21 अगस्त 2024 का ज्ञानप्रसाद स्रोत-अखंड ज्योति अगस्त 2002
आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शीर्षक स्वयं ही बता रहा है कि अखंड ज्योति पत्रिका जिसे हम सब वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं, इसके प्रकाशन के पीछे ईश्वरीय शक्ति का बहुत बड़ा योगदान है।
अगस्त 2002 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख “पैंसठ वर्ष की एक अनंत यात्रा के प्रारम्भिक पड़ाव” ने हम पर ऐसा चुम्बकीय प्रभाव डाला कि आज के लेख का जन्म हो आया, साथ ही नरसी भक्त की कथा की विस्तृत रिसर्च भी कर डाली जिसे संक्षेप में इसी लेख के अंत में प्रस्तुत किया है।
हमारे साथिओं के साथ पहले ही शेयर कर चुके हैं कि अगली “नियमित लेख श्रृंखला” से पहले, ऐसे ही कुछ दिव्य लेख प्रकाशित करने की योजना है।
530 टोटल कमेंटस , 26 main कमेंटस और 15 चौबीस-आहुति संकल्पित कमैंट्स से आज की संकल्प सूची सुशोभित हो रही है, सभी को हमारा धन्यवाद् एवं बधाई।
चलते हैं गुरुकक्षा की ओर गुरुज्ञान का अमृतपान करने के लिए।
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अखंड ज्योति जैसी विश्व्यापी पत्रिका की अंतर्कथा (Inner story) से बहुत कम पाठक परिचित हैं, बहुतों की इस तथ्य की जानकारी नहीं है कि इसका प्रकाशन तंत्र सर्वसमर्थ परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास और अडिग आस्था पर ही टिका हुआ है। अधिकतर पाठक इसके प्रभावशाली बाहरी विस्तार के आत्मीय बन्धन में स्वयं को लपेटा, समेटा हुआ अनुभव करते हैं। पाठकों को यह भी अनुभूति होती है कि “अखण्ड ज्योति ईश्वरीय प्रकाश का प्रकाशन” है। इस दिव्य प्रकाशन में प्रकाशित होने वाले भाव और विचारों के साथ प्रत्येक पहलू में “एक दिव्य प्रकाश” उजागर होता दिखता है। इसके पवित्र उजाले से लाखों अन्तःकरण हर माह प्रभावित होते हैं।
गुरुदेव बताते हैं कि इस आन्तरिक सत्य को बहुत कम लोग अनुभव कर पाते हैं । परमेश्वर पर अटूट एवं अनवरत विश्वास और आस्था ही हैं जिसने अखण्ड ज्योति के पृष्ठो, पंक्तियों तथा प्रकाशन व्यवस्था के प्रत्येक क्रिया-कलापों में ईश्वरीय प्रकाश के दैवी अवतरण को सहज सम्भव बनाया है। अखण्ड ज्योति के सभी साधन और उनसे मिलने वाली संभावनाएं, ईश्वरीय-विश्वास के रस में भीगे और डूबे हैं। ईश्वरीय विश्वास एवं आस्था ही एकमात्र वास्तविक पूँजी है, जिसके बलबूते इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हो पाया। आज भी यही अलौकिक निधि, Supernatural treasure, खजाना/कोष काम आ रही है।
अखंड ज्योति ने अपने जन्म से ही “प्रचण्ड भगवत विश्वास की प्राण शक्ति” के सहारे अपनी जीवन यात्रा शुरू की। पग-पग पर कठिनाइयाँ और संकट आए लेकिन हर बार प्रभु-विश्वास ही सहारा बना।
अखण्ड ज्योति की इस अंतर्कथा को उजागर करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने इसी पत्रिका के अप्रैल 1940 अंक में लिखा:
“कदाचित इस पत्रिका के प्रेमी इसके बाहरी रूप को देखकर भीतरी स्थिति भी जानना चाहते होंगे तो उन्हें कुछ थोड़ा सा भीतरी परिचय करा देना भी इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि हम पाठकों को अपना परिवार समझते हैं। पाठकों को हक है कि वह अपनी दिव्य पत्रिका के बाहरी रूप को देखने के साथ भीतरी बातें भी जानें।”
गुरुदेव लिखते हैं कि इस अंतर्कथा का पहला सत्य यह है कि
“अखण्ड ज्योति का संचालक, इन पंक्तियों का लेखक, सम्पादक, आर्थिक दृष्टि से कोई ऊँचा व्यक्ति नहीं है। अपनी कुछ एक हजार रुपये की छोटी सी पूँजी से उसने इतने बड़े उत्तरदायित्व के जहाज का लंगर खोल दिया है। उसका विश्वास है “नरसी भगत” वाले “सांवरिया सेठ” इस जहाज को पार लगावेंगे।
आज के लेख का समापन नरसी भगत की लघु कथा से ही होगा।
6-7 महीने में संचालक की वह पूँजी समाप्त हो गयी और घाटे का मसान गला घोंटने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। पैसे एवं साधनों की चिन्ता बड़ी कठिन होती है। आमदनी बढ़ाना या खर्चा घटाना यही दो सूरतें हो सकती थीं।
आमदनी बढ़ती न दिखी तो खर्च घटाया। तीन रंगों वाला मुख पृष्ठ छोड़ना पड़ा। भीतर की रंगीन तस्वीर बन्द करनी पड़ी ,कागज हल्का करना पड़ा । 15 रुपये माहवार किराये वाले ऑफिस को 4 रुपये महीने के छोटे से कमरे में शिफ्ट करना पड़ा । चन्द अनिवार्य कार्यकर्त्ताओं को छोड़कर, बाकि सभी कर्मचारियों के कार्य भी सम्पादक ने अपने ही हाथ में ले लिए । स्वयं नित्य 16 घण्टे काम करने की व्यवस्था हुई।
इस प्रकार खर्च में बहुत कुछ कमी करके घाटे की भरपाई की गयी । फिर भी असुविधा दूर न हो सकी। 1.50 रुपया वार्षिक मूल्य के प्रकाशन की छपाई,पोस्टेज आदि के बाद भला क्या बच सकता था ? ऐसी दशा में कार्य के महत्व को देखते हुए घाटे का होना स्वाभाविक था ।
इस गहरी आर्थिक स्थिति में परम पूज्य गुरुदेव की “प्रकाशन नीति” यथावत बनी रही। उन्होंने न तो भारी-भरकम धनराशि देने वाले विज्ञापन-दाताओं (Sponsors) का सहारा लिया और न ही धन राशि देकर अहसान जताने वाले धनवानों का। विपन्नता की इस संकट भरी दशा में उनका प्रभु में विश्वास सम्पूर्ण रूप से समृद्ध रहा।
इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा:
अखण्ड ज्योति के लिए अपने उदार बन्धुओं से याचना करते तो झोली खाली न रहती । परन्तु हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि जिस लोकोपयोगी कार्य को निस्वार्थ सेवा एवं पवित्र भावना से आरम्भ किया है उस का भार प्रभु पर है। गुरुदेव द्वारा लिए गए “योगक्षेम वहाम्यहम्” के संकल्प से ईश्वर प्रतिज्ञाबद्ध है कि जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मुझे पूजते हैं, ऐसे नित्ययुक्त साधकों के सभी कार्यों को मैं स्वयं पूर्ण करता हूं।
फिर हम किसी से याचना क्यों करें? यदि हमारा कार्य अपवित्र है, हमारी भावनाएँ हीन है, तो हमें नष्ट हो जाना चाहिएऔर यदि हम धर्म प्रचार के मिशन के लिए जीवित हैं, तो वह घट-घट वासी परमात्मा जिन्हें निमित्त बनाना चाहता होगा, उनके हृदयों में प्रेरणा भरेगा कि इस मुरझाते हुए धर्म-तरु को सींचने के लिए अपने भरे हुए जल पात्रों में से एक-एक चुल्लू पानी का इसके लिए भी त्याग करें।अखण्ड ज्योति परिवार गुणी ग्राहकों, सच्ची सेवा का महत्व जानने वाले बुधजनों, उच्च अधिकारारुढ़ों, धनी मानियों, महापुरुषों, साधु महात्माओं, ईश्वर भक्तों से भरा पड़ा है। ईश्वर जब उनके हृदयों को प्रेरित करेगा तो वे अपनी श्रद्धानुसार इस मुरझाते हुए धर्मतरु को सींचने के लिए स्वयं दौड़ेंगे।
इन पंक्तियों में परम पूज्य गुरुदेव की भावदशा की झलक है। उनके परम विश्वासी “भक्त हृदय” की अभिव्यक्ति है।
इसी सब को उन्होंने अपनी सबसे मूल्यवान सम्पति माना था। इसी वास्तविक पूँजी के सहारे उन्होंने अखण्ड ज्योति का प्रकाशन शुरू किया था। जब-जब झंझावातों के दौर आए, तब-तब वह अपने प्रभु-विश्वास की अटल ज्योति को लिए चलते रहे। उनका विश्वास हर बार विजयी हुआ। परिस्थितियों की चुनौती हर बार हारी। अखण्ड ज्योति सदा ही “ईश्वरीय प्रकाश” का वितरण करती रही। अपने जीवन का यही सत्य उन्होंने अपने अनुयायी शिष्यों- साधकों को भी सिखाया।
ईश्वर-विश्वास को अपना दृढ़ Tool मानकर, अधिक से अधिक श्रम करते रहना ही अखण्ड ज्योति की प्रकाशन नीति है। परम पूज्य गुरुदेव ने यही सीख दी है कि अखण्ड ज्योति की प्राप्ति से कभी विचलित मत होना। सर्वसमर्थ प्रभु स्वयं ही साधनों के अम्बार लगा देंगे। भक्तों के प्रेरक भगवान् स्वयं ही अपने प्रिय भक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए माध्यम बनाते रहेंगे।
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नरसी भक्त की कथा :
नरसी भक्त,गुजरात के एक प्रसिद्ध 56 करोड़ सम्पति वाले सेठ हुए हैं ।अति सम्पन्न होने के कारण राजा ने उन्हें ड्राफ्ट बनाने के लिए रजिस्टर कर रखा था। समय एक जैसा नहीं रहता, किसी कारणवश नरसी मेहता बहुत ही निर्धन हो गए और उनका रजिस्ट्रेशन का कार्य समाप्त कर दिया गया।
एक बार की बात है कि चार संत नरसी जी से 500 रुपए का ड्राफ्ट बनवाने के लिए नगर में आए। नगर के व्यक्तियों ने उन संतों से मजाक में कह दिया कि सेठ नरसी आजकल सीधे मुँह बात नहीं करते और वन में रह कर निर्धनता का ड्रामा कर रहे हैं, कोई मिन्नत करता है तो ड्राफ्ट बनाते हैं।
संतजन नरसी जी के पास आए तथा 500 रूपये देकर ड्राफ्ट बनाने को कहा। नरसी जी ने मना कर दिया और कहा कि अब मेरा बनाया ड्राफ्ट नहीं चलता । संतों ने कहा कि नगर वाले ठीक ही कह रहे थे कि आप सीधे मुँह बात नहीं करते। हम ड्राफ्ट बनवा कर ही रहेंगे। नरसी जी समझ गए कि नगर वालों ने मजाक किया है। नरसी जी डर गए कि संतजन कहीं मुझे श्राप न दे दें। उन्होंने उसी समय कागज मँगवाकर ड्राफ्ट बना दिया और देने वाले के स्थान पर सांवरिया सेठ (क्योंकि वोह श्रीकृष्ण के पुजारी थे) का नाम लिख दिया। संतों के पैसे से नरसी जी ने घी, चावल, दूध, चीनी आदि खरीद कर उसका भंडारा कर दिया ।
संतों ने द्वारिका में सांवरिया सेठ का पता किया और ड्राफ्ट कैश करना चाहा। सेठों ने देखा कि यह ड्राफ्ट तो नरसी निर्धन की है, अब तो वह दिवालिया हो गए हैं।सेठों ने कहा कि नरसी ने आपको ठग लिया है।
नरसी जी ने ध्यान लगाकर देखा कि परमेश्वर ने मुझ गरीब का ड्राफ्ट कैश किया है या नहीं, देखा कि संत बहुत दु:खी हैं। वोह ड्राफ्ट को बार-बार देख रहे हैं। नरसी जी ने अपनी पत्नी से पूछा कि 500 रूपये का जो सामान लाए थे, वह सब भण्डारे में लग गया या कुछ बचा है। पत्नी ने कहा थोड़ा-सा सूखा आटा जो हाथों से लगाकर रोटी बनाते हैं वही बचा है। नरसी जी ने कहा कि तू बचे आटे से रोटी बना, मैं किसी भूखे यात्री को लेकर आता हूँ।
परमेश्वर स्वयं एक संत का रूप धारण कर नरसी जी को मिले। नरसी जी ने विनयपूर्वक बचे आटे की चारों रोटियां “परमेश्वर रूपी संत” को खिला दीं ।
चार रोटी खाकर परमात्मा “सांवरिआ सेठ” के रूप में द्वारिका में प्रकट हो गए। परमात्मा ने संतों के पास जाकर कहा. “कैसे बैठे हो?” संतों ने कहा, “हम तो कहीं भी जाने योग्य नहीं रहे,नरसी जी का ड्राफ्ट यहाँ चलता नहीं लेकिन दोष उनका नहीं है , हमने ही उन्हें मजबूर किया था। परमात्मा कहने लगे किसने कहा यह ड्राफ्ट नहीं चलता? वो सांवरिआ नाम का सेठ मैं हूं। आ जाओ, मेरी दुकान पर, मैं दूंगा तुम्हारे 500 रुपए। परमात्मा ड्राफ्ट लेकर द्वारिका के उस बाजार में गए, जहां चारों तरफ सेठों की दुकानें थी। परमात्मा कहने लगे यहां पर चादर बिछाओ। सेठ रूप में परमात्मा चाँदी के नए-नए सिक्के पटककर मारने लगे और ज़ोर ज़ोर से एक, दो, तीन, चार कह कर गिन रहे थे। यह सुनकर वहां के सेठ इकठ्ठे हो गए और देखने लगे कि यह सेठ तो द्वारिका का नहीं है फिर ऐसा क्यों कर रहा है। तब परमात्मा ने सांवरिआ सेठ के रूप में 500 रूपये गिनकर व देकर संतों से कहा कि भाई मैं ही सांवरिआ सेठ हूं, नरसी जी से कहना चाहे एक लाख का ड्राफ्ट भेज दें, मैं सब कैश कर दूंगा, यह वचन बोलकर परमेश्वर अन्तर्ध्यान हो गए।
इतिश्री
