बादलों के समूह का अपना कोई अस्तित्व नहीं, फिर भी उसकी वितरण प्रवृत्ति इस धरातल के असंख्य प्राणियों, वृक्ष-वनस्पतियों, वनौषधियों का जीवन प्राण बनकर रहती हैं। बादलों का अस्तित्व क्षणिक होता है, स्वल्प-सा उनका जीवन होता है,वर्षा होते ही अपना अस्तित्व खो बैठते हैं, लेकिन फिर भी जल सिंचन के लिए उनकी अनुकंपा प्राप्त करने के लिए हम सब आकाश की ओर टकटकी लगाए रहते हैं। अमृत कलश की निजी विशिष्टता कितनी ही क्यों न हो, वह सर्वसाधारण के काम नहीं आ सकता। महत्व तो अमृत का है, न कि कलश का। इसीलिए उसकी ललक मात्र पैदा होकर रह जाती है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें, तो बादलों की महिमा ऐसी है, जिनके अनुदानों के कारण समष्टि का एक-एक कण अपनी मौन कृतज्ञता व्यक्त करता दिखाई देता है।
प्रस्तुत ज्ञानप्रसाद लेख इसी संदर्भ में तैयार किया गया है। परम पूज्य गुरुदेव के करकमलों से रचित दिव्य पाठ्य सामग्री अखण्ड ज्योति पत्रिका के पृष्ठों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचती है। यदि बादलों जैसी प्रवृति न होती तो अमृत कलश की भांति रैपरों में बंद रखी रह गई होती। जिस प्रकार अनगणित लोग बादलों के बरसने से लाभान्वित होते हैं, अखंड ज्योति भी अनेकों दिलों को ठंडक प्रदान कर रही है।
अखण्ड ज्योति जो परमपूज्य गुरुदेव की प्राणचेतना की संवाहिका (Carrier) है, अनेकों अड़चनों के बावजूद विगत 9 दशकों से अनवरत प्रकाशित हो रही है। छपने-कटिंग व रैपर में बंद होने के बाद उसे संबद्ध व्यक्तियों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी “पोस्टमैन” रूपी हमारी अग्रणी श्रेणी के उन परिजनों की है, जो सतत् इसी पुरुषार्थ में लगे रहकर उसे विश्वभर में सम्बंधित व्यक्तियों तक पहुँचाते हैं। पत्र की प्रतीक्षा में कई लोग पोस्टमैन की राह देखते रहते हैं, जिसे देखते ही, घर की ओर आते देखकर प्रतीक्षारत हृदय की कली खिल जाती है। अखंड ज्योति लाने वाले पोस्टमैन एवं अखंड ज्योति को घर के एक सदस्य की तरह ही सम्मान दिया जाता है ।
‘अखण्ड ज्योति’ वह प्रचंड प्राण-प्रवाह है, जो जहाँ जाता है वहाँ शक्ति का संचार करता देखा जा सकता है। इसे मात्र छपे कागज़ों का पुलिंदा न मानकर, “शक्तिपुंज”( शक्ति का कोष) माना जाना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी की सूक्ष्म चेतना इन पृष्ठों में प्रवाहित होती देखी जा सकती है। अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में लिपटी प्राणवान ऊर्जा और उसके द्वारा बन पड़ने वाली क्रिया-प्रक्रिया साक्षात् अनेकों पाठकों ने प्रतक्ष्य देखी है। इसकी उपयोगिता एवं क्षमता की हर पारखी ने भूरि भूरि सराहना की है। इसे पारस की उपमा देते हुए परिजन कहते हैं कि जिस-जिस को इसने छुआ, उसके सभी दोष-विकार घुलते चले गए हैं और ऐसा व्यक्तित्व विकसित हुआ है, जिसे कायाकल्प की उपमा दी गयी है । यदि ऐसा न होता तो सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दोहरे मोर्चे पर जो लाखों शूरवीर लड़ रहे हैं, उनका कहीं कोई अता-पता भी न होता। उज्ज्वल भविष्य का विश्वास जो आज जन-जन के मनों में जगता दिख पड़ रहा है, उसका बीजांकुर भी कहीं दिखाई न देता। अखंड ज्योति की दिव्य ऊर्जा की गरिमा और क्षमता को हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सकता है। जन-जन को देवमानव के रूप में विकसित करने की भागीरथी ललक को इसी युगचेतना के रूप में प्रज्वलित देखा जा सकता है।
अखण्ड ज्योति मानवी चेतना के अंतराल में दृश्यमान होने वाला वह तत्व है, जिसे अध्यात्म की भाषा में “श्रद्धा” कहा गया है, जिसका जहाँ जितना उद्भव होता है, वहाँ उतना ही आदर्श के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। उसी के सहारे पुण्य-परमार्थ बन पड़ता है। अखंड ज्योति ही है जो उत्कृष्टता के प्रति समर्पित होती है और अगणित विघ्न-बाधाओं से जूझती-उलझती हुई अपने गंतव्य की ओर अनवरत भागे जा रही है ।
अखण्ड ज्योति,कभी भी खंडित न होने वाली, निरंतर जलने वाली ज्योति के रूप में दृश्यमान “अखण्ड दीपक” के कलेवर की प्रतीक है जिसकी स्थापना 1926 में एक अखण्ड यज्ञ के रूप में की गई थी।
1926 से ही यह अखंड दीप, युगतीर्थ शांतिकुंज में सतत् जल रहा है एवम जाज्वल्यमान रह कर दो वर्ष (2026) बाद शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है। परम पूज्य गुरुदेव ने जिस प्रयोजन से अखण्ड दीपक के समक्ष चौबीस लाख मंत्रों के चौबीस महापुरश्चरणों की श्रृंखला आरंभ की थी वह “विश्वमानव की वर्तमान चिंतन-चेतना” को उलटकर सीधा करना था । अखंड दीप रुपी ऊर्जाकेन्द्र को गुरुसत्ता ने अपने अंतःकरण की पिटारी में बंद न करके,12 वर्ष के अन्दर 1937-38 में,अखण्ड ज्योति पत्रिका के रूप में जन-जन के समक्ष प्रस्तुत कर दिया ।आजकल (2024) में इस पत्रिका का 87वां वर्ष चल रहा है। भली-भाँति समझा जा सकता है कि युगधर्म की महती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही अखण्ड ज्योति पत्रिका एक प्रतीक बनी, अनवरत जली एवं उसने समय की चुनौती को स्वीकार कर युगपरिवर्तन की आँधी को जन्म दिया।
अब तक गायत्री परिवार, प्रज्ञा-अभियान, युगांतरीय चेतना, युगनिर्माण योजना के रूप में जो भी कुछ कार्य विस्तार बन पड़ा है उसमें अखण्ड ज्योति में सन्निहित प्रेरणाओं को जितना श्रेय दिया जा सकता है, उससे 1000 गुना श्रेय उनको दिया जाना चाहिए, जो इस परिवार से जुड़े हैं और अपने श्रम सहयोग से अपने क्षेत्र में अपनी रुचि एवं सामर्थ्यानुसार नवसृजन के प्रयासों में लगें हैं।
अखण्ड ज्योति यदि मस्तिष्क है तो पाठक परिजनों ( हम सबके समेत) के रूप में फैला विशालकाय परिवार उसका कायकलेवर है ।
दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर टिका है। अखण्ड ज्योति के माध्यम से पूज्यवर की योजनाएँ प्रेरणाएँ, जन-जन तक पहुँचती हैं एवं पाठक-परिजनों के विशालकाय परिवार द्वारा संपन्न होती हैं।
जीवन प्रबंधन (Life management ) की संजीवनी विद्या की कम्पलीट शिक्षा आज इतनी आवश्यक है,जितनी पहले कभी नहीं थी। इस दिशा में कहीं कोई प्रयास सार्थक रूप में चलता दिखाई नहीं देता। सहायकों का अभाव, पूँजी की कमी, अन्याय सेवाकार्यों की व्यस्तता होने के कारण, लेखन के लिए स्वल्प समय बच पाने जैसे अवरोधों के होते हुए भी परमपूज्य गुरुदेव ने जिस अखण्ड ज्योति को निरंतर प्रज्वलित रखा, कभी बुझने नहीं दिया वह सतत् प्रकाशित हो प्रतिमास संजीवनी के रूप में परिजनों के पास पहुँचती हैं।
योजनाबद्ध सत्साहित्य का सृजन अखण्ड ज्योति के प्रकाशपुँज की एक जाज्वल्यमान किरण है। यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए कि इसका चमत्कारी प्रभाव युगों-युगों तक प्रकाश देता रहेगा। अखण्ड ज्योति का कलेवर छपे कागजों के छोटे पैकेट जैसा लग सकता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसके पृष्ठों पर सूत्र-संचालक का, युगऋषि का दिव्यप्राण आरम्भ से अंत तक घुला हुआ अनुभव किया जा सकता है। अगर यह दिव्य रचना, मात्र सफेद कागज को काला करने जैसी बात होती तो इतनी बड़ी युगसृजेताओं की सेवावाहिनी न खड़ी हो पाती और न ही इतने ऊँचे स्तर के, इतनी बड़ी संख्या में सहायक,सहयोगी,अनुयायी मिल पाते । देश-विदेश में बिखरे प्रज्ञामंडल, स्वाध्याय-मंडल, प्रज्ञासंस्थान,हरिद्वार और मथुरा की संस्थाएँ जो कार्य करती दिखती हैं, उनके पीछे इन्हीं सहयोगियों का, रीछ वानरों जैसा अंगद, हनुमान जैसा पराक्रम एवं त्याग कार्य करता देखा जा सकता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का समर्पित मंच भी इसी लिस्ट में शामिल है,जो अधिकतर ऑनलाइन प्रयासों से ही इतना लोकप्रिय हुआ जा रहा है। निश्चित ही यह अखण्ड ज्योति की प्राणचेतना का ही प्रभाव है जिसने हम सबको एक सूत्र में बांधकर, युगपरिवर्तन की प्रक्रिया में गतिशील बनाए रखा है।
एक शब्द में यही कहा जा सकता है कि यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाली ऋषिचेतना का समन्वित अथवा उसके प्रतिनिधि रूप में ऋषियुग्म की सत्ता का सूक्ष्म सूत्र-संचालन है।
गुरुदेव कहते हैं कि अगर सरल सा गणित प्रयोग किया जाए तो इतने विस्तार के बावजूद केवल भारत की जनसँख्या की अनुपात की दृष्टि से अखंड ज्योति अभी 1% पाठकों तक ही पंहुच पायी है, लक्ष्य तो युगपरिवर्तन है। इस स्थिति में केवल एक ही विकल्प है, हम बच्चे अपना कर्तव्य समझकर, समर्पित होकर संकल्प लें कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित ज्ञान को, विश्व भर के नवजात शिशुओं को ज्ञानामृत की जन्मघूंटी(संजीवनी घूंटी) की एक-एक बूँद अवश्य पिलाएंगें, इससे कम में काम बनने वाला नहीं है ।
समापन, जय गुरुदेव
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आज की संकल्प सूची 600 टोटल कमैंट्स और 16 संकल्पधारी कमैंट्स से सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्। इन उत्साहपूर्ण Numbers के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद्।