वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के 2 सप्ताह बाद वंदनीय माताजी का “मातृवाणी” शीर्षक केअंतर्गत सन्देश का तृतीय पार्ट

https://youtu.be/xFbPBYAnhlI?si=fy4avIPo_V-LHjWd
15 अगस्त 2024 का ज्ञानप्रसाद स्रोत अखंड ज्योति अगस्त-सितंबर 2002

परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के 2 सप्ताह बाद वंदनीय माताजी का “मातृवाणी” शीर्षक केअंतर्गत सन्देश का तृतीय पार्ट
परमपूज्य गुरुदेव ने स्वेच्छा से 2 जून 1990 को गायत्री जयंती एवं गंगा दशहरा अपनी स्थूल काया का त्याग किया। महाप्रयाण के बाद शपथ समारोह, श्रद्धांजलि समरोह जैसे विशाल भव्य आयोजन तो हुए ही लेकिन माँ की अंतरात्मा शांत कैसे बैठती जब तक गुरुदेव का सन्देश उनके बच्चों तक न पंहुच जाता। इसी को सार्थक करने के लिए वंदनीय माता जी ने 2 सप्ताह बाद ही, 16 जून 1990 को शांतिकुंज में अपने बच्चों को सम्बोधन किया। “मातृवाणी” यानि माँ की वाणी शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किये जाने वाली लेख श्रृंखला का आज तृतीय पार्ट प्रस्तुत किया गया है।
वर्षों से विदेश में रहने के बावजूद, भारतीयता हमारे रग-रग में बसी हुई है, इसी भारतीयता को स्मरण करते हुए विश्व के प्रत्येक भारतीय को स्वाधीनता दिवस की हार्दिक बधाई।
आज के लेख में वंदनीय माताजी समर्पण और आत्मीयता की बात समझा रही हैं। समर्पण के लिए तन और मन दोनों की बात करते हुए कह रही हैं अगर समर्पण नहीं है तो हाथ में माला तो जरूर होती है लेकिन दिमाग हमारा दूसरी ही तरफ लगा रहता है । माताजी अक्टूबर 1990 के श्रद्धांजलि समारोह के बारे में बच्चों को प्रेरित कर रही हैं। यह समारोह 1 से 4 अक्टूबर के बीच आयोजित हुआ था। इस आयोजन की दिव्य वीडियो हम अपने चैनल पर पहले ही अपलोड कर चुके हैं, यहाँ पर फिर से उस वीडियो का लिंक दे रहे हैं। हमारे चैनल पर दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित, 1992 के शपथ समारोह की वीडियो भी प्रकाशित हुई है, उसे भी देखकर जीवन सफल बनाया जा सकता है।
https://youtu.be/QyvI7T9VqEk?si=560ELG4nEu0bS0-B
माताजी इसी समारोह के लिए बच्चों को कह रही हैं कि अब केवल तीन माह का समय ही बचा है। माताजी समाधि स्मारक के बारे में भी बात कर रही हैं जिसे हम सब उनके चरणों में बैठकर उन्हीं से जानेगें।
आज संजना बेटी के जिस कमेंट ने हमारे अंतःकरण में उठ रहे विचार का समर्थन किया है उसी विचार को सार्थक करते हुए वर्तमान लेख शृंखला की ऑडियो बुक कल इस मंच पर शेयर की जाएगी। पिछले तीन लेखों में जो पढ़ा गया है,उसी को अब ऑडियो बुक फॉर्म में प्रस्तुत किया जायेगा। इस ऑडियो बुक के माध्यम से, आप घर का कार्य करते करते भी, वंदनीय माता जी का उपदेश ग्रहण कर सकते हैं। 30 अगस्त को अंतिम शुक्रवार है, युवा साथिओं का शुक्रवार,हमारे समर्पित साथिओं को तो स्मरण होगा ही। 17 अगस्त शनिवार को अपने सबके प्रिय एवं गुरूजी के समर्पित साधक आदरणीय अरुण जी की 5 कुंडीय यज्ञ सम्बंधित अनुभूति प्रस्तुत करने की योजना है।
आज की 24 आहुति संकल्प सूची का सेंसेक्स फिर से 19 सफल साथिओं के साथ ऊपर आ गया है जिसके लिए सभी बधाई एवं धन्यवाद् के हकदार हैं। शनिवार के विशेषांक में इस विषय (विशेषकर संकल्प सूची के उद्देश्य) पर भी चर्चा हो सकती है।
आज का प्रज्ञा गीत संकल्प की मांग कर रहा है।
तो आइए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की यज्ञशाला में बैठ अपनी माँ के ज्ञान का अमृतपान करें और कमैंट्स रुपी आहुतियां देकर अपना जीवन सफल बनाएं, ऐसा सफल कि सारा विश्व सुगन्धित हो उठे।


सबको प्यार बाँटो, आत्मीयता दो:
बेटे, सबको अपने समान समझो। अपने जो छोटे भाई हैं, उनको प्यार दो। अपने से जो बड़े हैं, उनका सम्मान करो। किसी को यह महसूस न होने पाए कि यहाँ गुरुजी नहीं हैं। यहाँ तो सारे निर्जीव बसते हैं, जैसे इनमें जान ही नहीं है। बेटे, सबको गुरुजी जैसा प्यार, आत्मीयता दो। मुझे कई बार उन लड़कों को झिड़कना पड़ता है, जो हमारे पास रहते हैं। नीचे तो मुझे नहीं दिखाई पड़ता, पर पास में तो मैं दो-तीन लड़कों को बहुत झिड़कती हूँ। क्या करूं, मेरा स्वभाव ऐसा नहीं है लेकिन जब देखती हूँ कि लोगों को मिलाते समय मुझे ऐसा लगता है जैसे भेड़-बकरियों को आगे कर रहे हों।
भेड़-बकरियों की तरह नहीं, बल्कि सभ्यता-शालीनता का क्रम चालू करो। जल्दी-जल्दी चलाओ अवश्य, लेकिन तुम्हारी जुबां में मिठास होनी चाहिए। आप पूछेंगें मिठास होगी तो क्या होगा? सारे-के-सारे व्यक्ति तुम्हारी सराहना करेंगे।
मिठास दो तरह की होती है, एक प्रकृति-प्रदत्त स्वभावगत और दूसरी चापलूसी। पहली तरह की मिठास तो स्वाभाविक होती है, मनुष्य की प्रकृति में होती है। ऐसे मनुष्यों की Nature ही ऐसी बन चुकी होती है कि उनसे चापलूसी होती ही नहीं है और वोह दिल से शालीन होते हैं। दूसरी तरह की मिठास तो उन लोगों में साफ़ झलकती है जो अपना काम निकलवाना जानते हैं। ऐसे लोग उसकी भरकर चापलूसी करते हैं जिनसे काम निकलवाना होता है। काम निकल जाने के बाद “तू कौन, मैं कौन” जैसी स्थिति होती है।
चापलूसी करने में छोटापन होता है, कमीनापन और छोटापन साफ़ दिखाई देता है। ऐसा करने में व्यक्ति का बौनापन झलकता है। हमें बौना भी नहीं बनना है और अहंकारी भी नहीं बनना है चूँकि मिशन आप सबके द्वारा ही चलना है, तुम्हारे कंधों पर चलना है, इसलिए हमारा प्रत्येक कार्यकर्ता गुरुजी की “दूसरी काँपी” होना चाहिए।
गुरूजी कभी-कभार थोड़ा झल्ला जाते थे, लेकिन उन्होंने दिल से कभी किसी से द्वेष नहीं माना। यहाँ तक कि जो गुरूजी को विरोधी मानते थे, उनके लिए भी उन्होंने कभी कुकल्पना नहीं की । उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि इस व्यक्ति ने हमारे साथ ऐसा किया है, तो हम इसका बदला लेंगे। उन्होंने उसके साथ भी सज्जनतापूर्ण व्यवहार ही किया। वे कभी भी बौखलाए नहीं। बस चाल उलटी बदल दी। उन्होंने कहा, अच्छा यह बात है, अपने काम की गति बढ़ा दो। सड़ने-कुढ़ने के बजाए उन्होंने सारा समय “श्रेष्ठ चिंतन” में लगा दिया। अरे, वोह तो सड़ ही रहा है,तो क्या हम भी उसके साथ सड़ जाएँ,क्यों? हमें तो मिशन चलाना है, हमारे अंदर तो प्रखरता होनी चाहिए, नम्रता होनी चाहिए, साथ ही साथ हमारे अंदर साहस और बल भी होना चाहिए।
बेटे, हम ऐसे बुज़दिल भी न हों कि कोई हमसे पूछे कि साहब आप कौन हैं? अरे हम तो संत हैं। अच्छा, तो एक इधर से थप्पड़ दे जाए और दूसरा उधर से भी दे जाए। ऐसा संत भी नहीं बनना है। मैं कई बार कह चुकी हूँ कि तुम लोग लाठी चलाओ, यह पुरुषार्थ का प्रतीक है। सारे आश्रमों की निगाहें हमारी तरफ जाती हैं। यह सब कहेंगे कि यहाँ मरे मराए नहीं, जिंदादिल लोग रहते हैं। किसी ने कहा, कहाँ गए ? अरे साहब, मंदिर गए तो पता चला कि वहाँ से घंटी आदि ही कोई उठा ले गया। उन्होंने कहा, यहाँ कौन बसते हैं यहाँ तो निर्जीव हैं, जिन्हें यह भी ध्यान नहीं कि हम यहाँ मंदिर में बैठे हैं और यहाँ से सामान भी चला गया। बेटे, हमारे यहाँ सभी जिंदादिल लोग ही रहने चाहिए।
दो महान् संकल्प:
अब चलिए, मैं थोड़ा-सा प्रसंग बदल रही हूँ।
बेटे,यह इतना बड़ा काम है, मैंने उस रोज़ दोनों संकल्पों के बारे में बताया था न । हाँ बेटे, मैं फिर दोहरा रही हूँ कि हमने दो संकल्प लिए हैं। मैं समझती हूँ कि इन्हें पूरा कराने में गुरूजी ही सहायता करेंगे, तभी होंगे पूरे । मेरा मन ऐसा कहता है कि वे मदद जरूर करेंगे, क्योंकि जब उनका हर कार्य पूरा होता हुआ चला गया, तो ये दो संकल्प भी पूरे होंगे। उस दिन मैंने जो निवेदन किया था और कहा था कि हम “एक शानदार श्रद्धाँजलि समारोह” मनाएँगे। उसके लिए तुम्हारे पैरों में गति, तुम्हारी हिम्मत, तुम्हारा साहस अब और भी डबल होना चाहिए।
देखो बेटे, मेरा साहस डगमगाया नहीं हैं। कभी-कभी आँखों में आँसू तो आ जाते हैं, लेकिन रोकती हूँ। आज जब एक गीत गाया जा रहा था, तो मैं अपने को रोक न पाई और अंदर-ही-अंदर आँसू पीती रही। सामने वाला यह नहीं भाँप पाया कि माताजी की आँखों में आँसू भी हो सकते हैं। क्या करें बेटे ? 50 वर्ष जिसके साथ में गुजारे, उसे हम कैसे भुला सकते हैं? वह नहीं भुलाया जा सकता, लेकिन मैं फिर भी भीतर से इतनी कड़ी और इतनी हिम्मत वाली हूँ कि मैं आँसुओं को भुला दूँगी, उन्हें पी जाऊँगी। उनका जो उद्देश्य है, जो लक्ष्य है, उसके लिए तो अब हमें मर मिटना है। गुरूजी इसी भूमि में समा गए बेटा, इसी में मुझे भी समाना है । तुम लोगों का भी यही लक्ष्य होना चाहिए कि जब हम यहाँ शाँतिकुँज में आए हैं, तो हमें नाक कटाकर नहीं रहना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि मन में कुछ और है, तन में कुछ और। जो मन में है, वही तन में है। तुम सब अपने मन की परिशुद्धि करना, तभी तुम्हारी भावनाएँ और तुम्हारा समर्पण शुद्ध होगा। अभी तक तो तुम्हारा समर्पण है, आगे की मुझे मालूम नहीं। बेटे, आगे भी तुम इसी तरीके से,शुद्ध भावना और पवित्र समर्पण के साथब ने रहना।
बेटे, अब केवल तीन महीने रह गए हैं। तीन महीने होते कितने हैं? तुम्हें दिन-रात सबको श्रम करना पड़ेगा। दिन और रात एक करने पड़ेंगे, तब कहीं हम कार्य को पूरा कर पाएँगे। चैन की नींद सोते रहे, तो क्या ऐसे ही काम हो जाएगा? बेटे, ऐसे काम नहीं होगा। जरा-जरा से काम में कितना समय लगता है। जो 6 यज्ञ हुए हैं, उनमें कितने लोगों ने दिन और रात एक किए हैं, तब सफल हुए हैं। यह यज्ञ तो इतने बड़े नहीं थे लेकिन यह कार्य तो कितना विशाल है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है, अंतर्राष्ट्रीय काम यूं ही हो जाएगा क्या?
दूसरा “संकल्प स्मारक” बनाने का है, तो वह भी यों ही हो जाएगा क्या? चलो, उसे तो हम अपने द्वारा पूरा कर लेंगे, लेकिन यह जो “श्रद्धाँजलि समारोह” का कार्य है, इसके लिए तो तुम्हें अपना तन और मन दोनों ही समर्पण करने पड़ेंगे। इसके लिए बेटे, अपनी हिम्मत, अपना साहस और अपनी भावनाएँ होंगी। भावनाओं के बगैर कोई भी कार्य पूरा हो नहीं पाता। इसके बिना हम भगवान की पूजा भी नहीं कर पाते हैं। हाथ में माला तो जरूर लगी रहती है लेकिन दिमाग हमारा दूसरी तरफ लगा रहता है । क्यों? इसलिए लगा रहेगा कि भगवान के प्रति जो हमारा उदात्त भाव, जो हमारा समर्पण, जो हमारी करुणा होनी चाहिए, वह करुणा पैदा ही नहीं हुई, तो हम भगवान की पूजा कैसे करेंगे? इस तरह क्या हम भगवान के बताए रास्ते पर चल सकेंगे? कदापि नहीं, हम तो उसी तरह गुमराह होते जाएँगे जैसे आज तक होते आये हैं। गुमराह होते ही हम पलायनवादिता (Escapism) की ओर चलते चले जाएँगे। Escapism का अर्थ किसी सिचुएशन को छोड़ कर भागना होता है। भगवान् के रस्ते पर चलने के लिए समर्पण और श्रद्धा की आवश्यकता होती है। इसीलिए कहा जाता है कि उपासना,साधना और आराधना तीनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं।
इसके आगे की चर्चा सोमवार को करेंगें।
जय गुरुदेव


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