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शुक्ला बाबा के गुरु, हरिहर बाबा जी की संक्षिप्त जीवनी 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में यह दृढ धारणा  बनी हुई है कि इस परिवार का संचालन परम पूज्य गुरुदेव की शक्ति से ही हो रहा है। आज इस तथ्य का एक और साक्षात् प्रमाण मिला जिसके कारण यह ज्ञानप्रसाद लेख आप सबके समक्ष प्रस्तुत हो पाया है। 

शिष्य शिरोमणि आदरणीय शुक्ला बाबा, परम पूज्य गुरुदेव के समर्पित प्रथम शिष्यों में से एक हैं। चिरंजीव बिकाश शर्मा के माध्यम से बाबा के प्रति चुंबकीय आकर्षण से प्रेरित होकर जिज्ञासा हुई कि शुक्ला बाबा के गुरु (128 वर्षीय बाबा हरिहर दास जी) के बारे में जानकारी प्राप्त की  जाए। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रकाशित वीडियोस और लेखों के माध्यम से सभी को विदित है कि बाबा हरिहर दास जी की मुक्ति के लिए शुक्ला बाबा ने पांच वर्ष तप किया एवं गुरुदेव ने मस्तीचक आकर मुक्ति दिलाई। 

फिर क्या था: गुरुदेव का मार्गदर्शन, हमारी जिज्ञासा एवं गूगल महाराज का सहयोग। तीनों  ने एक दूसरे का सहयोग किया और हमें एक फेसबुक पोस्ट का लिंक मिल गया जिसमें हरिहर दास जी की संक्षिप्त जीवनी का वर्णन था। Nectar saint पेज के अंतर्गत 7 जुलाई 2018 की  फेसबुक पोस्ट का लिंक नीचे दिया गया है। लगभग 6000 शब्दों में compile की गयी इस पोस्ट की जानकारी इतनी विस्तृत है कि हमारे लिए चयन करना एक चुनौती भरा प्रोजेक्ट था। आशंका थी कि ज्ञान के इस विशाल सागर में से अमूल्य रत्न ढूंढते हुए हम कोई बड़ी गलती न कर डालें।     

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दो पार्ट में प्रस्तुत होने वाले इस लेख में आज बाबा की संक्षिप्त जीवनी देने का प्रयास किया है, कल वाले लेख में बाबा की तप शक्ति से सम्बंधित कुछ चुनिंदा घटनाक्रमों का जानने का सौभाग्य प्राप्त होगा।  

बिहार का छपरा जिला हरिहर बाबा की जन्मभूमि रही। जफरापुर गाँव के सरयूपारी ब्राह्मण परिवार, तिवारी उपाधिधारी पंडितजी के यहाँ वर्ष 1821 की माघी पूर्णिमा के दिन बाबा का जन्म हुआ। जन्म नाम सेनापति था। सेनापति के सात बरस के होने पर दूसरे लड़के का जन्म हुआ और “हरिहर क्षेत्र का मेला” होने से बालक का नाम हरिहर रखा गया। पाठक गूगल सर्च करके इस विश्वप्रसिद्ध मेले की अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। 

हरिहर के जन्म के बाद माँ की तबियत खराब रहने लगी और  एक दिन वह दोनों बच्चों को पिता के सहारे छोड़कर चल बसीं । बच्चे माँ रहित हो गए। पिता तिवारी जी परेशान थे कि अब तो मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। मित्रों ने पुनः विवाह की सलाह दी लेकिन तिवारी जी ने मना कर दिया । पांच वर्ष बाद तिवारी जी भी चल बसे, उस समय सेनापति 14 वर्ष और हरिहर 7 वर्ष का था। पिता की मृत्यु के बाद सेनापति ने देखा कि सहारा देने वाला कोई नहीं था, खेत था नहीं, सगा भी कोई नहीं था। हरिहर को लेकर वो “सोनपुर” के एक जमींदार के पास चला गया। तिवारी जी इस जमींदार की अक्सर चर्चा किया करते थे। ये जमींदार तिवारी के मित्र और सहपाठी रह चुके थे। सारी बात सुनने के बाद जमींदार ने इन्हें अपना लिया। बड़ा भाई सेनापति, हरिहर की बहुत देखभाल करता था।  स्कूल से आने के बाद दोनों भाई साथ रहते, खा पीकर घर से बाहर नहीं निकलते और सो जाते। यहाँ आने के तीन वर्ष बाद हरिहर को बुखार आया और वह चल बसा। इलाज करवाने के बावजूद हरिहर को बचाया न जा सका। 

यह एक मार्मिक आघात था जिसे बड़ा भाई सेनापति सहन नहीं कर पा रहा था। उसका मन बार-बार विचलित हो जाता। कपडे, पुस्तकें, खेल के सामान रह-रह कर हरिहर की याद दिलाते। वह जमींदार के यहाँ से चला गया लेकिन जब उपेक्षा और अनादर के सिवा कुछ नहीं मिला तो लाचार होकर पुनः जमींदार के यहाँ आ गया। पढाई  में मन लगाने की कोशिश करने लगा लेकिन हरिहर की कमी उसे बराबर अशांत बनाये रखती। हृदय से किसी को प्यार करने पर जब उसका अभाव हो जाये तो बुरी तरह खलने लगता है। उसे लगने लगा कि उसका कोई भी अपना नहीं है। वह इस दुनिया में बिल्कुल अकेला है। सभी अपने-अपने स्वार्थ के लिए मोह उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति से घबरा कर सेनापति बिना सूचना दिए एक दिन घर छोड़ कर चला गया। कई शहरों के चक्कर काटते हुए जब अयोध्या पहुंचा तो वहां के वातावरण ने उसका मन मोह लिया। उसने निश्चय किया कि फकीर  साधुओं की तरह वो भी यहीं पर अपना बाकि का जीवन व्यतीत करेगा, शायद कभी प्रभु राम की कृपा हो जाये। नगर से दूर सरयू नदी के किनारे उसने डेरा जमा लिया।  पास के जंगल से लकड़ी और पत्ते लाकर अपना गुज़ारा करता और  राम नाम में मगन हो गया। 

शाम होने से पहले सरयू  में स्नान करता,जो मिलता उसे खा लेता, यात्री लोग साधू समझ कर कुछ दे देते, कभी-कभी नहीं मिलता तो सत्तू का घोल बनाकर पी लेता, अधिकतर समय ध्यान में लगा रहता। 

कहा जाता है कि इसी समय के दौरान, एक सन्यासी से सेनापति जी को  बीजमन्त्र प्राप्त हुआ। इस मन्त्र के जाप से उन्हें तितिक्षा (कठोर सहनशक्ति) प्राप्त हो गयी। वे कठोर साधना में मग्न हो गए। दाढ़ी और जटा बढ़ने लगी, मन की व्याकुलता समाप्त हो गयी। अब वह अपना अधिक समय कुटिया के बाहर शिला पर गुजारने लगे। 

इन्हीं  दिनों एक घटना हो गयी:

हरिहर के  गाँव के कुछ लोग अयोध्या दर्शन को आए थे।  इन लोगों ने सेनापति को पहचान लिया और  आश्चर्य के साथ कहा, “अरे यह तो तिवारी जी का बेटा है,यह साधू बन गया है ?”

दूसरे ने पूछा, “कहिये हरिहर के भैया आपने यह चोला कैसे धारण कर लिया ?” लोग सेनापति का नाम भूल चुके थे। अधिकाँश लोग “हरिहर” का नाम याद करके पुकारते रहे, हरिहर के भैया कहते रहे।  गाँव के लोगों ने समझाया कि ये उम्र साधू बनाने की नहीं है, चलो घर लौट चलो। सेनापति ने मना कर दिया, उसे मन्त्र जप का आनंद मिल रहा था। 

स्थानीय लोग सेनापति को कठोर साधना करते देखते रहे। किसी के पूछने पर कोई भी उत्तर  नहीं मिलता था। दिनभर कड़ी धूप में, मुसलाधार बरसात में, और कड़कड़ाती सर्दी में नंगे बदन ध्यान लगाए बैठे रहते थे। गाँव के लोग अब “हरिहर के भैया” के स्थान पर “हरिहर भाई” और बाद में “हरिहर बाबा” कहने लगे। बाबा ने भी यही नाम ग्रहण कर लिया।

जिस भाई की स्मृतियों ने संन्यास दिलाया उसी नाम को ग्रहण कर लिया।”

दो वर्ष साधना के बाद उन्हें वाक्सिद्धी (सिद्धि of speech) मिल गयी। वाक्सिद्धि प्राप्त होने वाले सिद्ध पुरुष के मुख से जो बात निकलती है वोह साक्षात् सत्य साबित होती है। आगे चलकर हमें  इस सिद्धि के साक्षात् प्रमाण मिलेंगें । 

हरिहर बाबा अब पानी में रहने लगे। चेहरे से अपूर्व तेज प्रस्फुटित होने लगा। कहा जाता है कि अयोध्या में 12 वर्ष तप करने के बाद एक दिन उन्हें प्रभु राम, सीता और हनुमान जी के दर्शन हुए।

हनुमान जी ने इनसे कहा:

अगर तुम इष्ट को प्राप्त करना चाहते हो तो काशी जाकर बाबा विश्वनाथ की कृपा ग्रहण करो। वहीँ तुम्हें इष्ट की प्राप्ति होगी। बाबा विश्वनाथ  की कृपा प्राप्त होते ही तुम्हें इष्ट प्राप्त हो जायेगा।

हनुमान जी का यह आदेश पाते ही हरिहर बाबा काशी को पैदल रवाना हो गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि अयोध्या से काशी की दूरी लगभग 200 किलोमीटर है। काशी के मार्ग में उनकी मुलाक़ात परमसिद्ध तैलंग स्वामी से हुई। दोनों ही मौन भाषा में बात करते विश्वनाथ मंदिर में आये। दो घंटे बाद मंदिर से निकलकर हरिहर बाबा तैरते हुए नगर के दक्षिणी भाग नगवा क्षेत्र में आ गए। यहाँ एक सुनसान स्थान पर रखे पत्थर पर ध्यानमग्न हो गए।

उच्चस्तर के साधक जिन्हें दिव्य दृष्टि, वाक् सिद्धी प्राप्त हो जाती है वे अपनी अतीन्द्रिय शक्ति से अन्य साधकों को पहचान लेते हैं। हरिहर बाबा को देखते ही तैलंग स्वामी ने समझ लिया था कि वे योग-सिद्ध हैं। इस बात की सूचना अपने भक्तों को देते हुए तैलंग स्वामी बोले, “तुम लोगों को चाहिए कि उनका दर्शन करो और उनका सर्वदा ध्यान रखो। इन दिनों वे नगवा में विराजमान हैं।”

उपस्थित भक्तों में किसी ने पूछा, “बाबा, सुना है वे किसी के हाथ की कोई सामग्री ग्रहण नहीं करते, हम उन्हें कैसे दें.?” तैलंग स्वामी बोले, “तुम्हारा कहना ठीक है लेकिन जब तुम लोग कुछ फल मिष्ठान्न दोगे तो वे उसे ग्रहण कर लेंगे।  मैंने उनसे कह दिया है। मेरे बाद मेरा स्थान वही ग्रहण करेंगे।”

सन 1887 में योगीराज तैलंग स्वामी ने शरीर छोड़ दिया।  स्वामीजी की भक्त मंडली शोक में व्याकुल हो गयी।  सभी शोक संतप्त भक्तों को हरिहर बाबा के सानिद्ध्य में शांति  प्राप्त हुई। 

हरिहर बाबा के समय के महात्माओं में, तैलंग स्वामी, भास्करानंद, श्यामाचरण लाहिड़ी थे।  इन महात्माओं का एक दूसरे  से संपर्क था। भास्करानंद जी ने भी कहा था, “हरिहर बाबा असाधारण योगी पुरुष हैं। उनके तप की तुलना किसी से नही की जा सकती।” नगवा घाट के समीप ही स्वामी योग्त्रयानंद जी रहते थे, एक दिन उन्होंने देखा कि किसी  साधू को कुछ वाचाल लड़के गालियाँ देते हुए उन पर ढेले फेंक रहे थे। यह दृश्य देखकर तुरंत उन्होंने शिष्य रामशरण से कहा, “बाहर जाकर तुरंत इन बदमाशों को डांटकर भगा दो और महात्माजी को आदर सहित भीतर ले आओ।” शिष्य रामशरण जरा असमंजस में पड़  गया। उसने देखा कि महात्मा जी पागलों  की तरह दिखाई दे रहे थे, कहीं कोई हरकत कर बैठे तो क्या होगा। उसने कहा कि क्या मेरे कहने पर महात्मा जी भीतर आना स्वीकार करेंगे ? 

स्वामीजी ने कहा, “अवश्य करेंगे, मैं जो कह रहा हूँ करो, विलम्ब मत करो और जाओ।”

डरते हुए रामशरण ने लड़कों को भगाया और महात्मा जी से निवेदन किया। महात्मा जी तुरंत साथ चले आये, उसके बाद संक्षिप्त सी उच्चस्तरीय वार्ता हुई । हरिहर बाबा के जाने के बाद योग्त्रयानंद जी शिष्यों से बोले, “यह तो महान योगी हैं, तैलंग बाबा के बाद मैंने ऐसा कोई महात्मा नहीं देखा।  मेरा अनुरोध है कि इनकी सेवा बराबर करते रहना। ऐसे महात्माओं का जन्म  कभी कभार ही होता है।” इस मुलाक़ात के बाद योग्त्रयानंद जी बराबर हरिहर बाबा के पास जाने लगे। 1 जुलाई 1949 तक, जब हरिहर बाबा का शरीर-अंत  नहीं हो गया, बराबर उनके लिए फल फूल मिठाई आदि भिजवाते रहे। 

हमारे पाठक जानते ही होंगें कि वैसे तो सिद्ध पुरुषों की कोई आयु नहीं होती लेकिन गणित यही बता  रहा है कि महाप्रयाण के समय हरिहर बाबा 128 वर्ष के थे। 

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644 टोटल कमैंट्स,34 मेन कमैंट्स और 12 संकल्पधारी कमैंट्स से आज की संकल्प सूची सुशोभित हो रही है, सभी को बधाई एवं धन्यवाद्। 

कल इस लेख का दूसरा एवं अंतिम पार्ट प्रस्तुत करने की योजना है।  


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