31 जुलाई 2024 मंगलवार का ज्ञानप्रसाद
आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज 18वां लेख प्रस्तुत है। डॉ साहिब द्वारा रचित ज्ञान के इस अथाह सागर में से डुबकी मार कर, हम अमूल्य रत्न ढूंढ कर, जाँच परख कर अपने साथिओं के साथ दैनिक गुरुकक्षा में चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। साथिओं के कमैंट्स से पता चल रहा है कि उन्हें इस श्रृंखला के सभी लेख अति रोचक एवं ज्ञानवर्धक लग रहे हैं , हों भी क्यों न,हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द कुछ ऐसा संजोए हुए है कि सचमुच अमृत ही है।
आज के लेख में हमने आदरणीय डॉ शर्मा जी की पूर्वस्वीकृति से कुछ अपना कंटेंट शामिल करने का प्रयास किया है जिसके लिए हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। लेख का शुभारम्भ “दिव्य अनुभूति” से होता है जिसमें डॉ साहिब एक दिव्य प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं। प्रश्न है, “परम पूज्य गुरुदेव साक्षात् परब्रह्म कैसे हैं ?” जब मनुष्य को परमात्मा का दर्शन होता है तो क्या अनुभव होता है ? डॉ साहिब ने अनाहतचक्र यानि ह्रदय चक्र में शांति,संतोष, अभूतपूर्व आनंद की बात की है। इन पंक्तियों को समझते एवं लिखते समय हमें तो ऐसा अनुभव हुआ कि सुख-शांति,आनंद, संतोष आदि ही परमात्मा के रूप हैं। हमें ऐसा क्यों अनुभव हुआ ? अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने ईश्वर को एक शक्ति, एक एनर्जी ,एक करंट की परिभाषा देकर समझने का प्रयास किया है। एनर्जी के ही तथ्य को आधार मानकर यह समझा जा सकता है कि सुख में एनर्जी किस स्तर की होती है और दुःख में एनर्जी किस स्तर की होती है। सुख का अर्थ है स्वर्ग यानि वोह स्थिति जहाँ ईश्वर का वास होता है, ईश्वर का आभास होता है। तो हुआ न साक्षात् ईश्वर का अनुभव ? और आज के लेख में सबसे बड़ी बात यह है कि सारी क्रिया अनाहतचक्र, ह्रदय चक्र में हो रही है, यही तो है भाव-संवेदना का स्थान। भाव-संवेदना तो कई बार इस स्तर की होती हैं कि ज्ञानप्रसाद के लेख की कोई पंक्ति ही आँखों में आंसू ला देती है- यही है परमात्मा का साक्षात् दर्शन, यही है मानवीय ह्रदय का कमाल।
हम अपने साथिओं से निवेदन करते हैं कि यह हमारा व्यक्तिगत explanation है, इसे मानना/रिजेक्ट करने में स्वतंत्र हैं।
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दिव्य अनुभूति
परम पूज्य गुरु साक्षात् परब्रह्म कैसे ?
साधक जब आत्मा-परमात्मा का दर्शन अनुभव के रूप में करता है, तो अनाहतचक्र में परम शान्ति, सन्तोष तथा अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव होता है और मन निश्चिन्त, शान्त तथा पूर्ण स्थिरता में रहता है। हृदय की गति धीमी हो जाती है तथा बहिरङ्ग में हर फूल, पत्ती तथा हर जीवधारी या निर्जीव (तारे, चन्द्रमा, सूर्य इत्यादि) में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता है। अंतर्मन में परम आनन्द एवं शान्ति प्राप्त होती है। सब एक ही पिता की सन्तान दिखाई पड़ते हैं । अत्यधिक प्रेम की भावना उमड़ती रहती है। “आत्मवत् सर्व भूतेषु” का भाव हृदय में भरने लगता है।
अनाहतचक्र हमारे शरीर में स्थित सात चक्रों में से चौथा चक्र है। इसे ह्रदय चक्र भी कहते हैं और इसका स्थान ह्रदय के ऊपर होता है। दूसरों के साथ आपस में बाँटे हुए गहरे रिश्ते और बिना शर्त प्यार की स्थिति को नियंत्रित करता है । चूँकि प्यार एक उपचारात्मक शक्ति है, यह चक्र भी चिकित्सा का केंद्र माना जाता है । परोपकारिता, खुद के लिए तथा दूसरों के लिए प्यार, क्षमा, अनुकम्पा तथा सुख यह संतुलित अथवा खुले अनाहत चक्र की गहरी विशेषताएँ है। इस विषय पर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर डिटेल्ड चर्चा हो चुकी है एवं इंटरनेट आर्काइव पर हमारी(अरुण त्रिखा) एक पुस्तक भी उपलब्ध है।
“आत्मवत् सर्व भूतेषु” का अर्थ है “सभी को अपने समान देखना,सभी का सम्मान करना रक्षा करना।” जून 2021 में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर इस शीर्षक से अनेकों लेख लिखे जा चुके हैं एवं उनके अमृतपान के साथ-साथ विस्तृत चर्चा भी हो चुकी है । इन सभी लेखों का आधार दिव्य रचना “प्रज्ञावतार का कथामृत” है।
इस अनुभव का परिणाम चरित्र एवं व्यवहार में दिखाई देने लगता है। हृदय में सभी के प्रति प्रेम,समानता तथा उदारता दिखनी शुरू हो जाती है तथा भगवान् के वरिष्ठ एवं ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण मनुष्य अपनी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर लेने का प्रयास करता है। भगवान की श्रेष्टतम कलाकृति (मनुष्य) के लिए वोह अपना सारा समय,पुरुषार्थ,धन,ज्ञान आदि को अति प्रेम, श्रद्धा एवं बिना किसी थकान के लगाता चला जाता है। फिर कोई वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति उसके क्रियाकलाप में, किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाती। हमने स्वयं से प्रश्न किया: क्या यह स्थिति मस्तिष्क को Hypnotise करने की स्थिति तो नहीं है ? हमारे मन ने उत्तर दिया, “नहीं।” यदि मात्र हिप्नोटिज्म ही होता, तो परमात्मा – आत्मा के अनुभव, दर्शन के बाद हम तो अकर्मण्य (Inactive, सुस्त, आलसी) हो गए होते। अगर ऐसा होता तो ईश्वर की श्रेष्ठतम कलाकृति को सुधारने और आगे बढ़ाने के लिए उल्लास और आनन्द की जिज्ञासा एवं आवश्यकता न उठती। उल्लास और आनंद का उठना, किसी कष्ट का अनुभव न करना,स्वयं ही सिद्ध कर रहा है कि यह Hypnotism न होकर, वास्तविक आत्मदर्शन एवं प्रभु दर्शन का स्थिति है ।
आइए संक्षेप में देख लें Hypnosis क्या होता है ?
सम्मोहन (Hypnosis) वह कला है जिसके द्वारा मनुष्य उस अर्धचेतनावस्था में लाया जा सकता है जो समाधि, या स्वप्न-अवस्था से मिलती-जुलती होती है, किन्तु सम्मोहित अवस्था में मनुष्य की कुछ या सब इन्द्रियाँ उसके वश में रहती हैं। वह बोल,चल और लिख सकता है; हिसाब लगा सकता है तथा जाग्रतावस्था में उसके लिए जो कुछ सम्भव है, वह सब कुछ कर सकता है, किन्तु यह सब कार्य वह सम्मोहनकर्ता के सुझाव पर करता है। कभी-कभी यह सम्मोहन बिना किसी सुझाव के भी काम करता है और केवल लिखाई और पढ़ाई में भी काम करता है जैसे के फलाने मर्ज की दवा यहाँ मिलती है। इस प्रकार के हिप्नोसिस का प्रयोग भारत में ज्यादा होता है। जैसे कि किसी के शरीर पर चोट लगी है और उसको बहुत दर्द हो रहा है; तो उसको सम्मोहीत करके उसका ध्यान किसी और दूसरी जगह पे ले जाया जा सकता है और उसका दर्द कम किया जा सकता है।
कोई भी महामानव, सुधारक जब तक सच्चे रूप में आत्मदर्शन, प्रभुदर्शन नहीं कर लेता, तब तक वह न तो आत्मकल्याण की ओर आगे बढ़ता है, न ही ईश्वर की कलाकृति को सुधार सकता है। जो महामानव, सुधारक जितना उस परब्रह्म परमात्मा में विलीन (Merge) हो सका, उतना ही वह परिष्कृत होकर, महान् सन्त, सुधारक के रूप में निखर कर आता है।
परम पूज्य गुरुदेव पूर्ण रूप से परब्रह्म में विलीन होकर उन्हीं के हो गये हैं, इसीलिए वोह आज समूचे विश्व का, मानव जाति का कल्याण कर रहे हैं ।
यह विलयीकरण (Merging) जितना अधिक परिपक्व होता जाता है,मज़बूत होता जाता है,साधक उतना ही अधिक शक्तिशाली होकर विश्व का, मानव जाति का उत्थान करता जाता है। परम पूज्य गुरुदेव जी और वन्दनीया माताजी की आत्मा साक्षात् परब्रह्म के रूप में परमात्मा की सम्पूर्ण मानव जाति का उत्थान कर रही है और करती ही रहेगी तथा तब तक करती रहेगी जब तक युग परिवर्तन नहीं हो जाएगा ।
मनुष्य की आत्मा के विकास की यह चरम पराकाष्ठा है। अतः यही वोह अन्तिम अवस्था है जिसे “भगवान् का अवतार” नाम दिया जाता है ।
हमारे मन में उठा आन्तरिक आदेश:
1. जबान से वही बोलेंगे, जो मानव जीवन के कल्याण के लिए, समस्त विश्व-कल्याण के लिए होगा ।
2.पैर चलेगा तो पूर्ण अनुशासित होकर लोककल्याण के लिए चलेगा।अन्य इन्द्रियाँ कार्य करेंगी तो केवल लोक कल्याण के लिए ही करेंगीं ।
3. भगवान् में पूर्ण विश्वास अर्थात् कर्मफल में पूर्ण विश्वास रखते हुए समय का पूर्ण सदुपयोग करेंगें । सविता रूपी इष्ट में पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उसी को नमन करते हुए हमेशा प्रसन्न रहेंगें ।
वसन्त पञ्चमी वाले दिन,आध्यात्मिक जन्मदिवस पर लिया गया संकल्प :
हे परमपिता परमात्मन्!
आपकी परमकृपा से जन्म-जन्मान्तरों से वाञ्छित ध्येय की प्राप्ति,विशुद्ध आत्मकल्याण, परमात्म-दर्शन एवं अनुभव परम पूज्य परमपिता परमात्मा एवं परम पूज्य वन्दनीया माताजी की अवर्णनीय अनुकम्पा, कृपा से यह वर्ष हमारी “स्वयं” की पूर्ण समाप्ति का वर्ष है । अब स्वयं का कुछ भी नहीं है।
हे प्रभो !
शाश्वत चेतना के रूप में आपने अपना जो दर्शन तथा अनुभव ( ब्रह्मानन्द, परमानन्द, आत्मानन्द) प्रदान किया है, कराया है तथा अपने में हमारी आत्मा को मिला लेने की कृपा की है, यह विलीयकरण (Merging) युगों-युगों तक बना रहे। आपकी कृपा से,हम हर क्षण, निम्नलिखित 7 सिद्धांतों पर चलते रहेंगें ।
1.मात्रवत् परदारेषु परद्रण्येषुलोष्ठवत् आत्मवत् सर्वभूतेषु
2. “ॐ” के रूप में आपका आत्मिक जप एवं ध्यान, मौन रहते हुए केवल काम की बात ही बोलेंगें।
3.महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए राजयोग के आठ अंग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा, ध्यान, सहज समाधि का पालन करेंगें
4.मन को काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार,द्वेष,ईर्ष्या,जल्दबाजी से दूर रखकर कार्य करते रहेंगें।
5.किसी की भी सामने तो क्या पीठ पीछे भी बुराई न करेंगें, न सोचेंगें ।
6.अपनी, स्वयं की कोई इच्छा नहीं होगी,आपकी इच्छा ही मेरी इच्छा होगी। आप पर ही पूर्ण विश्वास एवं श्रद्धा रहेगी तथा केवल आपसे ही माँगेंगें ।
7.अब हमारी कोई इच्छा न रहे। आपका आदेश ही पवित्र, शान्त मन से, आत्मा में सुनते रहें, उसी पर आप की बनाई वाटिका को सुन्दर बनाने के लिए चलते रहें । बस, आपकी ही इच्छा हम दोनों की इच्छा हो । केवल आपका आदेश ही रहे।
हे प्रभो! यही मेरी अन्तिम इच्छा है।
परम पूज्य पिताजी ! आप सारे विश्व को चलाने वाले हैं। मेरी छोटी-सी आत्मा की इस इच्छा को भी पूरी करने की कृपा करें। गायत्री जी परम सहयोगिनी के रूप में हमेशा आपका कार्य करने हेतु साथ में रहें ।
प्रभु चरणों में समर्पित
आपका आज्ञाकारी पुत्र,
(डॉ. ओमप्रकाश शर्मा )
25 जनवरी 1987
शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
चयन की छूट:
यह तो बड़े ही सौभाग्य की बात है कि इस आपत्तिकालीन समय में अगोचर भगवान्, विराट् संकल्प के रूप में युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा के रूप में अवतरित होकर, अपना दर्शन देकर सीधे मनुष्य को उठाकर, वातावरण बदलने के लिए परस्थितियों को पैदा कर बदल रहे हैं । “प्रत्यक्ष प्रज्ञा अभियान” के माध्यम से हम सबको,आज यह सौभाग्य मिला है कि सञ्चालक के मार्गदर्शन में चलकर अपने अन्दर के भगवान्, जो हृदय में हैं, को जगाकर अनन्तकाल के लिए अपनी आत्मा का कल्याण करें, आत्मा का यह जागरण शाश्वत रहेगा,अनंतकाल तक रहेगा।
“जो तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं है तुझ में, जाग सके तो जाग।”
कबीर जी का यह दोहा हमें बता रहा है कि जैसे तेल के अंदर चिकनाहट होती है, आग के अंदर रोशनी/गर्मी होती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर हमारे अंदर है , उसे ढूंढ सको तो ढूंढ लो।
कपड़े तो बदलते ही रहेंगे लेकिन मनुष्य का कल्याण ही कल्याण है, नहीं तो विनाश ही विनाश है। मनुष्य को अपनी दिशाधारा चयन की छूट है। वोह चाहे तो लोभ, मोह, अहंकार को त्यागकर धन्य हो जाये या उसी कीचड़ में धंसता जाए और हीरे जैसे अनमोल जीवन का सर्वनाश कर दे।
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कल वाले लेख के अमृतपान से 417 टोटल कमैंट्स, 39 मेन कमेंटस पोस्ट हुए हैं। हमारी सबसे छोटी भाभी राधा त्रिखा 38 आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडल प्राप्त कर रही हैं ,उन्हें बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं।
