वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के 2 सप्ताह बाद वंदनीय माताजी का “मातृवाणी” शीर्षक केअंतर्गत सन्देश का  चतुर्थ पार्ट 

(माँ को समर्पित गीत)

19  अगस्त 2024 का ज्ञानप्रसाद – अखंड ज्योति, अगस्त 2002 
परमपूज्य गुरुदेव ने स्वेच्छा से 2 जून 1990 को गायत्री जयंती एवं गंगा दशहरा अपनी स्थूल काया का त्याग किया। महाप्रयाण के बाद शपथ समारोह, श्रद्धांजलि समरोह जैसे विशाल भव्य आयोजन तो हुए ही लेकिन माँ की अंतरात्मा शांत कैसे बैठती जब तक गुरुदेव का सन्देश उनके बच्चों तक न पंहुच जाता। इसी को सार्थक करने के लिए वंदनीय माता जी ने 2 सप्ताह बाद ही, 16 जून 1990 को शांतिकुंज में अपने बच्चों को सम्बोधन किया। “मातृवाणी” यानि  माँ की वाणी शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत की जा रही  लेख श्रृंखला  का आज चतुर्थ पार्ट प्रस्तुत है।

आज के लेख में वंदनीय माता जी उपासना-साधना-आराधना का मर्म समझा रही हैं, इस बहुचर्चित टॉपिक को माँ बहुत ही सरलता से बता रही हैं। 

रक्षाबंधन का पावन पर्व पोरस द्वारा सेलिना (सिकन्दर की बहिन) को दिए वचन को समर्पित है। आज सभी परिवारजनों को हमारी  सबकी बहिन संध्या जी के पति की सफल सर्जरी की प्रार्थना का  संकल्प लेना है।  हम सब सामूहिक वचन देते हैं पांडे जी के लिए गुरुदेव से प्रार्थना  करते हैं। शब्द सीमा के कारण सीधा मातृवाणी की ओर  चलें।

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उपासना भगवान के समीप बैठने की अनुभूति है। इस अनुभूति का अर्थ भगवान् में मिल जाने,विलय हो जाने,Merge हो जाने की अनुभूति है।  यह अनुभूति ठीक उसी तरह की होती है जैसे दूध में पानी का विलय होना होता है।

कहने को तो दो प्रेमी भी कहते हुए, प्रण लेते हुए सुने गए हैं: “दो जिस्म मगर एक जान हैं हम”, इनके बारे में तो कुछ भी कहना उचित न होगा, लेकिन भगवान के सन्दर्भ में यह 100% सही है, एक बार करके तो देखो, सब कुछ भूल कर, भगवान्  के समक्ष एक नवजन्में शिशु की भांति, पूर्णतया नग्न, मोहमाया से दूर होकर तो देखें, आंखों में प्रेम-अश्रू न छलक उठें तो हमारा नाम बदल देना।       

करुणा पैदा होना, दया पैदा होना। ये सब कौन और क्या हैं? यह  भक्ति के ही अनेकों  स्वरूप हैं। जिस मनुष्य का मन शुद्ध है, जिसके अंदर दया, करुणा और संवेदना होती है उसे ही ऐसी अनुभूतियाँ होती हैं। ऐसी अनुभूतियाँ होने के बाद,वह मनुष्य केवल स्वयं  तक ही  सीमित नहीं रहता, उसका दायरा विस्तृत ही होता जाता है, वह अपने स्वयं के परिवार से बाहिर निकल कर ब्रह्माण्ड में छलांग लगाने का साहस करने लगता है  यानी ऊँचा ही  उठता जाता है। 

गुरुचरणों में बैठे, गुरुकक्षा के समर्पित “साथी विद्यार्थी” सोच रहे होंगें कि उपरोक्त पंक्तियाँ ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के बच्चों के लिए तो नहीं लिखी जा रही हैं। हमें  विश्वास है कि हमारे अति समर्पित सहयोगी इस विषय पर अपने विचार रखे बिना नहीं रह सकते।  

वाल्मीकि जी ने एक पक्षी के जोड़े को तिलमिलाते हुए देखा और उनकी करुणा फूट पड़ी। ऐसे  व्यक्ति ही जनमानस के लिए समर्पित होते हैं और अपने जीवन का धन्य बनाते हैं ।

साधना का अर्थ अपने जीवन को ऊँचा उठाना, सीधा करना है। साधना का अर्थ है अपने को साधक बनाना ताकि जनसेवा कर सकें । जनसेवा हमारा मुख्य ध्येय है। इसीलिए तो गुरुजी का इस धरती पर अवतरण हुआ। सारी जिंदगी उन्होंने यही तो किया है। 

गायत्री माता के प्रति जितनी उनकी श्रद्धा थी, उससे अधिक  कलम के लिए थी और उससे भी कहीं अधिक समाज के लिए थी। वे समाज को ऊँचा उठाना चाहते थे। वे समाज को, राष्ट्र को बहुत से होनहार नागरिक देना चाहते थे, यही उनका उद्देश्य था । उनकी सारी जिंदगी इसी में लग गई। इसे ही  साधना कहा जाता है।

आराधना का अर्थ समाज सेवा है। उपासना-साधना-आराधना, तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। बेटा,हम सभी को उपासना तो नित्यप्रति करनी ही है, लेकिन कार्यकर्ता भाई, चाहें तो मात्र आधा घंटा ही उपासना करें। यह कोई ज़रूरी नहीं कि तुम सारा  दिन माला लेकर ही बैठे रहो। अगर ऐसा हुआ तो काम कौन करेगा? 

माता जी बता रही हैं : हमारे यहाँ अखण्ड ज्योति कार्यालय में एक चित्र है, जो अभी भी है। गुरुजी जब उपासना में बैठते थे तो मालूम ही नहीं पड़ता था कि 6 घंटे जाने कहाँ निकल गए। फिर सारा दिन काम करते थे। तुम्हारे लिए 6  घंटे तो नहीं,आधा घंटा ही बहुत है। आधा घंटा नित्यप्रति जब खाना खाएँ तो पहले उपासना कर लें। इसके बाद अपने जीवन का शोधन करें, देखें कहाँ-कहाँ हमारी कमियाँ हैं, किस तरीके से अपनी इन कमियों को बाहिर  निकालें।

बेटे, हमें अपनी कमियाँ नजर नहीं आतीं। जिस दिन वोह नजर आ जाएँगी, तो व्यक्ति न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा। हम दूसरों की कमियाँ तो निकालते रहते हैं लेकिन  अपने गिरेवान में नहीं देखते कि हम में कितनी कमियाँ हैं। हमारे प्रत्येक कार्यकर्ता को चाहिए कि वह अपनी कमियों को खोज-खोजकर निकाले। दूसरों से पूछे, क्यों भाई साहब,आज यह बताएं  कि मुझसे कोई दुर्व्यवहार तो नहीं हुआ? मेरे अंदर कोई कटुता तो नहीं आई? 

गुरुजी ने कहा कि कोई बताने  वाला तो है,जिसके द्वारा मालूम पड़ रहा है  कि हमारे अंदर क्या कमी है। हम उस कमी को निकालेंगे। गुरूजी ने पांच वर्ष के बच्चे के  मुँह से निकली हुई बात को भी अपने अंदर उतारा, अपना सुधार किया। अगर कोई बात  फिट बैठती है तो उन्होंने कभी नहीं कहा  कि मैं इतना बड़ा हूँ और इस नन्हें  से बच्चे की बात क्यों मानूँगा। वे सबकी मानते थे।

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युद्ध का निर्णय हो चुका था लेकिन सिकन्दर को कुछ ऐसे  क्षणों का स्मरण करके सिहरन आ गयी जिसके कारण सिकन्दर भारत में आगे जाने के बजाए वहीँ से यूनान (वर्तमान  ग्रीस) वापिस चला गया। उसने पोरस से पूछा, “आपको युद्ध के मैदान में क्या हुआ था महाराज? आप मुझे मार देते तो आज आप विजेता होते।” पोरस ने कहा, “इस प्रश्न का उत्तर आपकी पत्नी सेलीना बेहतर दे सकती है।”

सिकन्दर को याद हो आया कि जब उसने भारत पर आक्रमण किया था तो उसके डेरे सिन्धु के तट पर पड़े हुए थे। वर्षा ऋतु जल-थल को एक किए थी। सिन्धु सचमुच ही महासिन्धु बनी हुई थी।सिकन्दर और उसकी फौजें प्रतीक्षा में थी कि सिन्धु का वेग कुछ थमे, तो वे नदी पार कर  सकें।

भारतीय रीति-रिवाजों का थोड़ा-बहुत ज्ञान रखने वाले सिकन्दर को तब एक कूटनीति (Diplomacy) सूझी। महावीर पोरस के रणकौशल, उनकी व्यूह रचना, युद्धनीति से यूनान की  सेना आतंकित थी।  वे तो सभी सिकन्दर की जोर-जबरदस्ती के कारण मजबूर थे। ऐसे में सिकन्दर ने पोरस की वीरता को अपनी “कूटनीति के व्यूह” में घेरना चाहा।

सिकन्दर ने नदी के पार एक नाव भेजी जिसमें उसकी  पत्नी सेलीना सवार थी। श्रावण का महीना था। यूनानियों को यह मालूम था कि भारत में श्रावण के महीने में स्त्रियाँ अपने भाइयों के कलाई में राखी बाँधती हैं जिसे  रक्षाबन्धन कहते हैं। भाई संकल्प लेता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करेगा, चाहे इसके लिए उसे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। सेलीना का पोरस के दरबार में स्वागत किया गया।

पोरस ने पूछा, “आप क्यों आई,मुझे बुला लिया होता, मैं स्वयं आपके शिविर में आ गया होता। इस समय सिन्धु को पार करना बहुत जोखिम से भरा था।” सेलीना बोली, “मुझे तो आना ही था क्योंकि श्रावण का महीना है। मेरा कोई भाई नहीं है और मैं आपको अपना भाई बनाना चाहती हूँ।”

पोरस ने कहा,“यह तो अच्छा संयोग है। मेरी भी कोई बहन नहीं है। मैं आपको अपनी बहन बनाकर बहुत प्रसन्न होऊँगा।” सेलीना ने पोरस की कलाई पर राखी बाँध दी और पोरस ने वचन दिया कि चाहे उसे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े,वह उसकी रक्षा करेगा।

सेलीना बोली, “भैया, मैं आपकी बात पर भरोसा करती हूँ। मुझे मालूम है कि भारत देश के वीर अपने वचन के पक्के होते हैं, मैं आपसे अपनी नहीं अपने सुहाग की रक्षा का वचन चाहती हूँ। आप बस इतना स्मरण रखें, कि शीघ्र ही मेरे पति के साथ आपका युद्ध होगा। आप बस इतना ख्याल रखें कि आपकी बहन विधवा न हो।”

वीर शिरोमणि पोरस ने उत्तर दिया, “ठीक है बहन, यह एक भाई का वचन  है कि तुम मेरे जीवित रहते विधवा नहीं होओगी ।”

बीते हुए घटनाचक्र का स्मरण कर सेलीना की आँखों में कृतज्ञता बरस पड़ी। सिकन्दर का सिर भी नीचे हो गया। उसने कहा, वीरवर पोरस ! मैं जानता हूँ कि सेलीना को आपके पास भेजकर राखी बंधवाना,मेरी एक कूटनीति थी,मैं जानता हूँ कि राखी के प्रति आपकी भावनात्मक प्रतिबद्धता के कारण ही मैं न केवल जीवित हूँ, बल्कि विजेता भी हूँ लेकिन यह विजय और जीवन मुझे आपसे मिले हैं।

हंसते हुए पोरस ने कहा, “यवनराज! राखी बाँधते हुए भारत के पुरोहित निम्नलिखित  मंत्र पढ़ते हैं : 

“येन बद्धो बलीराजा, दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षो मा चल मा चल॥” अर्थात्- यह वह रक्षा सूत्र है जिससे महाबलवान दानवों के राजा बली बाँधे गए। रक्षा सूत्र तुम चल-विचल मत हो, प्रतिष्ठित बने रहो।

रक्षा सूत्र की यह महिमामय प्रतिष्ठा  हमारी गौरवपूर्ण साँस्कृतिक परम्परा है। मैंने आपको जीवनदान देकर अपने देश के साँस्कृतिक गौरव का सम्मान किया है। वैसे भी हम भारतवासी दूसरे के देश में घुसकर आतंक फैलाने, उनकी भूमि हड़पने में यकीन नहीं रखते। हमारा विश्वास  तो हृदयों पर विजय पाने में है। हम तो साँस्कृतिक दिग्विजय को अपना जीवन अभियान मानते हैं।

भारत की साँस्कृतिक परम्परा और उसके जीवन्त प्रतीक महावीर पोरस के इन वचनों को सुनकर सिकन्दर अभिभूत हो गया। इतिहासवेत्ता भी इस तथ्य से सहमत हैं कि इसके बाद सिकन्दर वापस लौट गया। वह भारत में और आगे नहीं बढ़ा। कोई भी यह ठीक-ठीक नहीं बता पाया कि वह वापस क्यों लौट गया क्योंकि वह तो युद्ध जीत गया था। अब तो पूरे भारत के द्वार उसके लिए खुले थे। वह दूसरे राज्यों में प्रवेश कर सकता था। पर्वतेश्वर का राज्य तो सीमा के पास का छोटा राज्य था लेकिन तथ्यों की रिसर्च करने वाले  जानते हैं कि सिकन्दर की वापसी भारत देश की संस्कृति के सामने उसके समर्पित होने का परिणाम थी। 

यह राखी के बन्धन के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ पोरस की उदात्त भावनाओं के सामने सिकन्दर की भावनाओं की हार की परिणति थी जिसके कारण उसे यह सच स्वीकार करना पड़ा कि यथार्थ में महान् वह नहीं, राखी का प्रण निभाने वाले सम्राट पोरस हैं।

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618 कमेंट,37 भागीदार और 16 संकल्पधारी आज की सूची को सुशोभित कर रहे हैं ,सभी को हमारी बधाई एवं धन्यवाद्। 


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