वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के 2 सप्ताह बाद वंदनीय माताजी का “मातृवाणी” शीर्षक केअंतर्गत सन्देश का प्रथम पार्ट 

13 अगस्त 2024 का ज्ञानप्रसाद-अखंड ज्योति, अगस्त 2002 

परमपूज्य गुरुदेव ने स्वेच्छा से 2 जून 1990 को गायत्री जयंती एवं गंगा दशहरा अपनी स्थूल काया का त्याग किया। महाप्रयाण के बाद शपथ समारोह, श्रद्धांजलि समरोह जैसे विशाल भव्य आयोजन तो हुए ही लेकिन माँ की अंतरात्मा शांत कैसे बैठती जब तक गुरुदेव का सन्देश उनके बच्चों तक न पंहुच जाता। इसी को सार्थक करने के लिए वंदनीय माता जी ने 2 सप्ताह बाद ही, 16 जून 1990 को अपने बच्चों को सम्बोधन किया। “मातृवाणी” यानि  माँ की वाणी शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किये जाने वाले सम्बोधन का आज प्रथम पार्ट प्रस्तुत किया गया है। 

इस सम्बोधन में वंदनीय माताजी अनेकों शिक्षाप्रद बातें  बता रही हैं जिनमें से दो   हमने हाईलाइट की हैं। माताजी बता रही हैं कि यदि समर्पण सही है,बनावटीपन नहीं है तो फिर आपको सहयोग मिलना ही चाहिए, जनश्रद्धा मिलनी चाहिए, मदद मिलनी ही चाहिए। दूसरी बात अनुभूति से सम्बंधित है जिसके लिए माताजी कह रही हैं कि आप में से  किसी के अंदर भी “अनुभूति” जैसी कोई बात हो तो उसे निकाल फेंकना।अगर किसी को भी अनुभूति होती है वह कहने की नहीं होती, वह संवेदना की होती है, उसकी भावना होती है । 

इन्हीं शब्दों के साथ आज से बिल्कुल नवीन लेखों की ज्ञानश्रृंखला का शुभारम्भ करते हैं और गुरुचरणों में समर्पित होते हैं। OGGP के ज्ञानयज्ञ की  यज्ञशालाओं  से उठ रहे सुगंधित धूम्र से समस्त विश्व यज्ञमय हो जाए, यही हमारी कामना है।     

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ:
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

मिशन के लिए आपका क्या योगदान होना चाहिए ?

बच्चो, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह मिशन किस तेजी से बढ़ता हुआ चला जा रहा है। उसमें आप लोगों का क्या योगदान होना चाहिए? आप लोगों का जो योगदान होना चाहिए, वह है हिम्मत और साहस का योगदान। बुज़दिली एवं रोने,चिल्लाने से कुछ नहीं बनने वाला । भावना और भावुकता में बहुत बड़ा अंतर होता है। भावुकता हमें बुज़दिली सिखाती है, भावुकता हमें कायरता सिखाती है और भावना? भावना हमें यह सिखाती है कि अपने इष्ट के प्रति हमारा समर्पण कैसा है। समर्पित होने के लिए, समर्पण के लिए हमें क्या करना चाहिए। 

बेटे, आपको याद होगा कि जब आप अपने घरों को छोड़कर आए थे तो आपकी क्या भावनाएँ थीं? यही थीं न कि हम यहाँ गुरुजी के लिए आए हैं, गुरुजी के कार्य के लिए आए हैं। हम यहाँ  मिशन के लिए, समाज-सेवा के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए आये हैं। आपने संकल्प लिया था कि हम आजीवन यह कार्य करते चले जाएँगे। यही था न, आपका संकल्प ?

बेटे, मैं आपको एक और बात स्मरण करा रही हूँ कि उस समय आपकी जो भावनाएँ थीं, वही विद्यमान रहनी चाहिए। जब हम गुरुदेव में मिल गए और गुरुदेव हममें मिल गए, यानि दोनों एकाकार हो गए, एक दूसरे में Merge हो गए, तो अब अलग कहाँ रहे हैं।  Merging यानि विलय की इस प्रक्रिया को क्रियान्वित करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारे अंदर समय-समय पर उठने वाले  कुसंस्कारों का नाश हो और सद्संस्कारों का उदय हो। हमारा हर एक कार्यकर्ता हनुमान जैसा, अर्जुन जैसा, एकलव्य जैसा, शिवाजी जैसा शक्तिशाली दिखाई देना चाहिए। उसका चिंतन और चरित्र दोनों ही उच्चस्तरीय होने चाहिए। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ कि जो चिंतन में होता है, वही चरित्र में होता है और जो चरित्र में होता है, वही व्यवहार में होता है। इससे थोड़ा सा आगे चलें तो देखा जा सकता है कि जो व्यवहार में होता है, अपनेआप ही उसी प्रकार का वातावरण बनता जाता है। यही कारण है कि गुरूजी ने “उच्चस्तरीय चिंतन” की बात की है। गुरुजी जिस युग निर्माण की एवं युग परिवर्तन की बात करते हैं, उच्स्तरीय चिंतन उस योजना की ही महत्वपूर्ण आवश्यकता है।     

बेटे, गुरुजी ने ऐसा ही तो किया था न। बाल्यकाल से ही उन्होंने अपने चिंतन को इस तरीके से ढाला कि उनके अंदर “एक स्वयंसेवक” की मनोवृत्ति” हमेशा से विद्यमान रही। जहाँ कहीं भी उन्होंने कार्य किया, लोग उन्हें सराहते रहे। गुरूजी जब  “सैनिक प्रेस” में जब काम करते थे, तो जो उनसे बड़े थे, वे सबसे यही कहते थे कि कहिए साहब, मैं बाज़ार  जा रहा हूँ, आपका कोई  काम है क्या? तो उन्होंने कहा, “हमारी बीबी के बच्चा होने वाला है।” तो गुरुदेव कहते,“अच्छा,दाई का प्रबंध करता हूँ और कोई बात?” हमारे पास चारपाई नहीं है। अच्छा, चारपाई का प्रबंध करते हैं। मेरा कहने का मतलब यह है कि गुरुदेव में जो “स्वयंसेवी वृत्ति” थी, वही वृत्ति सारा जीवन उनके अंदर पनपती हुई चली गयी । गुरूजी के जीवन में शुरू से ही करुणा, त्याग और संवेदना विद्यमान रही। 

बेटे, मैंने उस दिन हरिजन महिला,छपको की घटना सुनाई थी। उस महिला के घावों में कीड़े पड़ गए थे, गुरूजी ने घाव धोए और मरहम लगाई और परिवार के विरोध के बावजूद कितने ही दिन उस महिला की तीमारदारी करते रहे। गुरूजी से सम्बंधित ऐसे अनेकों संस्मरण हैं, इसीलिए हम समय-समय बताकर स्मरण कराते रहते हैं।  बेटे हम तो कहते हैं कि आप चाहो तो स्वयं को रामकृष्ण परमहंस से जोड़ लो, चाहे अन्य किसी से जोड़ लो लेकिन समर्पित होकर जुड़ना बहुत ही आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि जितने  भी ऋषि और संत-सुधारक हुए हैं,उन सबके  ह्रदय में जनमानस के लिए एक करुणा सी उठती है। जब मनुष्य के ह्रदय में करुणा आ जाती है तो वह स्वयं को भूल कर विश्वकल्याण के बारे में  सोचते हैं। ऐसी सोच आते ही ऐसे मनुष्य तिल-तिल करके स्वयं  को समर्पित करते चले जाते हैं ।श्रद्धा तो उन्हीं को मिलती है, जो स्वयं  को समर्पित कर देते हैं।  

परम वंदनीय माताजी बता रही हैं कि बनावटीपन (Showbusiness) और चापलूसी में कुछ नहीं रखा। यह तो कोरी ड्रामेबाज़ी है जो थोड़े ही दिन में सामने आ जाती है। जब उनकी चापलूसी सामने आती है तो ऐसे लोग भागते हुए ही दिखते हैं।

यदि समर्पण सही है,बनावटीपन नहीं है तो फिर आपको सहयोग मिलना ही चाहिए, जनश्रद्धा मिलनी चाहिए, मदद मिलनी ही चाहिए। आपने देखा भी है कि हमारे छोटे-छोटे बच्चे, नाचीज बच्चे जब बाहर जाते हैं तो उनका जो सत्कार होता है, वो किसका होता है? उन बच्चों का ? नहीं।  यह मानकर चलना चाहिए कि बेटे  जिसके अंदर यह अहंकार विद्यमान हो कि यह हमारा सम्मान है, हमारा पुरुषार्थ है तो सरासर गलत है। यह सम्मान उस महापुरुष का है, जिसने सारा जीवन लोकमंगल के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए लगा दिया। 

अंतिम क्षणों में भी गुरूजी ने  एक ही बात कही:

बेटे, गुरूजी की कही यह बात ऐसे ही थोड़ी पूरी हो जाएगी। हम सब ने गुरूजी के समक्ष जो संकल्प लिए हैं, ये यूं  ही पूरे हो जाएँगे क्या? नहीं यह ऐसे ही पूरे न हो पाएंगें। आजकल मुझे रात को नींद नहीं आती। सोचती हूँ कि जो संकल्प लिए गए हैं कहीं वोह अधूरे न रह जाएँ। मेरा विश्वास है कि यह  अधूरे तो रह ही नहीं सकते, क्योंकि जो रग-रग में समाया है, काम तो उन्हीं इष्टदेव का है न। काम उनका है, काया हमारी है, इसी ने संकल्प पूरे करने हैं। हमारा तो केवल शरीर ही है, बल उनका ही है। जब हमारे अंदर यह कहने की  हिम्मत आ जाएगी, साहस आ जाएगा कि देने वाला तो कोई और  है, हम तो केवल करने वाले हैं, तो फिर कोई भी काम अधूरा नहीं रहेगा। जो लोग “मैं-मैं-मैं-मैं-मैं” की बात करते रहते हैं, वोह कुछ नहीं कर पाते, केवल अपना ही राग अलापते रहते हैं, अपनी ही वाहवाही लूटते रहते हैं। 

आपको मालूम होना चाहिए कि गुरुजी ने कभी भी  “मैं” की बात नहीं की। जब कभी भी कोई उनके पास सहायता के लिए आता तो उन्होंने यही कहा होगा “बेटा, तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करेंगे, सब ठीक हो जाएगा।” आगे से प्रश्न उठता था कि सब ठीक हो जाएगा तो कहते थे, “हाँ ठीक हो जाएगा।” गुरूजी तो अपने बच्चों के कष्ट भी अपने ऊपर लेते रहे लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं करूँगा। “मैं” शब्द उन्होंने कभी नहीं कहा।

एक बार की बात है की  एक कार्यकर्ता अपने विद्यार्थी को गुरूजी के पास लाया और बोला, गुरुजी, इसको भूत आ रहा है। गुरूजी ने पूछा,“भूत, अच्छा, कैसा भूत?” विद्यार्थी सिर हिलाने लगा। गुरूजी ने कहा, “अच्छा अभी देखता हूँ तेरा भूत। 2 डंडे तेरे चेले को लगाता हूँ और 10 डंडे तुझे लगाऊं तो भूत उतर जाएगा।  पढ़ा-लिखा होकर, प्रोफेसर होकर तू ये कह रहा है कि भूत आ रहा है। इसी तरह बहुत दिनों की शुरू-शुरू की बात है। हमारे यहाँ एक लड़की थी, बोली माताजी, इस को तो भूत आ गया। यह तो वहाँ हॉस्टल में रहती थी। मैंने कहा, अभी उतारती हूँ इसका भूत। मैंने डंडा लेकर कहा, “ऐ लड़की,उठती है कि नहीं। तू चुपचाप उठ जी, नहीं तो जमाती हूँ तेरी कमर पर एक। अब वह छोरी झट से उठ बैठी। कहीं कोई  भूत नहीं  होता। यह  तो व्यापार  है, जो इसे बढ़ावा देते रहते हैं,उनका व्यापार चलता है।

अनुभूति के बारे में गुरुदेव के विचार:

बेटे, गुरुजी ने यह कभी भी यह नहीं कहा कि आज हमें यहअनुभूति हुई,आज वह हुई है । उन्होंने यह जरूर कहा कि संवेदना के रूप में हमें ऐसा प्रकाश मिलता हुआ चला जाता है कि जो हम जो भी संकल्प करते हैं, वे पूरे होते हुए चले जाते हैं। गुरूजी ने हमेशा कहा कि हमारे गुरुदेव का बल हमको मिलता हुआ चला जाता है। 

माताजी बता रही हैं कि बेटे आप में से  किसी के अंदर भी अनुभूति जैसी कोई बात हो तो उसे निकाल फेंकना। अगर किसी को भी अनुभूति होती है वह कहने की नहीं होती, वह संवेदना की होती है, उसकी भावना होती है । कल-परसों की ही बात है। मैं स्नान कर रही थी, स्नान करते समय मुझे ज़ोर से आवाज आई, “शैलो”। कोई बात होती थी तो गुरुदेव  मुझे शैलो कह करके आवाज देते थे। मैं समझ गई कि कुछ कह रहे हैं। मैं तिलमिला गई। जब मैं बाहर आई तो समझ गई कि वह क्या कहना चाहते हैं। अब भी मुझे स्वप्न में, जाग्रत् अवस्था में भी ऐसा प्रतीत होता है कि वे मेरे दायें-बायें हैं। जब कभी भी  डगमगाती हूँ तो मेरा हाथ पकड़ते हैं और कहते हैं कि चलो शैलो चलें। मैंने शपथ ली है और उन्होंने कहा है चलो, तुझे आगे बढ़ना ही है न।

शेष कल वाले लेख में : 

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कल से “संकल्प सूची” एक नए रूप में उभर का सामने आ रही  है। आज 34  साथिओं में से 18 ने  24 आहुतियां प्रदान करके संकल्प पूरा किया है, सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् एवं बहुत बहुत बधाई।

अभी कुछ दिन इस नए प्रयोग को मॉनिटर करना ही उचित होगा।  


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