31 अगस्त 2024
हमारी सबकी आदरणीय एवं सर्वप्रिय बहिन सुमनलता जी द्वारा माह का अंतिम शनिवार हमारी “मन की बात” के लिए रिज़र्व करना,सच में हमारे लिए बहुत ही सम्मान की बात है जिसके लिए बहिन जी का धन्यवाद् करते हैं। माह के बाकि तीन शनिवार परिवार के साथिओं के लिए रिज़र्व किये हुए हैं।
आज के “मन की बात” सेक्शन में निष्काम कर्मयोगी की बात करने का मन है।
बहिन जी ने हमारे लिए “ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार” के “संस्थापक, व्यवस्थापक, निर्माता,निर्देश,लेखक,प्रस्तोता,जीवनदानी, दक्ष शेफ आदि विशेषण प्रदान करके सम्मान प्रदान किया है जिसके लिए हम बहिन जी का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं। कुछ दिन पूर्व बहिन जी ने इस सम्मान की परकाष्ठा की ऐसी छलांग लगाई कि हम चिंतन करने को मजबूर हो गए। जब बहिन जी ने हमारे लिए नवीनतम विशेषण “निष्काम कर्मयोगी” का प्रयोग किया तो अनेकों पढ़ा ही होगा लेकिन आदरणीय संध्या बहिन जी इस विशेषण का समर्थन भी कर डाला।
दोनों आदरणीय बहिनों ने अपना स्नेह और सम्मान प्रदान करके हमें दुविधा में डाल दिया कि क्या यह विशेषण हमारे लिए उचित है ? ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि अगर बहिन जी हमारे लिए “दक्ष शेफ” का विशेषण प्रयोग करते हैं तो हमें उनकी आशाओं पर पूरा उतरना चाहिए।
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित दिव्य साहित्य के चिंतन-मनन के बाद अगर हमारी रेसिपी से तैयार किये गए आध्यात्मिक भोजन के अमृतपान करने से क्षुधा तृप्ति होती है तो हम दक्ष शेफ के विशेषण के हकदार हैं लेकिन ऐसा है नहीं। साथिओं की तृप्ति का तो पता नहीं, हमें अपने बारे में भली भांति जानकरी है कि गुरुदेव की आशाओं पर उतरने से हम कोसों दूर हैं। गुरुदेव शक्ति दे रहे हैं, हम निरंतर प्रयास कर रहे हैं,अनेकों साथी भी निरंतर सहयोग दे रहे हैं लेकिन बहुत सारे साथी ऐसे भी हैं जिनके लिए शिष्टाचार, सहकारिता, सहयोग,सहानुभूति,सद्भावना,अनुशासन,निष्ठा, विश्वास,आस्था, प्रेम, स्नेह, नियमितता आदि शब्द, मात्र शब्द ही बन कर रह गए हैं। इसमें किसी को भी दोषी ठहराना उचित नहीं होना चाहिए क्योंकि यही समय की मांग है, यही आधुनिक युग की पुकार है, इंस्टेंट का युग है, हथेली पर सरसों ज़माने वाला युग है, इस युग की हवा ही अलग है।
लेकिन एक बात सर्वमान्य है,शाश्वत है,निश्चित है कि इस अंधी भागदौड़ में Survival तो केवल संस्कारवान आत्माओं का,पवित्र आत्माओं का ही है। चिन्मय जी के गोल्डन शब्द फिर से स्मरण हो आते हैं कि “गायत्री परिवारों में संस्कारवान आत्माओं का वास है, साक्षात् स्वर्ग है।”
दोनों बहिनों द्वारा प्रदान किये गए नवीनतम विशेषण “निष्काम कर्मयोगी” पर चर्चा करें, उससे पहले संस्कारों के सन्दर्भ में थोड़ी और चर्चा कर लें तो कोई अनुचित नहीं होगा।
बच्चों को उत्तम, दिव्य संस्कार देने में माता पिता का जितना दाइत्व है,उससे कहीं अधिक ईश्वर का आशीर्वाद होता है।
यह परम पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद ही था कि 37 वर्षीय हमारे छोटे बेटे आशीष को शांतिकुंज में मुंडन संस्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ। युगतीर्थ शांतिकुंज का दिव्य वातावरण “गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्तऋषिओं की तपस्थली…….” ने एक ऐसा व्यक्तित्व तैयार कर दिया कि अगर कुछ अधिक कहें तो बढ़ाई होगी। भावना, संवेदना, शिष्टाचार, सहानुभति आदि तो एक तरफ, वार्षिक श्राद्ध-तर्पण , रुद्राभिषेक,गायत्री महायज्ञ,विवाह दिवस, जन्म दिवस आदि का गायत्री परिवार के निर्देशानुसार करना, सब उसकी पर्सनॅलिटी का वर्णन करते हैं। गुरुकृपा का ही जीवंत उदाहरण हमारे अरुण वर्मा जी हैं जो निम्नलिखित शब्दों में बता रहे हैं:
यह सब गुरुदेव के कार्यो का नवीन प्रयास का प्रतिफल है, गुरुदेव परीक्षा ले रहे हैं कि मेरा शिष्य इस घटना से कहीं डगमगा तो नहीं रहा है, क्योंकि ऐसा विचार आना स्वभाविक है, क्योंकि शनिवार को दिन में यह शुभ कार्य कर के घर लौटे थे छोटी वाली बेटी से बात हुआ है और करीब आधा घंटा के बाद बेटी रोते हुए यह सारा घटना बतायी कि पापा सब का मोबाइल फोन सिस्टर मांग रही है, और आज सिर्फ दो एक दिन बाद बड़ी बेटी के साथ ऐसा हो गया, इससे थोड़ा बहुत तो प्रभाव मष्तिष्क पर पड़ता ही है, पर हमने कभी ऐसा नहीं सोचा क्योंकि हमें पूर्ण रूप से 100 % विश्वास है कि गुरुदेव के संरक्षण में जो कुछ भी हो रहा है वह सब बहुत अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा ही होगा।
भैया जी यह सब आपका ऊर्जामयी प्रेरणादायक लेखों का असर है, गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास का बीज बोने वाले तो आप ही हैं न, और वही बीज जो आज से चार साल पहले बोया था आज एक पेड़ बनकर आपके सामने खड़ा है । फल लगने के लिए थोड़ा इंतजार है । अब बड़ी ही सावधानी से फल को बचाये रखने के लिए समय-समय पर कीटनाशक दवा का छिड़काव भी बहुत जरूरी है । भैया जी, आपका सही मार्गदर्शन हमें हमेशा से हिम्मत देते आ रहा है एवम कठिनतम परिस्थिति में भी विचलित होने से बचाता है,आपका बहुत बहुत धन्यवाद है।
भैया जी अगर यह चापलूसी है तो भी हमें मंजूर है, ज्ञानरथ परिवार में आने से पहले तो यह भी नहीं थी। लोग सारी-सारी उम्र घोर तप,तपस्या करते हैं, अरुण भैया के मार्गदर्शन ने तो मात्र चार वर्ष में हमारा कायाकल्प किया है।
न जाने क्यों, अरुण वर्मा जी हमें श्रेय दिए जा रहे हैं, यह सब उनकी ही श्रद्धा है।
तो यह है उत्कृष्ट संस्कारों का योगदान।
इसीलिए कुछ दिन पूर्व हमने गर्भवती महिला के बैडरूम में दिव्य आत्माओं के चित्र लगाने की बात की थी। हमारे साथिओं को मुंह में ऊँगली डाले हुए उस चंचल Murphy child का अवश्य ही स्मरण हो आया होगा। वोह एक ऐसा युग था जब विज्ञान ने इतनी प्रगति नहीं की थी, अल्ट्रासाउंड वगैरह का तो नाम तक भी मालुम नहीं था। उस समय संस्कारी, दिव्य आत्माओं का पैदा होना सबसे बड़ी Priority हुआ करती थी।
खैर इस विवादास्पद विषय को यहीं पर छोड़कर बहिनों द्वारा दिए गए नवीन विशेषण
“निष्काम कर्मयोगी” के लिए धन्यवाद् करके,अपने विचार रखने की अनुमति चाहते हैं।
जहाँ तक हमारा अल्पज्ञान बता रहा है निष्काम का पर्यायवाची शब्द निस्वार्थ है; अर्थात ऐसा कर्म जो किसी कामना से, स्वार्थ से परे हो।
आगे चलने से पहले अपनी मूढ़मति को दर्शाती एक घटना शेयर करते हैं। बात उन दिनों की है जब हम B.Sc. फाइनल के विद्यार्थी थे। हमारे परिवार में प्रथा थी कि सभी बच्चों के Horoscope(कुंडली) बना लिए जाएँ। गढ़वाल उत्तराखंड के पंडित तोता राम जी ने हमारी कुंडली बनाई और पंडितों की प्रथा थी कि वोह घर में आकर कुंडली को पढ़कर विस्तार से समझाते थे ताकि कोई शंका न रह जाए। कई बार विद्वानों,पंडितों की भाषा साधारण लोगों की समझ से बाहिर होती हैं। गुरुदेव का साहित्य भी कई स्थानों पर ऐसा है, इसी का सरलीकरण करके ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार से समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। विश्विद्यालय की उच्चतम डिग्री,रसायन विज्ञान, मातृभूमि से दूर सेटल होना एवं अन्य अनेकों बातों की भविष्यवाणी तो की हुई थी, जो पूर्णतया सत्य निकलीं लेकिन एक शब्द जिसने हमें पूछने पर विवश कर दिया वोह था “कामी”, पंडित जी ने तो चार कुंडलियां पढ़नी थीं, जल्दी-जल्दी पढ़ रहे थे, हमने उनके जाने के बाद फिर से पढ़ा और “कामी” शब्द के आगे पीछे सब पढ़ा लेकिन इसका अर्थ पल्ले न पढ़ा। हमने अपनी माता जी से पूछा तो उन्होंने पल्ला झाड़ते हुए कहा कि खुद पता चल जाएगा। अंतःकरण में संदेह और जिज्ञासा का युद्ध चल रहा था। उस समय हमारे मस्तिष्क ने यही सन्देश दिया कि माताजी द्वारा पल्ला झाड़ लेना कहीं “कामवासना” जैसे शब्द के कारण तो नहीं है। आज तो ऐसे शब्दों की बड़ी आसानी से परिवार में, डाइनिंग टेबल पर चर्चा हो सकती है लेकिन 50 वर्ष पूर्व कहाँ संभव था।
अब आगे चलते हैं।
निष्काम शब्द का प्रयोग करके बहिन जी ने यह बता दिया है कि “निष्काम” शब्द में “काम” भाग कामवासना के लिए न होकर किसी भी कार्य की सफलता की कामना से सम्बंधित है। अब आती है निष्काम कर्मयोगी की बात।
बी आर चोपड़ा जी का प्रसिद्ध मेगा सीरियल महाभारत का शुभारम्भ इस श्लोक “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” से होता है। यह श्लोक किसी भी कार्य को निष्काम भाव से (निस्वार्थ भाव से) करने की अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है। इस श्लोक की शिक्षा बताती है कि (1) तुम अपना कर्म करो लेकिन इसके फल की चिन्ता न करो (2) तुम्हारे कर्म का फल तुम्हारे सुख के लिए नहीं है अर्थात तुम अपने कर्मों के फल के भोक्ता नहीं हो।
अगर ऐसा है तो हमें हर समय कमैंट्स की, संकल्पधारिओं की चिंता क्यों रहती। है रात को भी उठ-उठ कर कमैंट्स क्यों देखते हैं। इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं हमारे अंदर परिणाम की, फल की चिंता अवश्य है।
निष्काम कर्मयोगी को तो केवल अपना कर्म करने का अधिकार है, इस कर्म का फल कर्ता के प्रयासों पर निर्भर नहीं है। परिणाम के निर्धारण में करने वाले के प्रयत्न, भाग्य अर्थात हमारे पूर्वकर्म, भगवान की इच्छा, अनेकों लोगों के प्रयास, सम्बंधित साथिओं के कर्म, स्थान और परिस्थितियाँ आदि अनेक प्रकार के Parameters की भूमिका होती है। इतने सारे Parameters के बाद भी यदि हम परिणाम के लिए चिन्तित होते हैं और जब हमें ये हमारी इच्छा के अनुरूप नहीं मिलते तब हम चिन्ताग्रस्त हो जाते हैं, तो इसका अर्थ तो यही निकालता है कि हमें निष्काम कर्मयोगी का अर्थ ही मालूम नहीं है।
आदरणीय रेणु श्रीवास्तव बहिन जी ने जन्म दिवस पर शुभकामना देने के लिए फ़ोन किया तो उनके साथ भी यही चर्चा उठी कि लोग ज्ञानप्रसाद लेखों का अमृतपान क्यों नहीं करते, अगर करते हैं तो (कुछ एक के इलावा ) ठीक से कमेंट क्यों नहीं करते, जय गुरुदेव लिखकर खानापूर्ति एवं नंबर बढ़ाने जैसे कृत्य क्यों करते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन को फल की चिन्ता करने के स्थान पर केवल शुभ कर्म करने पर ध्यान केन्द्रित करने का उपदेश देते हैं। वास्तव में जब हम परिणाम की चिन्ता नहीं करते तब हम अपने प्रयासों पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने में समर्थ हो पाते हैं जिसके परिणाम पहले से अधिक उत्तम होते हैं।
कर्म करना मनुष्य की आंतरिक प्रवृत्ति है। इस संसार में आते ही हमारी पारिवारिक परिस्थिति, सामाजिक स्थिति और व्यवसाय आदि के अनुसार हम कर्म करना आरम्भ कर देते हैं । समस्या तो तब उठती है जब हम भूल जाते हैं कि हम भगवान का ही अणु अंश हैं और सभी कर्मों द्वारा हम निष्काम भाव से भगवान की सेवा कर रहे हैं, गुरुकार्य कर रहे हैं ।
OGGP के प्लेटफॉर्म पर बार-बार आग्रह,निवेदन,प्रयास करने का एकमात्र उद्देश्य केवल एक ही है:
गुरुदेव को प्रत्येक घर में स्थापित करना, आत्मिक शुद्धि करके परिवारों में सुखशांति लाना है। जब हमारे भाई बहिन सुखी होते हैं तो हमें बेहद ख़ुशी होती है।
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554 टोटल कमैंट्स और 13 संकल्पधारी कमैंट्स से आज की संकल्प सूची सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्।