वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गायत्री तपोभूमि की स्थापना का  स्वर्ण जयंती वर्ष (2002)

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहयोगी, समर्पित साथी एवं गुरुकुल के सहपाठी हमारे साथ पूर्णतया सहमत होंगें कि इस मंच का प्रत्येक क्रियाकलाप परमसत्ता गुरुदेव के निर्देश से ही चल रहा है, वही लेखों का चयन कर रहे हैं, वही हमसे छोटे-मोटे  संशोधन करा रहे हैं , अगर हमने कभी अपनी अल्प बुद्धि  से कुछ लिखा भी होगा तो वोह भी उन्होंने ने ही लिखवाया होगा। ऐसा हम इतने विश्वास से इसलिए कह रहे हैं कि आज प्रस्तुत किया गया लेख (एवं अनेकों अन्य लेख ) अखंड ज्योति के अक्टूबर 2002 वाले अंक में प्रकाशित हुआ था, अगर हम स्वयं लिखने वाले होते तो 22 वर्ष क्या देखते रहे ? यह गुरुकृपा ही है, सच में गुरुकृपा ही है। हमारा विश्वास है कि  अगर हमें  लिखने में इतनी उत्तेजना एवं प्रसन्नता होती है तो पढ़ने वाले साथिओं की क्या स्थिति होगी, हम अनुभव कर सकते हैं।

गायत्री तपोभूमि की स्थापना के स्वर्ण जयंती वर्ष से सम्बंधित एक ही पार्ट  का यह लेख लिखते समय तपोभूमि तो साक्षात् आंखों के समक्ष घूमती रही, साथ ही साथ श्रद्धेय पंडित लीलापत शर्मा जी भी एक सेकंड के लिए आँखों से ओझल नहीं हुए। आद.डॉ शर्मा जी की ही भांति, हमें पंडित जी की दिव्य रचनाओं पर लिखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। अगर हम 2002 से पहले उनकी रचनाओं को लिखे होते तो उनसे भी अवश्य आशीर्वाद मिला होता, लेकिन यह होता कैसे ? गुरु-निर्देश सर्वोपरि है, एवं उसका पालन करना हमारा धर्म है। 

आज की इस आरंभिक भूमिका में साथिओं को लेख के बारे में अवश्य ही कुछ जानकारी मिल गयी होगी, पूर्ण जानकारी तो गुरुकक्षा में ही मिलेगी, तो करते हैं उस और प्रस्थान।

530 टोटल कमेंटस , 31  main कमेंटस  और 14  चौबीस-आहुति संकल्पित कमैंट्स से आज की संकल्प सूची सुशोभित हो रही है, सभी को हमारा धन्यवाद् एवं बधाई। 

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“गायत्री तपोभूमि मथुरा” का अखिल विश्व गायत्री परिवाररूपी विराट शरीर में वही स्थान है, जो हृदय का होता है यानि तपोभूमि गायत्री परिवार का दिल है।  परम पूज्य गुरुदेव 1941 में मथुरा आए, 1952 में 24 महापुरश्चरणों की समाप्ति पर उन्होंने इसी स्थान के रूप में अपनी साधना स्थली का चयन गीता जयंती पर किया। 1953 की गायत्री जयंती पर गायत्री तपोभूमि के छोटे से परिसर में “गायत्री महाशक्ति के विग्रह” की स्थापना हुई। इसके साथ ही यहाँ एक 108 कुंडीय यज्ञ भी संपन्न हुआ, जिसमें परमपूज्य गुरुदेव ने अपने साधना गुरु श्री सर्वेश्वरानंद जी महाराज के निर्देशानुसार 24 महापुरश्चरणों (प्रत्येक 24 लाख  के) की पूर्णाहुति भी संपन्न की। तीन वर्ष बाद यहीं पर नरमेध यज्ञ संपन्न हुआ तथा 1958  में 1008  कुंडी वाजपेय स्तर के गायत्री महायज्ञ के संपन्न होने के साथ गायत्री परिवार का एक विराट संगठन साधना की धुरी पर बनकर खड़ा हो गया।वाजपेय एक प्रकार का श्रौतयज्ञ है। ‘शतपथ ब्राह्मण‘ के अनुसार यह यज्ञ केवल ब्राह्मण या क्षत्रियों के द्वारा ही करणीय है। यह यज्ञ “राजसूय यज्ञ” से भी श्रेष्ठ माना गया है।

 यों तो 1941 से ऋषियुग्म का निवास अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामंडी, मथुरा ही  इस पत्रिका का प्रकाशन केंद्र था, लेकिन दोनों प्रतिदिन  गायत्री तपोभूमि आते थे एवं नियमित चलने वाले सत्रों में साधकों का मार्गदर्शन करते थे। इस प्रकार गुरुसत्ता की चरणरज से यह सारा क्षेत्र ऊर्जावान बना हुआ है।

यही वह पावन भूमि है, जहाँ पूज्यवर के हिमालय से लौटकर आने के बाद,युगनिर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों तथा नवयुग के घोषणा पत्र के रूप में सत्संकल्प (18  सूत्री कार्यक्रम) का प्रचार-प्रसार किया गया। 

गायत्री मंदिर के सामने स्थित यज्ञशाला एवं अखण्ड अग्नि, भारत व विदेश के अनेकानेक साधकों के संकल्पों की एवं भावपूर्ण  आहुतियों की साक्षी है। यह अखण्ड अग्नि त्रियुगी नारायण (केदार क्षेत्र हिमालय) से लाई गई थी। शिव-पार्वती विवाह के समय से सतत प्रज्वलित यह दिव्याग्नि कितना महत्त्व रखती है,इसे शब्दों में वर्णन  नहीं किया  जा सकता।

हिमालय के लिए विदाई लेने से पूर्व 1941 से 1971 तक, 30 वर्ष की एक लंबी अवधि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा पावन तीर्थनगरी भथुरा में एक कर्मभूमि के रूप में व्यतीत हुई है। इसमें भी 1952  से 1971  तक का लगभग  20  वर्षों का समय गायत्री तपोभूमि के साथ उनकी हर श्वास के साथ बीता है। लगभग इतना ही समय (1971  से 1990 ) वे शांतिकुंज हरिद्वार में  रहे। इस प्रकार उनकी जीवन यात्रा एक सुनियोजित क्रम में बँटी नजर आती है।

वर्ष 2002 को गायत्री तपोभूमि जैसी प्राणवान स्थापना के 50 वर्ष पूरा  होने का गौरव प्राप्त है । यह एक महत्त्वपूर्ण स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष है, जिसे गायत्री जयंती 2002  से गायत्री जयंती 2003 (10  जून) तक समस्त भारतवर्ष में सोल्लास मनाया जा रहा है। परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के बाद जिन गिने-चुने तपस्वियों का इस पावन तपोभूमि को विस्तार देने में योगदान रहा, उनमें “श्रद्धेय पंडित  लीलापत शर्मा जी” का नाम हमेशा याद किया जाएगा। 

1912  में भरतपुर जिले में जन्में  पंडित जी पूरी तरह 1967  में मथुरा आ गए थे एवं पूज्यवर द्वारा ही उन्हें वहाँ के व्यवस्थापक का कार्यभार सौंपा गया था । 1971  में ऋषियुग्म परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के हरिद्वार आगमन के साथ ही पंडित जी ने गुरुसत्ता की पादुकाएँ गायत्री माता के मंदिर के दोनों ओर रख कर  उनके “चित्र” स्थापित किये थे। यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि पंडित जी ने ही गुरुदेव और माताजी की प्रतिमाएं बाद में स्थापित कीं। 

भगवत् सत्ता की इच्छा के वशीभूत पंडित जी को 90  वर्ष की पुण्य -परमार्थ भरी जिंदगी जीकर 14 मई, 2002  की  प्रातः गुरुसत्ता ने अपने पास बुला लिया। हर श्वास में गुरुसत्ता को ही जीने वाले पंडित जी का जीवन भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार (गीताप्रेस गोरखपुर से सम्बंधित) की तरह एक समर्पित प्रभुभक्त का रहा। उनकी ही इच्छानुसार गायत्री तपोभूमि में गायत्री मंदिर के दोनों ओर उनकी आराध्य सत्ता की मूर्तियाँ स्थापित की गयीं। 

नवंबर 2001  के गुजरात प्रवास के पूर्व पंडित जी, सतीश जी ( श्री मृत्युंजय शर्मा,गुरुदेव के बेटे) को लेकर दो बार जयपुर गए एवं मूर्तियों के निर्माण का मार्गदर्शन करके आए। लीलापत जी समय-समय पर मूर्तियों के कार्य की प्रगति देखते रहे। मूर्तियाँ बनकर तैयार हो गयीं और उन्हीं की हार्दिक इच्छा अनुसार स्वर्ण जयंती वर्ष में स्थापना  की गयी । 

परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी की साढे तीन फीट ऊँची बैठी प्रतिमा आद्यशक्ति गायत्री माता  के दायीं ओर एवं परमवंदनीया माता भगवती देवी की तीन फीट बैठी प्रतिमा बायीं ओर प्रतिष्ठित की गयी है। एक छोटे-से समारोह व कर्मकांड के साथ यह स्थापना शरदपूर्णिमा 21  अक्टूबर,2002 की प्रात: की गयी। सूक्ष्म व कारण में स्थित,माँ गायत्री में विलीन एवं निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त गुरुसत्ता हमारे आसपास ही विद्यमान है, इसलिए प्राण प्रतिष्ठा जैसा कोई कर्मकांड नहीं किया गया ।

परमपूज्य गुरुदेव का  सदैव यही निर्देश रहा है कि उनकी सत्ता सजल श्रद्धा- प्रखरप्रज्ञा के रूप में, देवात्मा हिमालय व स्मृति उपवन के रूप में, अखण्ड दीपक की जाज्वल्यमान ज्योति के रूप में तथा उनके द्वारा लिखे गए विचारों के रूप में, उनके साहित्य में ही सदा मौजूद है, इसीलिए किसी को भी यह नहीं करना चाहिए कि औरों का अनुकरण कर हम भी ऐसी मूर्तियों की स्थापना अपने यहाँ करें। ऐसा करने से  गुरुसत्ता के निर्देशों की अवमानना होगी तथा उनके ज्ञानयज्ञ अभियान में बाधा पड़ेगी। गुरुदेव के निर्देश अनुसार, ऐसा करने से प्राथमिकता पर  किये जाने वाले कार्य एवं युगपरिवर्तन के लिए होने वाले कार्यों में व्यवधान आएगा। स्वर्ण जयंती वर्ष में इसीलिए हर परिजन से यही कहा गया  कि वे साधकों की संख्या बढ़ाएँ, मंत्र लेखन अभियान को गति दें, पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या में अभिवृद्धि करें तथा मिशन की सप्तक्रांति योजना को पूर्णता तक पहुँचाएँ । 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से भी समय-समय पर कमैंट्स द्वारा संपर्क-सम्बन्ध बढ़ाने के लिए आग्रह किया जाता है। सम्बन्ध बढ़ने से दायरा और विस्तृत होगा, गुरु का सन्देश अधिक घरों में पंहुचेगा,और अधिक परिवार सुखमय जीवन का आनंद प्राप्त कर पायेंगें, आखिर गायत्री परिवार का  यही तो मुख्य उद्देश्य है। 

गायत्री तपोभूमि मथुरा एवं शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा घोषित सातों आंदोलनों की एक सम्मिलित कार्य योजना संगठनात्मक स्तर पर सक्रिय करने के लिए अखंड ज्योति के इसी अंक में एक Editorial में  दी गई थी ।

20,21और 22  अक्टूबर की ढाई दिन की अवधि में शरदपूर्णिमा का कार्यक्रम संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम में केवल वही साधक भाग ले पाए  जो न्यूनतम निम्नलिखित शर्तों को पूरा करते थे : 

(1) जो गायत्री महामंत्र लेखन अभियान को तीव्र गति दे सकते थे । विभिन्न परिजनों से कम-से-कम 100  मंत्रलेखन पुस्तिकाएँ प्रतिमाह लिखवा सकते थे। इस प्रकार गायत्री जयंती 2003 तक 1000  पुस्तिकाएँ विभिन्न लिखवाने वाले परिजन ही  भागीदार बन सके। यह  पुस्तिकाएँ  सभी भाषाओँ में उपलब्ध कराई गयीं । 

(2) जो परिजन मिशन की  चारों पत्रिकाओं: मासिक अखण्ड ज्योति हिंदी, बंगला व अँग्रेजी, युग निर्माण योजना, युगशक्ति गायत्री (गुजराती एवं विभिन्न भाषाओं में) तथा प्रज्ञा अभियान पाक्षिक के न्यूनतम 50  पाठक बढ़ा सकने की स्थिति में थे। 

(3 ) जो साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, कुरीति-उन्मूलन, नशानिवारण, पर्यावरण संवर्द्धन तथा नारी जागरण में से किसी  दो को पूर्ण गति दे सकें। सुनियोजित कार्यपद्धति अपनाकर उसे ऐसी गति दें कि उस क्षेत्र में वह एक ख्याति-प्राप्त आंदोलन बन जाए।

(4 ) जो न्यूनतम 3 माह का क्षेत्र या केंद्र में शांतिकुंज के मार्गदर्शनानुसार समय दे सकते हों, उसका नियोजन शपथपूर्वक कर सकने की स्थिति में हों।

जो भी उपर्युक्त शर्तों का पालन कर सकते हों, ऐसे गिने-चुने शपथ लेने वाले प्राणवानों को स्वर्ण जयंती समारोह के मूर्ति स्थापना कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया। शर्तें कड़ी एवं परिपालन अनिवार्य होने के कारण 10000 से 15000 प्राणवान ही आ पाए। 

20  अक्टूबर की प्रातः से अखण्ड जप से आरंभ हुआ, मध्याह्न में शोभायात्रा निकली , | तत्पश्चात एक कार्यकर्त्ता गोष्ठी हुई । अगले दिन प्रातः : मूर्तिस्थापना के साथ यज्ञ चलता रहा,सभी ने दर्शन किए । दिन में गोष्ठी के उपरांत शाम को एक विराट दीपयज्ञ में शपथ ली गयी  कि आगामी 8  माह में क्या-क्या करना है। अगले दिन प्रातः पूर्णाहुति के बाद कार्यकर्त्ता क्षेत्र में लौट गए । जो नहीं आ पाए उन्हें  अपने स्थान पर शक्तिपीठों/प्रज्ञामंडलों में शरदपूर्णिमा का संकल्प दीपयज्ञ संपन्न करने के निर्देश दिए गए। 

स्वर्ण जयंती समारोह वर्ष भर चले,अतः दर्शनार्थी वर्ष में कभी भी आकर दर्शन लाभ लेते रहे और आज तक ले रहे हैं। 20,21 और 22 अक्टूबर 2002 वाले तीन दिन केवल उन्हीं के लिए थे  जो शपथ लेने आए थे । आशा ही नहीं, पूरा विश्वास है कि 2002 से 2003 के  एक वर्ष के प्रयास, गायत्री तपोभूमि की तप-ऊर्जा को समस्त भारत भूमि में बिखेरने में सफल हो पाए। 

इतिश्री


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