वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कभी सोचा है जीवन का उद्देश्य क्या है ?

आज का ज्ञानप्रसाद लेख लिखते समय हमें अपने बाल्यकाल के वोह अवस्मरणीय पल स्मरण हो आए जब अमावस की काली अँधेरी रात में घर के छत पर सोते समय तारों भरे आकाश को निहारा करते थे। आकाश में टिमटिमाते अनगनित सितारों  की तुलना हम अक्सर एक विशालकाय  थाल से करते थे जिसमें  ईश्वर ने हीरे,मोती,रत्न (हमारे अनुदान) परोस कर दिए हों। आज हम सब ईश्वर के इसी विस्तार के संदर्भ में मनुष्य जीवन का उद्देश्य समझने का प्रयास करेंगें। कृपया यह मत कहिये कि हमें तो पता है, कौन सी नई  बात है, अगर पता है तो फिर त्राहि-त्राहि काहे की ? 

आज का प्रज्ञागीत 1957 की पुरानी मूवी एक साल “ सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या हुआ”, हमारी दादी अम्मा को समर्पित है जिनके होंठों पर अक्सर यही  गीत बजता था।   

तो आइए गुरुचरणों में समर्पित हो जीवन का उद्देश्य समझें।

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प्रातः सूर्य के उदय होते ही जिन्दगी का एक नया दिन शुरू होता है और सूर्यास्त होने तक दिन समाप्त हो जाता है। इस तरह रोज एक दिन मनुष्य की आयु  से घट जाता है। जन्म लेते ही,आयु के घटने  का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। अनेक प्रकार के कार्यभार, क्रियाओं,पारिवारिक जिम्मेदारियों  में लगे रहने के कारण, तेज़ी से बीतते हुए समय का पता नहीं चलता। 

हर किसी मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर लगभग प्रतिदिन आते हैं जब जन्म,वृद्धावस्था, विपत्ति,रोग और मृत्यु के कारुणिक, विचार-प्रेरक दृश्य देखने को मिलते हैं लेकिन इस धरती का मानव जीवन की मस्ती में इतना मस्त है,कामना में इतना ग्रस्त है,इतना अविवेकी है कि वह सब कुछ देखते हुए  भी “विवेक और विचार की आँखों से अन्धा” ही बना हुआ है। मोह और साँसारिक प्रमाद  में लिप्त, आज का मनुष्य घड़ी भर एकान्त में बैठकर इतना भी नहीं सोचता कि जीवन की इस भागदौड़ का कोई अंत है भी कि नहीं। ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ वरदान “मनुष्य जन्म” प्राप्त होने का कोई उद्देश्य है भी कि नहीं। हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं और कहाँ जा रहे हैं? आदि अनेकों ऐसे प्रश्नों पर चिंतन-मनन करने की बात हो तो मनुष्य वयस्तता का बहाना बनाकर पल्ला झाड़ लेता है। जो मनुष्य जीवनभर 24 में से 20 घंटे सोता रहा, माता पिता की पैतृक संपत्ति पर भरण पोषण करता रहा, उससे भी  यह सुनना कि  “समय किसके पास है”,मूर्खता की प्रकाष्ठा कहना कतई अनुचित नहीं होगा।

प्रकृति-प्रवाह की अबूझ परम्परा में प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को, इन्द्रियों के भोगों को, पदार्थों के स्वामित्व को, धन, पुत्र तथा विविध कामनाओं को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर एक बहुमूल्य अवसर खो देता है। जब काल की घड़ी सिर पर आ खड़ी होती है तो विदा होते समय सिर पर पापों, दुष्कर्मों का पुलिंदा,भयंकर बोझ चढ़ा दिखाई देता है तो भारी पश्चाताप, घोर-संताप और आन्तरिक अशान्ति होती है। 

विशाल-वैभव, अपार धन-धान्य,पति-पत्नी,बेटा-बेटी कोई भी साथ नहीं देता, अगर कोई साथ जाता है तो वोह हैं मनुष्य के कर्म। यह सारा संसार, यहाँ की परिस्थितियाँ सब ज्यों की त्यों पीछे छूट जाती हैं, यहां तक कि अपना शरीर भी साथ नहीं देता। कुछ समय पहले संबोधित हो रहे पिता जी अब न केवल मृत शरीर से संबोधित होते हैं बल्कि उनसे डर लगना शुरू हो जाता है कहीं भूत बनकर हमें चिमट ही न जाएं, जल्दी से निपटारा,संस्कार कर दिया जाता है। अच्छे-बुरे संस्कारों का बोझ लादे हुए, मनुष्य का जीवन वाष्पिकृत(Evaporate) होकर इस संसार  से कुछ ही पलों में उठ जाता है।

मनुष्य द्वारा अपने “जीवन के उद्देश्य” को भूल जाने की स्थिति केवल अज्ञान के कारण ही  है। ज्ञान की जिज्ञासा से  हमारे अंदर अनेकों प्रश्न उठेंगे जैसे कि  

हमारा कौन है? 

हम क्या हैं? 

हमें क्या नहीं करना चाहिये? 

हमें क्या करना चाहिए?

ऐसे सारे प्रश्नों के उत्तर हमारे अंतःकरण में  मौजूद हैं  लेकिन  जीवन का कोई सही दृष्टिकोण न बना सकने के कारण वह सारी “ज्ञान-शक्ति” अस्त व्यस्त  और नाकाम  पड़ी हुई है। 

ईश्वर द्वारा प्रदान मनुष्य जीवन जैसे वरदान का प्रथम  पुरुषार्थ है कि जीवन लक्ष्य में लापरवाही  न होने देना। यह तभी संभव है जब कर्त्तव्यों का उचित ज्ञान हो। कर्त्तव्यों की विस्मृति (भूल जाने की स्थिति)  मनुष्य ने स्वयं ही पैदा की है। जब वह कुछ करना चाहता है तो उसे औरों की आवश्यकता का ध्यान नहीं होता बल्कि वह यह जानना चाहता है कि इसमें मेरा लाभ क्या है। अपने लाभ के साथ-साथ  औरों के लाभ की बात सोचे तो कर्त्तव्य की विस्मृति न हो। इस कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञान पर ही मनुष्य का उत्थान और पतन होता है। आज वृक्षारोपण की भागदौड़ लगी हुई है, पर्यावरण, ग्लोबल वार्मिंग जैसी भयंकर स्थितियाँ, स्वार्थपरायणता के कारण ही तो हुई हैं। हम तो वर्षों से रट लगाए हुए हैं -We have reached to a point of “No return.”

वर्तमान की सोशल लाइफ में कोई भी नीचे नहीं रहना चाहता। सभी ऊँची , बहुत ऊँची छलांग लगाने  की आकाँक्षा लिए  हैं चाहे उसके लिए कुछ भी (कुछ भी !) क्यों न करना पड़े।  भौतिकवाद की अंधी दौड़ में प्रत्येक मनुष्य अपने विवेक के  अनुसार इनफार्मेशन इक्क्ठी करता रहता है  और समय पड़ने पर उन्हें व्यक्त करके वाहवाही लूटता है। यह दौड़ केवल  भौतिकवाद तक ही सीमित न होकर आध्यात्मिकवाद में भी घुस चुकी है जिसके उदाहरण आये दिन देखने को मिल रहे हैं।  

ऊँचे उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है लेकिन यदि किसी से यह पूछा जाय कि क्या उसने इस गम्भीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या उसने कभी यह भी सोचा है कि इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिये क्या योजना बनाई है? तो अधिकाँश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई को Analyse  भी न कर सकेंगे, समझना/समझाना तो बहुत दूर की बात है। 

बात बिल्कुल सरल और सीधी  है। महानता मनुष्य के अन्दर छिपी हुई है और हर समय व्यक्त होने का रास्ता ढूँढ़ती रहती  है लेकिन  “साँसारिक कामनाओं” में ग्रस्त मनुष्य उस छिपी आत्म-प्रेरणा को भुला देना चाहता है, ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्मा, अपना सा मुँह लेकर, चुपचाप शरीर के भीतर सुस्त/सुप्त  पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है। मनुष्य जब आत्मा की आवाज़ सुन लेता है तो उसे महामानव और देवमानव बनते देर नहीं लगती। इस प्रक्रिया के अनेकों उदाहरण ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में ही प्रतक्ष्य देखे जा सकते हैं लेकिन शर्त केवल एक है-उसके लिए आत्मदृष्टि चाहिए।  

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य कितना ही बलवान हो जाय, बौद्धिक दृष्टि से वह कितना ही तर्कशील क्यों न हो जाए, सम्पति के  भले ही अम्भार लगे हों, लेकिन आत्म-सम्पदा के अभाव में वह मणि-हीन सर्प की तरह अर्द्ध-विकसित कहा जायगा। वैसे तो वैज्ञानिक नागमणि को काल्पनिक बताते हैं लेकिन हमारे पाठक जानते होंगें कि नागमणि में अलौकिक शक्तियां होती हैं, इसकी चमक के आगे हीरा भी फीका पड़ जाता है। 

आत्मबल के विषय पर हम कितना कुछ ही लिख चुके हैं और इसके सार्थक परिणाम इस ज्ञानरथ परिवार में भी देख चुके हैं लेकिन एक बार फिर कहते हैं कि आत्मबल की उपलब्धि का एक सुख, संसार के करोड़ों सुखों से भी बढ़कर होता है। आत्मिक सम्पदाओं वाले नेतृत्व करते हैं,जन मार्गदर्शन करते हैं। निर्धन-फकीर होते हुए  भी बड़े-बड़े महलों वाले उनके पैरों में गिरकर दया की भीख माँगते हैं। हमारे पाठक ऐसे अनेकों फकीर गुरुओं से परिचित होंगे लेकिन हमारे गुरुदेव से अनुदान प्राप्त करने वाले भी कोई कम नहीं हैं।

इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की महानता बाहरी नहीं आन्तरिक है। उसकी शक्ति गुणों के विकास में छिपी है। आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर ही मनुष्य की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। भौतिक सम्पदायें तुच्छ हैं,थोड़े समय में ही  महानता या बड़प्पन जताकर नष्ट हो जाती हैं।

मनुष्य जैसा दुर्लभ शरीर पाकर भी यदि उसका उद्देश्य नहीं जाना गया तो क्या मनुष्य का शरीर और क्या पशु का शरीर। जो मनुष्य इस जीवन में,आत्म-कल्याण की साधना नहीं कर लेता उसके लिये इस सुर-दुर्लभ मानव जीवन  का कुछ भी उपयोग नहीं  श्रीमद्भागवत में बताया है:

मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी जो पक्षियों की तरह अज्ञान के घेरे में कैद है, उसे जीवन लक्ष्य से निरस्त ही समझना चाहिये।”

अक्सर कहा गया है कि थोड़ा बाहर आकर देखिये, यह संसार कितना विस्तृत और विशाल है। रात्रि के खुले आसमान के नीचे खड़े होकर चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर तो देखिए, कितने ग्रह,नक्षत्र बिखरे पड़े हैं। इस संसार का कितना बड़ा फैलाव है ।

इन बातों पर विचार करने का समय तभी मिलेगा जब भोग विलास की वृत्ति से चित्त हटा कर इन शाश्वत विषयों की ओर भी दृष्टि जमाई जायेगी। हमारी राह में भौतिक कामनायें ही रोड़ा बनी खड़ी हैं। स्वार्थ ही है जो आत्म-विकास के मार्ग पर अड़ा खड़ा है। मनुष्य तो ईर्ष्या द्वेष, काम, क्रोध,भय, लोभों वाले भयानक वन में भटक गया है,यही कारण है कि वोह महानता की ओर अग्रसर हो ही नहीं पा रहा।

इस कठिन परिस्थिति में गुरुदेव की शिक्षा बता रही है कि हम उदार बनें, साहस पैदा करें और आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिये प्रयास करें,फिर देखें कि जिस महानता की, उपलब्धि के लिए हम निरन्तर लालायित रहते हैं, वह सच्चे स्वरूप में मिलती है कि नहीं। सत्य हमारे अन्दर छुपा है। उसे धर्म के द्वारा जागृत करना होगा। शक्ति मनुष्य के  भीतर सोई पड़ी है,उसे साधना से जगाना होगा, जीवन की सार्थकता का यही एक मात्र मार्ग है।

भय-रहित,शांत जीवन ही धर्म है, वही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। अपना कल्याण तृष्णा-रहित वासना-रहित एवं निष्काम होने में ही है। कामनायें मनुष्य को अनेकों बंधनों में बाँधती हैं। इसी से भूल होती है। इसी से अवनति होती है। इसी से मनुष्य सब तरह से दीन-हीन होकर कष्ट और क्लेश का, झंझटों भरा जीवन बिताता रहता है। सुख और शान्ति भोग विलास में नहीं, मनुष्य की सच्चरित्रता, ईमानदारी और पवित्रता में है। सद्गुणों में ही मनुष्य का वैभव छिपा हुआ है जिसे प्राप्त कर जीवन के सभी अभाव दूर हो जाते हैं।

जीवन-लक्ष्य के प्रति मनुष्य की दृढ़ता प्रबल होनी चाहिये। उसे विचार और विवेक के द्वारा सुदृढ़ बना कर अपने जीवन में गहराई तक ढाल देना पड़ेगा,तभी जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकने वाली सफलता प्राप्त की जा सकेगी। इस संसार और यहाँ की परिस्थितियों पर जितना अधिक विचार करोगे उतना ही विवेक बढ़ेगा, समझ आयेगी और आत्मकल्याण का मार्ग साफ दिखेगा। जब मनुष्य वस्तु स्थिति को समझ लेता है तो उसे मानने और अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन जीवन-लक्ष्य की दृढ़ता और आत्म-विश्लेषण (Self-analysis)  का विवेक इतना परिमार्जित (Refined) होना चाहिये कि साँसारिक बाधाओं का, भोगों के प्रलोभनों का उस पर प्रभाव न पड़ सके तभी स्थिरता-पूर्वक उस महानता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है जिसके लिये मनुष्य योनि में जीवात्मा का अवतार होता है।

आशा करते हैं आज का यह लेख आत्मा की कुल्हाड़ी से मन के विकारों को काटकर,हराकर हमें जीवन के ओलिंपिक में उच्च पदक दिलाने में  सफल होगा।

समापन, जय गुरुदेव 

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518  टोटल कमैंट्स और 15  संकल्पधारी कमैंट्स से आज की संकल्प सूची सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्।


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