वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

डॉ ओ पी शर्मा जी  द्वारा लिखित पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंखला का 20वां लेख  

https://youtu.be/BhwOproElxU?si=99vCzeNCSidwAa_v (माह का प्रथम सोमवार भगवान्  शिव को समर्पित )

5  अगस्त 2024 सोमवार  का ज्ञानप्रसाद

आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज 20वां  लेख प्रस्तुत है। डॉ साहिब द्वारा रचित ज्ञान के इस अथाह सागर में से डुबकी मार कर, हम अमूल्य रत्न ढूंढ कर, जाँच परख कर अपने साथिओं के साथ दैनिक गुरुकक्षा में चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। साथिओं के कमैंट्स से पता चल रहा है कि उन्हें इस श्रृंखला के सभी लेख अति रोचक एवं ज्ञानवर्धक लग रहे हैं , हों  भी क्यों न,हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द कुछ ऐसा संजोए  हुए है कि सचमुच अमृत ही है।

आज के लेख में डॉ साहिब तन्द्रा अवस्था (नींद जैसी अवस्था) में ऐसी अनुभूति बता रहे हैं जिसे हम सबको समझना चाहिए। हो सकता है पाठकों को भी ऐसी अवस्था का कभी-कभार अनुभव हुआ हो और समझ ही नहीं आया हो कि हुआ क्या है। आज का लेख ऐसी स्थिति को समझने में सहायक हो सकता है। 

आज के लेख का वाक्य “किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के बजाए, केवल स्वयं को प्रसन्न करने की ही कोशिश करना” एवं इस वाक्य को आत्मा (यानि मनुष्य) और गुरु(यानि परमात्मा) से जोड़कर का ज्ञान देना अपनेआप में बहुत ही उच्चकोटि का (लेकिन बेसिक) ज्ञान है।

इस बेसिक ज्ञान के सम्बन्ध में हमारे छोटे बेटे से सम्बंधित एक वार्तालाप मस्तिष्क में उठ आया,सोचा गुरुकक्षा में शेयर कर लें : 

बी आर चोपड़ा साहिब का बहुचर्चित सीरियल “महाभारत”  के समय हमारा  छोटा बेटा बड़ी मुश्किल से 2 वर्ष का होगा, हमारे पास ब्लैक एंड वाइट शटर वाला टीवी ही था। टाइटल म्यूजिक “महाभारत…..महाभारत….” बजते ही भाग कर  अपनी छोटी सी कुर्सी लेकर टीवी के बिलकुल आगे बैठ जाता। उसने लगभग सभी 94 एपिसोड बिना कोई प्रश्न किए, बड़े ही ध्यान से देखे। 

इस समय उसकी आयु 37 वर्ष की है। एक दिन भगवान द्वारा दिखाये गए विराट रूप पर प्रश्न करने लगा कि भगवान् कृष्ण कर्म/ समय बलवान आदि की थ्योरी के इलावा कह रहे हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूँ ,मैं धर्म की स्थपना करने आता हूँ, मैं ही आदि हूँ, मैं ही अंत हूँ, तो अन्य धर्मों के अनुयायी क्या  कहेंगें? हम दोनों ने अपने अल्प ज्ञान के अनुसार बेटे को जैसे भी समझाने की चेष्टा की, यहाँ उसका विस्तृत विवरण देना तो उचित नहीं है, हाँ इतना अवश्य है कि उसके मन में बैठी गलत धारणा का समाधान उसे मिल गया। 

हमने आज के लेख की भूमिका में यह  विवरण इसलिए लिखा है कि कहीं हमारे साथी/सहयोगी भी गुरुदेव के निम्नलिखित शब्दों को पढ़कर 

“हमारी ही आवाज पर हमारे लिए, परमात्मा के लिए (जिसने सारी दुनिया को बनाया है) सदा कार्यरत रहना।” 

ऐसी ही धारणा न बना लें कि वोह स्वयं को परमात्मा साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। दरवेश जैसे सरल लेकिन उच्चकोटि के गुरु के चरणों में नतमस्तक होकर, आदरणीय शर्मा जी की इस दिव्य पुस्तक से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं का मार्गदर्शन होना अवश्य ही परम सौभाग्य है। 

तो आइए सौभाग्य से परिपूर्ण आज की इस गुरुकक्षा का शुभारम्भ करें। 

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तन्द्रा अवस्था में प्रवचन का श्रवण:

14 सितम्बर 1987 की बात है, हम तन्द्रा अवस्था में पूज्यवर पिताजी का प्रवचन सुनते रहे । पिताजी ने खूब उदाहरण देकर 6:15  बजे तक समझाया। हमने संकल्प लिया कि जो कुछ प्रवचन में बताया गया है,कल से वैसा ही जीवन जियेंगे।

प्रवचन की मुख्य शिक्षा:

कभी भी किसी को प्रसन्न करने की कोशिश मत करनी है । केवल स्वयं को, अपनी आत्मा को,हमें बनाने वाले को ही प्रसन्न करना है। अपनी शारीरिक एवं मानसिक उन्नति के लिए नित्य स्वाध्याय करते रहना है । मन को फिज़ूल के  विकारों से हर क्षण दूर रखने का प्रयास करते रहना है।  आत्मिक उन्नति के लिए सदैव सविता का एवं गुरुदेव का ध्यान करते रहना है। गुरुदेव का ध्यान सविता में करना है। 

गुरुदेव ने बताया कि तुम्हारी आत्मा में हम बोलते रहेंगे। मन शान्त रखना तथा मन के  दुश्मनों को दूर रखना। हमारी ही आवाज पर हमारे लिए, परमात्मा के लिए (जिसने सारी दुनिया को बनाया है) सदा कार्यरत रहना। 

सही मायनों में करना क्या है ?

गुरुदेव कह रहे थे: बस हमारे ही गुणों को धारण करना । दृढ़ संकल्प, धैर्य, श्रद्धा के साथ हमारे विचारों को पूरी तरह  क्रियान्वित करना और हमारा  सन्देश घर-घर पहुँचाते रहना। 

परम पूज्य पिताजी परमात्मा के विराट् स्वरूप का दर्शन एवं अनुभूति – एक आश्चर्य !

गुरुदेव कष्ट दूर करने वाले, सुख-शांति प्रदान करने वाले महान् परमात्मसत्ता हैं। आदर्श और सिद्धान्तों पर चलने वाले, एक से अनेक बनाने वाले, दुष्टों को रुलाने वाले और नष्ट करने वाले अविनाशी हम  हैं। बस, इन्हीं गुणों को अपने अन्दर धारण करना।आत्मा से हम मानसिक दुश्मनों को भगा देंगे। जो हम कहेंगे उन आदर्शों पर चलोगे, सुनोगे तभी मन एकाग्र रहेगा। अभी-अभी तुमने देखा, हमारा  बाहरी रूप क्या है। हम सब कुछ स्पष्ट देख रहे हैं, सुन रहे हैं। मैं  सूक्ष्म रूप में व्याप्त हूँ, मैं सब देख रहा हूँ, मैं बाहर नहीं अन्दर देखता हूँ। बाहर तो केवल  माया है, अन्दर सूक्ष्म शाश्वत रहने वाला अमर-तत्व  है। हम सविता के गुणों के रूप में मनुष्य के अंतर्मन में व्याप्त हैं जो तुमने स्पष्ट तन्द्रा में देखा।  इसलिए कहते हैं, हमेशा इसी रूप का ध्यान करना जिसमें आत्मा और परमात्मा दोनों हैं । यही अमर-तत्व है जो कभी नष्ट नहीं होता । इन गुणों को धारण करना ही  हमारे गुणों को धारण करना है। यही पात्रता का विकास है। इसी को अनुरूपता और अनुकूलता कहते हैं। तुमने सोते समय हमारी शक्ल नहीं देखी; लेकिन आज सब बात हो गयी, बस हम इसी सविता रूप में हैं। वही अमर है, उसी का ध्यान करके देखना चाहिए तथा जो देख चुके हो बस वही मैं हूँ । शरीर दिखाई जरूर पड़ता है, मैं शरीर नहीं हूँ ।

मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब सन्तान । 

एक ही पिताजी ने सबको पैदा किया है,जब बच्चा(आत्मा),पिता (परमात्मा) के गुणों को धारण कर लेता है तो पिता प्रसन्न हो जाता है। जब आत्मा और परमात्मा दोनों  प्रसन्न हो जाते हैं, तब सभी प्रसन्न हो जाते हैं । 

इसलिए किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के बजाए, केवल स्वयं को प्रसन्न करने की ही कोशिश करना। धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात केवल धर्म का पालन करना। महाभारत में यह श्लोक बार-बार दोहराया गया है। धर्म का अर्थ अलग-अलग Religion न होकर “नैतिक मूल्य” हैं। समय-समय पर लोगों ने अज्ञानता के वशीभूत धर्म को स्वयं के लाभ के लिए तोड़ा-मरोड़ा जिससे नैतिकता, मानवीय मूल्य लुप्त होते गए। 

उस दिन हम लालबाग ऑफिसर कॉलोनी, लखनऊ स्थित  आवास से अस्पताल जा रहे थे । अंतर्मन में प्रातः का दिव्य दर्शन चल रहा था। मन पत्थर जैसा शान्त था, विवेक शान्त था, अंतर्मन में बैठी आत्मा, परमात्मा की सूक्ष्मसत्ता का दर्शन कर रही थी। रिक्शे में चले जा रहे थे। दूसरों की निगाह में आँखें देख रही हैं लेकिन आँखों ने बाहर कुछ नहीं देखा। प्राणों के प्राण, महाप्राण (परमात्मा) की दिव्य सत्ता की आत्मा अपनी आत्मा से देखकर परम आनन्द, परम शान्ति अनुभव कर रही थी। 

आत्मा में आवाज आयी: अखण्ड ज्योति में मैंने जो  लिखा था, कि बहुत गोता लगाकर मैंने कई जन्मों के संस्कारवान् आत्माओं को खोजा है और जोड़ा है। उस समय यह पढ़ते हुए तुम्हारे मन में शंका हुई थी? हम सब देखते हैं।आज हमने  तन्द्रा में सविता का दिव्य दर्शन देकर दिखा दिया है कि किस तरीके से हमने अन्य आत्माओं को ढूँढ़ा और झकझोर कर बुलाया है। आज मैंने तुम्हारी शंका का समाधान कर दिया। 

आत्मा में आवाज आयी:मानसिक विकास का तात्पर्य है मन को गन्दे विचारों एवं भावनाओं से सतत, हर क्षण बचाए रखने का प्रयास करना। गन्दे विचारों को, पवित्र विचारों से काटते रहना। गन्दी भावनाओं को हटाना ही मन की शुद्धता एवं पवित्रता का विकास है। आन्तरिक अवास्तविक दुश्मनों को हर क्षण दूर भगाया जाये, जो मन को कमजोर करने के साथ-साथ बुद्धि को भी भ्रमित करते रहते हैं। यही अवास्तविक दुश्मन,आत्मा पर राख इकट्ठा करके,मन को अशान्त और परेशान करते रहते हैं।  मन रुपी इस  सेनापति को हर क्षण सदविवेक  से पवित्र रखने की आवश्यकता है। इसलिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन व मनन अर्थात् मानसिक विकास का हर क्षण प्रयास होगा। 

यह आदेश तो हम देते ही रहेंगे। जहाँ चाहेंगे और जो चाहेंगे, वह करायेंगे ।

क्या करना है? केवल आदेश की प्रतीक्षा करना और तत्काल चल पड़ना । सब मेरा है, तुम केवल वरिष्ठ आज्ञाकारी पुत्र की तरह, पिता की नई सृष्टि के माली, चौकीदार के रूप में कार्य कर रहे हो। मॉडल तो मैं ही हूँ । बस ज्ञानयोग व कर्मयोग पर पूर्ण समर्पित भाव से चलते रहना। कार्य तो हम करवाते ही रहेंगे।

प्रातः 8:00 बजे परम वन्दनीया माताजी का दर्शन हुआ। कार्य करने का आदेश दिया। प्रातः 8:30 बजे परमपिता परमात्मा का दर्शन,अमृत वचन,अनुभूति और अभिव्यक्ति हेतु ऊपर गये । पिताजी ने कहा, “आइए डॉक्टर साहब ! बहुत अच्छा हुआ, आप आ गये । हमें बहुत प्रसन्नता होती है, कितने दिन बाद आ रहे हो ?” हमने कहा 22 दिन बाद। पिताजी ने कहा, “आते रहा करो। दोनों आत्मा एक हो जाएँ । दीपक, घृत लेकर जलता रहता है। धृत न रहे तो दीपक जल नहीं  सकता। हम दोनों के शरीर तो दो हैं लेकिन अब धृत-बाती की तरह  दोनों मिलकर काम करेंगे। तुम्हारे आने से हमें बल मिल जाता है। हमने कहा: हमारी आत्मा सराहती है कि भगवान् का दर्शन आँखों से भी कर लेते हैं।  

यह आपकी परमकृपा का फल “आत्मकल्याण” ही है ।

दोपहर 1:20 बजे वन्दनीया माताजी ने बुलाया,पूरी बात हुई।माता जी ने गुरुदेव वाली  बात ही  दोहराई: बेटे मैं कहना नहीं चाहती थी, बातों-बातों में निकल गयी। तुम्हारा-हमारा सम्बन्ध कई जन्मों से है। कार्य करते जाओ। हमने माताजी से कहा:  हम एक ही चीज चाहते हैं, ध्यान में आपको तथा परमपिता को हमेशा मन में देखते रहे, उन्हीं के आदेशों का पालन करते रहें । सब कार्य अच्छे तरीके से होता जायेगा।

कृतज्ञता की अनुभूति:

प्रातः 2:20 बजे जब स्नान के लिए नीचे गये, तो मनः संस्थान में विचार उठने लगा “गुरुदेव जी. आप ने तो हिमाच्छादित प्रदेश में तपस्या की है। आप कितने उदार हैं कि हम जैसे  छोटे जीवों को रहने का स्थान, जल, भोजन देकर अपनी शरण में लेकर तपस्या करवा कर महान् उदारता का परिचय दे रहे हैं। स्वयं तो कितनी कड़ी तपस्या का जीवन जी कर महान् ज्ञान प्राप्त किया और  कितने ही औरों को सुलभ रूप से दे रहे हैं। केवल इतना  सोचने मात्र से ही हृदय श्रद्धा से भरता चला जा रहा है, जो व्यक्त नहीं किया जा सकता है। क्या कोई ऐसा महान्, उदार और महान् सन्त हो सकता है, जिसके दर्शन मात्र से कल्याण सम्भव है ?

कृतज्ञ होने से श्रद्धा का विकास होता है जो अनुदान प्राप्त करने का मूल आधार है।

आगे का ज्ञान कल वाले लेख में। 

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संध्या बहिन जी के सुझाव के समर्थन के बाद आज की संकल्प सूची में केवल सफल परीक्षार्थिओं के नाम ही दिए जा रहे हैं। आज की परीक्षा में केवल निम्नलिखित 6 साथी ही सफल हो पाए : 

रेणु श्रीवास्तव,नीरा त्रिखा,चंद्रेश बहादुर,सुजाता उपाध्याय,सुमनलता,संध्या कुमार। 

सभी को हमारी बधाई एवं सहयोग के लिए धन्यवाद् 


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