3 सितम्बर 2024 का ज्ञानप्रसाद- स्रोत अखण्ड ज्योति, जुलाई 2002, पृष्ठ 32-33
धरती में पड़े बीज तब तक अंकुरित नहीं होते जब तक उन्हें उचित वातावरण नहीं मिलता। जब गर्मी अपने पूरे यौवन में होती है तो कुछ ही समय के बाद वाष्पीकरण से वर्षा की ठंडी फुहारें धरती माँ को शीतलता प्रदान करती है। अंकुरण की इस प्रक्रिया की अगर गुरु-शिष्य से तुलना करें तो शायद अनुचित न हो। गुरुकृपा आध्यात्मिक जीवन के प्रत्येक रहस्य को खोलने वाली दिव्य शक्ति है। गुरुदेव की कृपा से सारे असम्भव कार्य सम्भव हो जाते हैं। शास्त्र भी यही कहते हैं एवं ऋषि वचनों से भी यही प्रमाणित होता है। अनुभवी साधक, सन्त, सिद्धगण, आध्यात्मिक विभूतियों से सम्पन्न महापुरुष सभी का यही मत है।
अखंड ज्योति पत्रिका के जुलाई 2002 वाले अंक में प्रकाशित लेख (जिस पर आज का ज्ञानप्रसाद लेख आधारित है) में कुछ ऐसी ही दिव्य चर्चा हो रही है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक साथी आज के लेख से उन बहुचर्चित प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने वाला है जो इस मंच पर बार-बार पूछे गए हैं जैसे कि गुरु कृपा कैसे होती है? गुरु का अनुदान कैसे प्राप्त होता ? गुरु का प्रिय बनने के लिए क्या करना पड़ता है?
3-4 शिष्यों की एक अद्भुत कक्षा में, गुरुदेव इन सभी प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं। ब्रह्मवर्चस रिसर्च सेंटर के लोगों को गुरुदेव ने मार्च 1987 को लेखन की शिक्षा देनी आरम्भ की। गुरुदेव बता रहे हैं कि शिक्षा देने का उद्देश्य तो है ही, यह तो मेल-मिलाप की कक्षा है, बच्चों को सुनने की कक्षा है।
आज का प्रज्ञा गीत गुरुदेव को अपना लेने का निवेदन कर रहा है।
तो आइए सीधा कक्षा की ओर ही रुख करते हैं।
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गुरु कृपा हो कैसे?
गुरुकृपा वाले अति महत्वपूर्ण प्रश्न को अन्तर्यामी गुरुदेव ने अनुभव कर लिया। अखबार पढ़ते हुए वह हल्के से मुस्कराए और फिर से अखबार के पन्नों में अपनी दृष्टि टिका दी। मार्च 1987 की नवरात्रि से गुरुदेव ने ब्रह्मवर्चस के लोगों को लेखन सिखाना शुरू किया था। सभी की बंटी हुई शिफ्टें थीं। एक ग्रुप में 3-4 लोग ही होते थे। प्रत्येक ग्रुप के लोगों को अपनी शिफ्ट में गुरुदेव के पास जाना होता था। हर एक ग्रुप की सप्ताह में दो शिफ्टें होती थी। सब लोग लाइब्रेरी में पढ़ते, उपयुक्त अंशों को खोजते और बाद में जैसा भी बन पाता उस ज्ञान को लेखबद्ध करते। इस तरह लिखे गए लेखों को गुरुदेव सुनते एवं सुधारते थे। उनके कमैंट्स बड़े ही ह्रदयस्पर्शी होते थे। गुरुदेव के साथ साप्ताहिक मीटिंगों में महत्व लेख या लेखन का नहीं था, महत्व तो अपने बच्चों को सुनना,बातचीत करना एवं विभिन्न विषयों पर उनके विचारों से परिचित होना था।
शायद यह वही संपर्क साधना होगी जिसकी चर्चा हम बार-बार ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार के मंच पर करते रहते हैं।
गुरुदेव लेखों से हटकर भी बहुत कुछ बताया करते थे। गुरुदेव के साथ बिताए गए यह क्षण बड़े ही अनुभूतिपूर्ण और मार्मिक होते थे। एक बार नहीं बल्कि अनेकों बार ऐसा हुआ कि बच्चों के मन में उठ रहे प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं को गुरुदेव ने न केवल जान लिया बल्कि समाधान भी सुझा दिए। ऐसा करते समय गुरुदेव अपने जीवन के कई संस्मरण भी सुना देते ।
आज भी उन्होंने हाथ में लिए समाचार पत्र को सोफे के पास रखी हुई छोटी टेबल पर रखा। सोफे से उठे और धीमे किन्तु दृढ़ कदमों से चलकर पास में पड़े हुए अपने तख्तनुमा पलंग पर आकर बैठ गए। उनकी आँखों में करुणाजन्य नमी एवं तप की प्रखरता के बड़े ही अद्भुत स्वरूप की झलक थी। होठों पर प्रायः उपस्थित रहने वाला मधुर हास्य था। उनके समूचे मुखमण्डल पर तेजस्विता और मधुरता रिफ्लेक्ट हो रही थी।
हमारा पूर्ण विश्वास है कि इस लेख को पढ़ते समय, पाठकों के मस्तिष्क में शांतिकुंज द्वारा शेयर होने वाला दैनिक गुरुदेव के कक्ष का दृश्य घूम गया होगा।
पलंग पर बैठते हुए,अपने सामने टाट पर बैठे हुए बच्चों से पूछा, “क्यों लड़कों, क्या सोच रहे हो? अचानक इस तरह प्रश्न पूछे जाने पर सभी शिष्य एकदम घबरा से गए। उन्हें कुछ सूझा ही नहीं कि वह क्या कहें । बस मन में आया कि गुरुदेव स्वयं ही बता दें, कि
गुरु कृपा कैसे होती है? यह अनुदान कैसे मिलता है? गुरु का प्रिय बनने के लिए क्या करना पड़ता है?
ये सारे प्रश्न बच्चों के हृदयपटल पर सहमे-ठिठके खड़े थे। सभी एक-साथ बाहर आना चाहते थे। सभी बच्चों को अपने प्रश्न के समाधान मिलने की चाह थी। कुछ देर ऐसे ही खुसपुसी होती रही, साहस नहीं हो रहा था कि कैसे पूछा जाए। इस स्थिति को भी गुरुदेव ने अनुभव कर लिया,उनके होठों पर हल्की मुस्कान आ गयी। वह कहने लगे,
“प्रकृति कभी किसी योग्य पात्र को वंचित नहीं रखती है।
जब भी धरती सूर्य के तप से गर्म होती है तो बरसात आ जाती है। जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है।
तप से पात्रता मिलती है और पात्रता से अनुदान मिलते हैं :
एक शिष्य ने साहस बटोरा, उसने गुरुदेव को प्रसन्न भाव से बोलते हुए देखा तो प्रश्न कर डाला, “गुरु कृपा के लिए क्या करना पड़ता है, पिताजी ?” गुरुदेव तपाक से बोले, “बेटे शिष्य बनना पड़ता है।अपने अन्दर शिष्यत्व पनप गया हो, तो गुरु स्वयं ही उसे ढूंढ़ते हुए आ जाता है। स्वयं न भी आए तो ऐसे शिष्य को गुरु अपने पास बुला लेते हैं। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द से इसी तरह मिले थे।चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को उसके घर के पास जाकर ढूंढ़ लिया था।
फिर धीरे से बोले:
“बेटा! मेरे गुरु भी तो मुझे ढूंढ़ते हुए, चलकर मेरे घर आए थे। इसके लिए मुझे बाहरी तौर पर कुछ भी नहीं करना पड़ा। बस इतना ही करता रहा कि जब से मैंने होश संभाला, अंतर्मन को भगवान और उनके आदर्शों की ओर लगाता गया। मन को इस बात के लिए पक्का किया कि संसार की वासनाओं, कामनाओं के पीछे नहीं भागना है। जिन्दगी भगवान के लिए जीनी है। भगवान सब के मन की बात जानते हैं। उन्होंने मेरे मन की बात भी जान ली और अपने प्रतिनिधि के रूप में गुरुदेव सर्वेश्वरानन्द जी को मेरे पास भेज दिया। उन्होंने आते ही मेरे ऊपर कृपा उड़ेल दी। तब से लेकर आज तक हर-रोज, हर-दिन उनकी कृपा की वर्षा थमने का नाम ही नहीं ले रही। मैं लेते-लेते भले ही थक जाऊँ लेकिन वे देते-देते नहीं थकते।
इसके लिए आपको क्या करना पड़ा?
पूछने वाले की भावनाओं में व्याकुल उत्सुकता थी। वह अन्तःकरण में शिष्यत्व को उपजाने वाले रहस्यमय ज्ञान को जान लेना चाहते थे । गुरुदेव भी आज करुणा के साकार रूप बनकर “शिष्यत्व का मर्म” बताने के लिए तैयार थे। उन्होंने पूछने वाले की ओर गम्भीर दृष्टि से देखा और कहने लगे:
मैंने गुरु को कभी भी भगवान से अलग नहीं समझा । मेरा गुरु ही मेरे लिए भगवान है। इस बात को मैंने केवल कहा और सोचा नहीं, बल्कि पल-पल, उम्र भर जिया है । अपने गुरु की कृपा, सामर्थ्य एवं प्रेम पर इस तरह से विश्वास किया जैसे कोई दुधमुँहा बच्चा अपनी माँ पर करता है। गुरु को ही अपना सब कुछ मान लिया। वही मेरे जीवन के आधार बन गए।
बेटा, मैंने एक बात और की, वह यह थी कि मैंने अपने गुरु से कभी भी कुछ नहीं माँगा। उनके चरणों पर स्वयं को लुटाकर स्वयं को धन्य माना। जिस दिन से मुझे मेरे मार्गदर्शक मिले, उस दिन से मैंने अपनी चिन्ता छोड़ दी। अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य सब कुछ उनके हाथों में सौंप कर निश्चिंत हो गया। मेरा कब क्या होगा,इसकी कभी चिन्ता नहीं की और न ही कभी इसके लिए परेशान हुआ। मन में सदा एक सरल विश्वास रहा:
मेरे गुरुदेव, जो कुछ भी मेरे लिए आवश्यक समझेंगे, वह स्वयं ही कर देंगे। मुझे अलग से कुछ करने और सोचने की भला क्या जरूरत है। यदि मन में कभी कोई चाहत आयी, तो वह यही थी कि मैं गुरुदेव की हर कसौटी पर खरा उतरूँ। उम्र भर उनका सच्चा शिष्य एवं सेवक बना रहूँ।
मेरी यही भावनाएँ गुरुकृपा के लिए चुम्बक बन गयी। गुरुकृपा के बादल चारों ओर से उमड़-घुमड़ कर आते रहे और मेरे ऊपर बरसते रहे। धीरे-धीरे मेरा हृदय, मेरा अन्तःकरण मेरे गुरुदेव का घर बन गया। यह कहते हुए गुरुदेव थोड़ा भावुक स्वर में बोले:
बेटा,अब तो स्थिति यह है कि मैं स्वयं में अपने को कहीं खोज ही नहीं पाता। मेरे गुरुदेव ही मेरे रोम-रोम, मन, प्राण, जीवन में समाए हैं। वही सब कुछ बन गए हैं। वही नियन्ता हैं, वही सूत्रधार हैं, वही संचालक हैं, जीवन में जो कुछ है, सो वही हैं।
शिष्यों ने देखा कि गुरुदेव के इन उद्गारों में प्रगाढ़ भावनाओं का उजाला था।एक अलौकिक चमक थी जो बहुत ही साफ अनुभव हो रही थी। कहते-कहते, उनका स्वर बदल गया और वेदना की कसक उभर आयी। वह गम्भीर होकर बोले:
“बेटा, मैं भी तुम लोगों के लिए बहुत कुछ करना चाहता हूँ लेकिन चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता क्योंकि तुम सबने अपने हृदय के द्वार-दरवाजे बन्द कर रखे हैं। मैं जिधर से भी घुसने की कोशिश करता हूं ,उधर ही “अहं” का पहरा नज़र आता है। हर तरफ क्षुद्रताएँ एवं संकीर्णताएँ रास्ता रोके खड़ी हैं। जब कभी सूक्ष्म रूप से तुम लोगों की बातें सुनता हूँ तो छोटेपन के सिवा कुछ नजर आता ही नहीं है। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी जिन्दगी में भी वैसे ही चमत्कार हों, जैसे मेरी जिन्दगी में हुए, तो फिर “शिष्य” बनो। इस तरह पास बैठना, मिलना भी कोई पास मिलना है। सच्चा मिलन तो वह होता है, जब शिष्य की अन्तर्चेतना अपने गुरु के अन्तर्चेतना से मिलती है। जब समर्पण, विसर्जन एवं विलय की अनुभूति होती है,तभी जीवन में पूर्णता आती है।
गुरुदेव के यह स्वर ही उनके शाश्वत प्राण हैं। अगर हम इन प्राणरूपी विचारों को कर्म- कौशल बनाकर, अपने जीवन में उतार पाएं तो ही समझा जायेगा कि हमने गुरुदेव को भक्तिपूर्ण रीति से अपना लिया है एवं उनकी अंतर्चेतना हमारी अंतर्चेतना में विलय हो गयी है।
गुरुकुल की आज की गुरुकक्षा तभी सार्थक होगी जब प्रत्येक शिष्य सच्चे ह्रदय से अपनेआप को गुरुचरणों में समर्पित कर देगा क्योंकि जब तक वोह स्वयं शुद्धभाव से गुरुदेव को नहीं समझेगा वोह दूसरों को क्या बताएगा।
इसी दिव्य सन्देश के साथ आज के ज्ञानप्रसाद का समापन होता है।
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इस शुक्रवार को हमने “जन्म दिवस की वीडियो” के प्रकाशन की योजना बनाई है। हमें विश्वास है कि जिस प्रकार यज्ञ पर आधारित, पूर्व प्रकाशित दोनों वीडियोस को लगभग ढाई-ढाई लाख लोग देख चुके हैं, यह भी लोकप्रिय होगी। जब भी किसी साथी का जन्म दिवस होगा, यह वीडियो एवं गुरुदेव का विस्तृत सन्देश प्रसाद के रूप में हमारे परिवार की और से प्रदान किया जायेगा।
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आज की संकल्प सूची 480 टोटल कमैंट्स और 11 संकल्पधारी कमैंट्स से सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्।