14 अगस्त 2024 का ज्ञानप्रसाद
परमपूज्य गुरुदेव ने स्वेच्छा से 2 जून 1990 को गायत्री जयंती एवं गंगा दशहरा अपनी स्थूल काया का त्याग किया। महाप्रयाण के बाद शपथ समारोह, श्रद्धांजलि समरोह जैसे विशाल भव्य आयोजन तो हुए ही लेकिन माँ की अंतरात्मा शांत कैसे बैठती जब तक गुरुदेव का सन्देश उनके बच्चों तक न पंहुच जाता। इसी को सार्थक करने के लिए वंदनीय माता जी ने 2 सप्ताह बाद ही, 16 जून 1990 को अपने बच्चों को सम्बोधन किया। “मातृवाणी” यानि माँ की वाणी शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किये जाने वाली लेख श्रृंखला का आज द्वितीय पार्ट प्रस्तुत किया गया है।
वंदनीय माता जी का यह उद्बोधन इतना लोकप्रिय एवं बहुचर्चित है कि इसका प्रकाशन अनेकों बार, अनेकों स्थानों पर हो चुका है। हमारे हाथ तो गुरुदेव ने अगस्त 2002 की अखंड ज्योति थमा दी जिस पर हम यह लेख श्रृंखला आधारित कर रहे हैं लेकिन “महाशक्ति को लोकयात्रा” पुस्तक में भी इसका वर्णन आया है, अभी कल ही ऋषि चिंतन चैनल के अंतर्गत लगभग आधे घंटे की ऑडियो बुक भी देखी है।
आज के लेख से प्राप्त शिक्षा के दो पॉइंट:
1. गुरुजी कहते थे कि आठ घंटे नौकर काम करता है, स्वयंसेवक बारह घंटे काम करता है और मालिक सोलह घंटे काम करता है। यहाँ पर हमारे जितने भी बच्चे बैठे हैं, मालिक हैं। सभी एक जैसे मालिक हैं , यहाँ सीनियर-जूनियर का कोई चक्कर नहीं है।
2.माँ के लिए बच्चा चाहे प्रोफेसर हो और चाहे रिक्शा चलाता हो, दोनों के लिए माँ की ममता एक सी होती है।
इन्हीं शब्दों के साथ आइए गुरुचरणों में समर्पित होकर, एक आज्ञाकारी बच्चे की भांति, सही मायनों में, अपनी माँ की शिक्षा को ग्रहण करें। “सही मायनों में” कहने का हमारा विशेष उद्देश्य है क्योंकि आदरणीय सुमनलता बहिन जी की शब्दावली चुराकर हम देख रहे हैं कि कमैंट्स का सेंसेक्स तीसरे दिन लगातार गिरता ही जा रहा है। सोमवार को 715, मंगलवार को 618 और आज बुधवार को 501 तक आ पंहुचा है। सोमवार को 21,कल 18 और आज मात्र 11 साथी ही संकल्प पूरा कर पाए हैं।
हमारे विचार के अनुसार शनिवार के स्पेशल सेगमेंट में किये गए निवेदन का सार्थक प्रभाव दिखने में अभी कुछ और समय लगने की आशा है। हो सकता है संकल्प सूची के सम्बन्ध में हम अपने निवेदन को समझाने में अयोग्य रहे हों जिसके लिए हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं।आज की क़िस्त में हमारी माँ, सहकारिता,सहयोग,अपनत्व,परिश्रम आदि शब्दों पर ही बल दे रही हैं। अगर ध्यान से अमृतपान किया जाए तो आज के लेख की शिक्षा 24 आहुति संकल्प में बड़ा मार्गदर्शन साबित हो सकती है।
OGGP के ज्ञानयज्ञ की यज्ञशालाओं से उठ रहे सुगंधित धूम्र से समस्त विश्व यज्ञमय हो जाए, यही हमारी कामना है।
******************
हमारी माँ कह रही है :
बेटे, वे कह गए हैं कि हमने यह जो वृक्ष लगाया है कहीं ऐसा न हो कि सूख जाए। सो हिम्मत के साथ और दिलेरी के साथ आँसू पीना है और आगे बढ़ना है। हर बच्चे को आगे बढ़ाना है। बेटे,तुम्हारा कोई दुःख, कष्ट कठिनाई होगी तो उसका हम जी-जान से निवारण करेंगे। आध्यात्मिक दृष्टि से भी निवारण करेंगे, शक्ति से भी निवारण करेंगे और औपचारिक दृष्टि से भी निवारण करेंगे। तुम हमारे बालक हो। हम तुम्हारे लिए जान पर खेल जाएँगे, इसमें कोई दो राय नहीं हैं।
बेटे, जहाँ हम आपको सहायता देने की बात करते हैं वहीँ हम तुम्हारे दोष-दुर्गुण आदि को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। उन्हें हटाने के लिए मैं बिल्कुल भी रिआयत नहीं करूंगी। बेटे, गुरुजी ने भी इस मामले में कभी रिआयत नहीं की। अब तक तो मैं रिआयत करती आई थी,लेकिन अब नहीं करूंगी। क्यों नहीं करूंगी? क्योंकि उन्होंने कह दिया है कि मैं तुम्हारे अंदर समाया हुआ हूँ। जब गुरूजी मेरे अंदर पूर्ण समाए हैं तो बेटे, मैं माताजी का और गुरुजी का दोनों ही का रोल अदा करूंगी। दोनों रोल मुझे इसलिए करने पड़ेंगे, ताकि मिशन में काई गड़बड़ी न आने पाए। जहाँ कहीं भी गड़बड़ी का बीज मुझे मालूम पड़ेगा,वहीँ उस बीज का मैं नाश कर दूँगी। चाहे कोई भी क्यों न हो,बिना किसी मोह के, मैं उसका अस्तित्व ही समाप्त कर दूँगी।
ब्राह्मण बीज चाहिए :
मुझे तो वह बीज चाहिए, जो कि ब्राह्मीय हो अर्थात् उनके अंदर ब्राह्मण वृत्ति पनपे और मेरे बच्चे ब्राह्मण जैसा जीवन जिए। गुरुजी का यही तो उद्देश्य था, बेटे। यहाँ बैठे हुए तुम सब ब्राह्मण ही हो। तुम्हारे लिए फिजूल का कहाँ है? बेटे, तुम्हें कहीं भी चिंतन गड़बड़ाता हुआ दिखाई दे, तो अपना कर्तव्य समझकर,गुरूजी का आदेश मान कर, उस गड़बड़ाए हुए चिंतन को तुम साफ करना। आगे आने वाले समय में आप सबको बहुत बड़ा काम करना है। मैं तुम्हारे साहस को देख चुकी हूँ।
हमारे कुछ बच्चे बाहर गए थे। मुझे अंदर से वेदना हुई कि इन बच्चों को ऐसा लगा होगा कि हमने गुरुजी के अंतिम दर्शन भी नहीं किए। बेटे, जो बच्चे यहाँ नहीं थे, उनकी वेदना को मैं जानती हूँ, क्योंकि मैं वेदना से ग्रसित हूँ। इसलिए तुम्हारा दर्द समझती हूँ, लेकिन तुमने जो कार्य किया, उस कार्य में ही गुरुजी के दर्शन थे और गुरुजी हजार आँखों से, लाख आँखों से तुम्हें सराह रहे थे और आशीर्वाद दे रहे थे कि हमारे बच्चे कितने साहसी हैं।
ऐसी विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने मनोबल बनाए रखा। बेटे, हमें अपना मनोबल बनाना है एवं दूसरों को उठाना है। कहीं भी,कभी भी, किसी का चिंतन न बिगड़े। हमें अपने क्या पूछना है? आपस में राजी-खुशी पूछो। हम परिवार के लोग ही एक-दूसरे के दुःख-दर्द में काम न आएँगे, तो और कौन आएगा? मैं तो यहाँ बैठी रहती हूँ। अपने दुःख-दर्द बताने के लिए कोई आएगा, तभी तो मुझे मालूम पड़ेगा। मैं तुम्हारी माँ हूँ। कोई दुःख कष्ट हो तो फौरन मेरे पास आना, तुम्हारे कष्ट का निवारण होगा। अगर आपस में हो सकता हो, तो आपस में करना। सबसे मिलना-जुलना और सबके दुःख-कष्ट में शामिल होना, सहायता करना।
बेटे, लेकिन एक कार्य में कभी भी शामिल मत होना। वोह कौन सा कार्य है ? चुगली वला कार्य, इससे हमें बहुत ज्यादा नफरत है। गुरुजी कभी भी किसी की भी चुगली वाली बात तो सुनते ही नहीं थे। कभी किसी का पत्र आता था और मैं कहती थी साहब, यह पत्र आया है,आपको मैं यह पत्र सुना दूँ क्या? तो वोह कहते क्या है इस पत्र में ? उन्होंने पत्र उठाया और रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। उन्होंने उस पत्र को कभी महत्व नहीं दिया, चाहे किसी कार्यकर्त्ता ने दिया हो, चाहे बाहर की शाखाओं की कोई ऐसी शिकायत हो, जो आपस में प्रतिद्वंद्विता की हो, एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाली बात हो।
हम कहते हैं कि कार्य के लिए तो कंपटीशन होना चाहिए, लेकिन किसी को नीचे दिखाने का, नकारात्मक कंपटीशन नहीं होना चाहिए। आलस्य और प्रमाद का कंपटीशन नहीं बल्कि काम करने का कंपटीशन होना चाहिए।
गुरुजी कहते थे कि आठ घंटे नौकर काम करता है, स्वयंसेवक बारह घंटे काम करता है और मालिक सोलह घंटे काम करता है। यहाँ पर हमारे जितने भी बच्चे बैठे हैं, मालिक हैं। सभी एक जैसे मालिक हैं , यहाँ सीनियर-जूनियर का कोई चक्कर नहीं है। इतना तो है कि जो भाई पहले आए हैं, उनका अनुभव अधिक है।अनुभव के आधार पर,हमें काम तो उनसे ही कराना है। हम सभी को थोड़े ही हम बुलाएँगे। हमने एक यूनिट/टीम बना रखी है, वह संचालन करेगी, आप लोगों को हमारी भावनाओं से वही जोड़ेगी। हमारा कोई भी बच्चा गरीब हो, अमीर हो, छोटा हो, बड़ा हो, सब एक जैसे हैं। माँ के लिए बच्चा चाहे प्रोफेसर हो और चाहे रिक्शा चलाता हो, दोनों के लिए माँ की ममता एक सी होती है। माँ ऐसी नहीं होती कि उसका दुलार किसी एक के लिए विशेष होता हो और किसी के लिए नहीं होता हो, फिर वह माँ ही कैसी है? यह भी बात ठीक है कि जो बच्चे नज़दीक रहते हैं,आते रहते हैं, माता-पिता को बार-बार बुलाते रहते हैं, वोह अवश्य ही नज़दीक होते होंगें लेकिन दूसरों के लिए भी प्यार कम नहीं होता। अब एक-एक करके 500 बेटे/बेटिओं को कहाँ तक बुलाएँगे, हमें और कार्य भी तो देखने हैं। जो कोई जिससे संबंधित होगा,उसी से तो वोह कार्य कराएँगे।
अपनी कमियाँ निकालें , पूर्ण बनें
बेटे, अब तक मान लिया तुममें कुछ कमज़ोरियाँ थीं, लेकिन अब आगे आने वाले समय में नहीं होनी चाहिए । आगे आपको बहुत जिम्मेदारियाँ सँभालनी हैं। ऐसी जिम्मेदारियाँ सँभालनी है कि बेटे क्या कहूँ? सभी बच्चे अपना पुरुषार्थ दिखाएँ। कार्य की दृष्टि से भी, भावनाओं की दृष्टि से भी कि बस आनंद आ जाए। बेटे, गुरुजी एक-एक दिन में तीन-तीन, चार-चार लेख लिखते थे फिर भी उन्हें कभी कुछ होता नहीं था। एक बार उनके पाँव में चोट लग गई। हुआ यूं कि टट्टर में बंदर आ गए। गाँवों में अक्सर बांस और लकड़ी के Structure बनाने का रिवाज़ होता है, उन्हें ही टट्टर कहते हैं। बंदरों को भगाने के चक्कर में गुरूजी का पैर टट्टर में फँस गया और चोट आ गयी। पैर सूज गया, थोड़ा पक भी गया और टेंपरेचर भी होने लगा। मैं आपको बताती हूँ कि हमारे यहाँ मूँज की चारपाई थी। उस चारपाई में गुरुदेव के लगातार बैठे रहने से गड्ढा सा हो गया था क्योंकि गुरूजी लगातार बैठे-बैठे इतना लेखन करते थे कि मैं हैरान रह गई। मैंने कहा, जब कष्ट में इतना अधिक लिख सकते हो तो बगैर कष्ट में कितना लिखेंगे। गुरूजी इतना कार्य करते थे कि अपने सारे शरीर को भुला देते थे।
बेटे, तुम सब उनके ही शिष्य हो, उनके ही बालक हो, हमारे बालक हो, तो तुम्हें भी अपने अंदर वही चेतना जाग्रत् करनी पड़ेगी। ऐसा करने से ही गुरुजी का अनवरत आशीर्वाद मिलता रहेगा। बेटे, हमारी ममता भी मिलती रहेगा, लेकिन यदि गड़बड़ी फैलाएंगे तो हमें नाराजगी भी होगी। कटुभाषा से नाराजगी नहीं होगी, तो और क्या होगा? अपनी जुबान पर ज़रा शहद लगाइए। जब आते हैं, अपना अहंकार दिखाते आते हैं, सबसे बाँस-पना दिखाते हैं। कोई बाँस-पना नहीं दिखाएगा यहाँ। यहाँ तो नम्रता चाहिए। नम्रता बहुत बड़ी चीज है। गुरुजी के अंदर नम्रता थी और इस सीमा तक थी कि यह हाथ तुम्हारे सब के बरतन धोते-धोते, माँजते-माँजते हमें बीसियों साल बीत गए। हमारे पुराने परिजनों को मालूम है कि किस तरह हम बच्चों की सेवा करते थे। तभी यहाँ तक का इतना लंबा सफर तय करके आए हैं। तुम्हें क्या मालूम है? गुरुजी परिजनों को अपने साथ ले जाया करते थे। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहते, चल बेटा, यमुना जी में वहाँ बैठेंगे। वे कंधे पर तौलिया डाले रहते थे, सो अपनी तौलिया बिछा देते और उसी पर उसको बिठाते थे। यह है आत्मीयता, यह है घुलना-मिलना। हम कहते हैं बेटे, गुरुजी को सुनो। जो कोई भी गुरुजी को सुनेगा, वह नम्र होगा। वह सब में घुलता हुआ, मिलता हुआ चला जाएगा। यही है विलय ,यही है Merging, जिन्होंने अभी तक नहीं किया, उनको यह अनुकरण करना चाहिए, जिन्होंने किया है, उनकी सराहना है, उनके लिए ढेरों आशीर्वाद हैं ।
********************
24 आहुति संकल्प के परिणाम लेख के आरम्भ में लिख चुके हैं। सभी का धन्यवाद्, बधाई एवं शुभकामना।