वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंखला का 24वां समापन लेख

https://youtu.be/lvjNwEcYpHQ?si=rItsnnjttBx8OS5r ( गुरु तेरे कौन कौन गुण गाऊँ)
9 अगस्त 2024 शुक्रवार का ज्ञानप्रसाद-
आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज 24वां लेख प्रस्तुत है। डॉ साहिब द्वारा रचित ज्ञान के इस अथाह सागर में से डुबकी मार कर, हम अमूल्य रत्न ढूंढ कर, जाँच परख कर अपने साथिओं के साथ दैनिक गुरुकक्षा में चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। साथिओं के कमैंट्स से पता चल रहा है कि उन्हें इस श्रृंखला के सभी लेख अति रोचक एवं ज्ञानवर्धक लग रहे हैं , हों भी क्यों न,हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द कुछ ऐसा संजोए हुए है कि सचमुच अमृत ही है। जो साथी अपने अनुभव एवं ज्ञान से इस लेख शृंखला में योगदान कर रहे हैं उनके हम ह्रदय से आभारी हैं।
आज के लेख की दिव्य पक्तियां लिखते समय ह्रदय में एक ही भावना उठ रही थी कि डॉ साहिब के जीवन की प्रतक्ष्य अनुभूतियों से हम कुछ ही प्रतिशत ही अपनी अंतरात्मा में उतार लें तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। आदरणीय सुमनलता जी के कल के कमेंट की पृष्ठभूमि में लिख रहे हैं कि इस समापन लेख की शिक्षा अंतरात्मा में उतारने वाली है, अत्यंत उपदेशक है।
चिरंजीव अभिषेक जी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं जिन्होंने हमें यह दिव्य पुस्तक Doc फॉर्मेट में भेज कर हम पर उपकार किया। अवश्य ही कोई गुरुकृपा रही होगी कि इस पुस्तक ने हमें डॉ साहिब के इतना करीब ला कर खड़ा कर दिया कि हम उनके बारे में इतना कुछ जान पाए, जो इतनी बार मिलने पर भी न पाए। हम तो लेख श्रृंखला के प्रत्येक लेख को लिखते समय उन्हें साक्षात् देखते रहे, अपने मन को समझाते रहे कि यह वही डॉ शर्मा हैं जो हमें त्रिपदा-8 में अपने घर चाय पिलाने ले गए थे, हमें साथ बिठाकर यज्ञशाला में प्रतिदिन यज्ञ करा रहे थे, हॉस्पिटल में उनके कमरे में फर्श पर बैठकर हमें इंटरव्यू रेकॉर्ड करा रहे थे। डॉ साहिब आपके चरणों में सादर नमन है,हम तो सच में धन्य हो गए।
तो आइए चलें डॉ साहिब से शिक्षा ग्रहण करें।


हमारे जीवन की 40 वर्षीय साधना का निष्कर्ष:
डॉ. साहब एवं श्रद्धेया बहिन जी का आदेश प्राप्त करते, ठीक वैसी ही अनुभूति होती है, जैसे परम पूज्य पिताजी एवं वन्दनीया माताजी के साथ होती थी। चाहे वह आदेश व्यवस्था, प्रचार-प्रसार, जन-सम्पर्क, साधनात्मक, सुधारात्मक, रचनात्मक, निर्माणात्मक एवं शासन सम्बन्धित कार्य हो, अपनी मनोभूमि सकारात्मक रखने पर बहुत ही आसानी से सब कार्य स्वयं ही पूर्ण हो जाते हैं। हम अपनेआप को धन्य समझने लगते हैं कि इस “स्वयंसेवक” को भी गुरुकार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। पूज्य गुरुदेव जी ने कहा है:
बेटा! हमारे प्रत्येक परिजन को परिवार के सदस्य के रूप में स्वयं को अनुभव करना चाहिए और अपने घर की तरह स्वयं ही कार्य में जुट जाना चाहिए तथा मुझे साक्षी मानकर उस कार्य को पूर्ण करना चाहिए। शेष समय में अपनी गुणवत्ता का विकास करना चाहिए ।”
डॉ साहिब बताते हैं:हमारा स्वयं का अभी तक लगभग 40 वर्ष का अनुभव है। “अपने अंग-अवयवों” में गुरुदेव अपनी लेखनी के माध्यम से लिखते है:
इस बात की चिंता आप न करें कि कार्य कैसे पूरा होगा, इतने साधन कहाँ से आयँगे, क्योंकि जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटाएगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम एवं समर्पण करने में एक-दूसरे में अग्रणी कौन रहा।”
इसका आभास एवं अनुभव हमें प्रतक्ष्य रूप में 1981 से 1993 में प्राप्त पत्रों के द्वारा हुआ। शान्तिकुञ्ज, आँवलखेड़ा, मथुरा के कार्यों के लिए दिये गये गुरुदेव के आदेश और बाद में श्रद्धेय डॉ. साहब एवं श्रद्धेया बहन जी द्वारा प्रदान की गयी शक्ति, प्रेरणा और प्रभाव से सब कुछ स्वयं ही पूरा होता चला गया। हमने तो प्राप्त की हुई समस्त सफलता सविता रूपी परम पूज्य गुरुदेव जी एवं परम वन्दनीया माताजी को समर्पित कर दी। सन्तोष, प्रसन्नता, सम्मान और आनन्द अनायास ही प्राप्त होता चला गया है और भविष्य में होता रहेगा ।
परम पूज्य गुरुदेव जी पूर्ण विलय (Complete merge) पर बोले:
अपनी इच्छा, भावना सब भगवान् को समर्पित करके, मानव भगवान् जैसा ही महान् होता चला जाता है। यही भक्ति है, जप जरूरी तो है लेकिन सब कुछ नहीं है। जैसे लता पेड़ से चिपककर, पेड़ के साथ ऊपर ही ऊपर चलती जाती है, जैसे नाला नदी में मिलकर नदी बन जाता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य स्वयं को भगवान के साथ चिपका ले, सब कुछ भगवान् को समर्पित कर दे तो कुछ भी असंभव नहीं है। भगवान् हमेशा आत्मा के माध्यम से बोलते हैं क्योंकि आत्मा ही उनका निवास स्थान है। आत्मा की आवाज को सुनने के लिए, अनवरत साधना एवं संयम के अभ्यास से, कषाय- कल्मषों (आत्मा को दुःख देने वाले दुर्गण) को धोना पड़ता है। जब अंतकरण में साक्षात् परब्रह्म बैठे हों, जो अधिक कारगर “परा एवं पश्यन्ती वाणी” से बोलते हैं तो मनुष्य भगवान् के समीप आ जाता है क्योंकि उसे भगवान् के दिव्य संकेत अनुभव होते हैं। पाइप के जरिए जब पानी की टंकी से नल जुड़ जाता है तो पानी उस समय तक आता रहता है जब तक नल की टूटी खुली है। मनुष्य को भी चाहिए कि भगवान् रुपी टंकी से अन्तःकरण रुपी पाइप को जोड़ दे जाये। भगवान् और मनुष्य का विलय बिल्कुल नल और टंकी के पानी जैसा होगा।
हमारी अनुभूति :
प्रातः 4:00 बजे से पूज्य गुरुदेव गायत्री नगर के आत्मलोकन के लिए निकले, हम पर कृपा करते हुए हमको अपने साथ ले गये। आते समय गुरुजी का आशीर्वाद मिला।
“सन्ध्या के समय विचार आया:
“अपनी इच्छा मत रखो, भगवान् पर छोड़ दो । जो हम चाहें, जो सामयिक उचित होगा,वहीं कराएँगे। तुमको तो आत्मा एवं परमात्मा दर्शन का आभास हो ही गया है, उसका मानसिक अभ्यास करना । इसलिए सब कुछ भगवान् पर छोड़कर कर्म किये जाओ, भविष्य की एवं फल की चिन्ता मत करो। कर्म करो एवं प्रसन्न रहो ।”
ये विचार आते ही आत्मा आनन्द से भर गयी, इच्छाओं का पर्दा हटते ही मुक्त आत्मा का आनन्द आने लगा, शरीर हलका एवं प्रफुल्ल्ति हो गया । प्रात: 3.00 बजे उपासना में बैठ गये । अखण्ड दीपक में पूज्य गुरुदेव जी एवं वन्दनीया माताजी के ध्यान के साथ जप करते समय विचार उठा कि मनुष्य माता-पिता पर विश्वास करके चलता है कि वे जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। उन्हीं के आदेश के साथ-साथ चलने में खुशी और निश्चिन्तता का अनुभव करता है । हाय रे मनुष्य,भगवान् जो विश्व का माता पिता है, क्या उपर्युक्त साधारण व्यक्तियों से कम है ? तुम अपनी इच्छा क्यों रखते हो ? वह जो चाहे कराये, उसी के अनुसार कार्य करो, वे हमेशा आत्मा में बोलते रहते हैं।
इच्छा तो मन में पैदा होती है कि हम ये करें, वो करें। जब मन चञ्चल होता है, तब आत्मा की आवाज सुनने नहीं देता जिससे उसका फल आसक्ति,आत्मिक बोझ के रूप में प्राप्त होता है। जब अपनी इच्छा न रखकर परमपिता परमात्मा की इच्छा से कार्य करते हैं, तो आत्मा प्रसन्नचित्त, हलकी एवं उत्साह का अनुभव करती रहती है। मन की इच्छा एवं परमात्मा की इच्छा में यही अन्तर है । बीच-बीच में यह भावना आकर आनन्द का अनुभव कराती रही । धन्य हो प्रभो, आपने अपने चरणों में रख लिया, युगों-युगों तक आप की ही आज्ञा पर चलना है तथा आप की ही इच्छा पर कार्य करना है ।
इच्छा न होने का तात्पर्य है:
मन की अपनी आवाज को समाप्त किया जाये तथा आत्मा के पीछे-पीछे चलें तभी परम शान्ति, आनन्द एवं विलय की स्थिति आती है। आत्मा का हितैषी प्रज्ञा-ऋतम्भरा है। जब बुद्धिहीन मन अपनी बात पहले रख कर,अन्तरात्मा के ऊपर हावी होने लगता है, तब आन्तरिक अशान्तमय वातावरण पैदा हो जाता है । उलटे कार्य का यही परिणाम है।
तीन तरीके की आत्म प्रेरणाएँ एवं आन्तरिक आदेश की दिव्य अनुभूतियाँ परा – पश्यन्ती वाणी द्वारा साधकों को प्राप्त होती हैं :
साधनात्मक पात्रता का विकास, भगवान् के गुणों को धारण करना एवं उसके अनुरूप और अनुकूल होने का प्रयास करना ।
सेवा सम्बन्धी परमार्थ तभी सम्भव है, जब भगवान् का दिया हुआ समय, साधन, धन, प्रतिभा, कुशलता, प्रभाव, ज्ञान एवं श्रम भगवान् के निर्देशन में, उसी की योजना में अनुशासित होकर, अधिक से अधिक विवेकपूर्वक समर्पित होता रहे ।
कर्त्तव्यपालन सम्बन्धी: अ) व्यक्तिगत ( शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा) आ) परिवार, समाज, माता-पिता, ऋषि, देवताओं के प्रति, देव संस्कृति की आश्रम व्यवस्था अर्थात् जीवनक्रम का विभाजन । ऋषि कहते हैं कि आश्रम व्यवस्था के पालन से व्यक्ति सुखी एवं समाज समुन्नत बनता है ।
साधकों को यह वरदान अनायास ही प्राप्त होता है। हम दोनों भी इससे वंचित नहीं हैं। यही सविता रूपी वन्दनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव जी द्वारा दिया गया दिव्य भावनाओं का आत्मसम्पदा के रूप में प्राप्त “आध्यात्मिक अनुदान” है।
दिसम्बर 1980 में जब से दिव्य दर्शन हुआ तो हम दोनों के सौभाग्य का उदय हो गया। परम पूज्य गुरुदेव जी का आदेश लगभग 10 वर्षों ( 1990 में गुरुदेव के महाप्रयाण तक) तक तथा परम वन्दनीय माताजी का लगभग 14 वर्षों (1994 में माता जी के महाप्रयाण तक) तक प्रतक्ष्य सानिध्य प्राप्त होता रहा । किसी कार्य को करने की आज्ञा मिलने पर अन्दर से भारी प्रसन्नता एवं शक्ति संचार का आभास होने लगता तथा उत्साह के साथ कदम आगे बढ़ने पर सभी का सहयोग मिलता जाता है, कार्य पूरा हो जाता है जिसकी परिणति आत्मसन्तोष, लोकसम्मान एवं दैवी अनुग्रह के रूप में होती है। पूर्ण अनुशासित, प्रामाणिक, दूसरों के भले के लिए निस्वार्थ भाव से, तन्मयता, पवित्रता एवं आत्मीयता के साथ इष्ट का सन्देश सुनाने से ही पुण्य एवं परमार्थ के फल की प्राप्ति होती है।
यही है सभी साधकों को गुरुरूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया अनुदान ।
1983 में जब हम पूज्य गुरुदेव जी के दर्शन करने गये, नमन-वन्दन करने के बाद कृपा कर गुरुदेव जी ने कहा:
“बेटा हमने चादर का रंग बदल दिया है (तख़्त पर गेरुआ चादर बिछी थी)अब हम सन्यास आश्रम में चले गये हैं ।”
हमने कहा कि पिताजी आप तो प्रारम्भ से ही सन्यास में हैं। देवसंस्कृति पुरुष द्वारा दी गयी अपने बच्चों को यही प्रेरणा एवं मार्गदर्शन है। वे साक्षात् अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही शिक्षण देते हैं।
उस समय परम पूज्य आचार्य जी के शरीर का 72वाँ वर्ष पूरा हुआ था। यह संकेत हमारी अन्तरात्मा में बैठ गया । सविता रूपी परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के परोक्ष सतत् मार्गदर्शन और श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी एवं श्रद्धेया शैल बहन जी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन व स्नेह से गायत्री जयन्ती 20 जून 2021 (जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई है), 78 वर्ष की आयु तक, अनुशासित स्वयंसेवक की वृत्ति बनी हुई है, और आगे भविष्य में भी हम दोनों की यह वृत्ति सदैव के लिए बनी रहेगी।
इस लेख के साथ डॉ साहिब की पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख श्रृंखला का समापन होता है।
जय गुरुदेव


आज की संकल्प साधना में निम्नलिखित 14 साथी सफल हुए हैं।
रेणु श्रीवास्तव,सुजाता उपाध्याय, सुमनलता, संध्या कुमार,चंद्रेश बहादुर, नीरा त्रिखा,अरुण वर्मा,पूजा सिंह,मंजू मिश्रा,राधा त्रिखा,अनिल मिश्रा,विदुषी बंता,सरविन्द पाल,पुष्पा सिंह
सभी को हमारी बधाई एवं सहयोग के लिए धन्यवाद्


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