25 जुलाई 2024 गुरुवार का ज्ञानप्रसाद
आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज 15 वां लेख प्रस्तुत है। डॉ साहिब द्वारा रचित ज्ञान के इस अथाह सागर में से डुबकी मार कर, हम अमूल्य रत्न ढूंढ कर, जाँच परख कर अपने साथिओं के साथ दैनिक गुरुकक्षा में चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। साथिओं के कमैंट्स से पता चल रहा है कि उन्हें इस श्रृंखला के सभी लेख अति रोचक एवं ज्ञानवर्धक लग रहे हैं , हों भी क्यों न,हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द कुछ ऐसा संजोए हुए है कि सचमुच अमृत ही है। आज के लेख के आरंभ में डॉ साहिब ने “अजपा जाप” की बात की है। अजपा जाप को जानने की जिज्ञासा हुई तो निम्नलिखित जानकारी प्राप्त हुई :
अजपा किसी मन्त्र को चुपचाप दोहराने की प्रक्रिया है । ऐसा करने से अनेकों मानसिक एवं शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं। गायत्री महाविज्ञान के तीसरे खंड के पृष्ठ 25 पर पूज्य गुरुदेव ने अजपा जप को सोऽहं के साथ जोड़कर आत्मा का अनुभव कराया है।
आत्मा-परमात्मा से सम्बंधित पंक्तियों को लिखते समय हम स्वयं को आदरणीय डॉ साहिब के साथ-साथ चलते अनुभव कर रहे थे, आशा करते हैं कि इस समय, इस लेख को पढ़ रहे हमारे साथी भी ऐसा ही कुछ अनुभव कर रहे हैं, उन्हें भी ईश्वर की उपस्थिति का आभास हो रहा होगा
हम बार बार लिखते आ रहे हैं कि हम बच्चे अपना परम कर्तव्य समझकर कर,अपने आसपास के लोगों को, गुरुदेव जैसे दिव्य महापुरुष की शक्ति से अवगत कराएं, नहीं तो औरों की भांति गुरुदेव को भी शंका की दृष्टि से देखा जायेगा। इन्हीं शब्दों के साथ आज की दिव्य गुरुकक्षा का शुभारंभ होता है।
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हमें आत्मिक सन्तोष की प्राप्ति हुई : प्रभु ने महान् कृपा कर जब से अनुदान दियें हैं, हमने प्रभु कार्यों के लिए आत्मसमर्पण कर दिया है। आनन्द मिल गया है। इस आनन्द की पहचान है, उसके मिलने के बाद अत्यधिक आत्मसन्तोष का प्राप्त होना ही है। ऐसा अनुभव होता है जैसे सब कुछ मिल गया हो; क्योंकि सत्, चित्, आनन्द ही भगवान् है, सत्चित् जीवात्मा है। अब हम पूर्ण सन्तोष की साँस ले रहे हैं । अब केवल मानवीय गरिमा को उठाने का कार्य पूर्ण विवेक और सन्तोष से करते रहना है। धन्य हो प्रभो, आप कितने दयालु एवं महान् हैं और मनुष्य कैसा मूर्ख प्राणी है कि भगवान् की दी हुई चीज को भी अपना समझता है। अपना तो केवल जीवात्मा के साथ जाने वाला कर्म ही है अर्थात् सन्तोष एवं आनन्द वही साथ जायेगा, शेष सब यहीं रह जाएगा । उसी के लिए मनुष्य को अथक प्रयास करना चाहिए। धन-दौलत तो दाएँ-बाएँ हाथ का खेल है। पूर्वजन्म के कर्म एवं गायत्री माँ की कृपा,उनके अनुदान ने आत्मसात् करते ही समर्पण करवा दिया । पूज्य गुरुदेव तो साक्षात् प्रज्ञा अवतार हैं। आत्मसात करते ही आत्मसन्तोष एवं दिशा दोनों मिल गयीं ।अब भौतिक चीजें अपने स्थान पर चली गयीं, कोई लगाव नहीं है। आत्मप्रेरणा हुई, अंतःकरण से उठती “ॐ” की ध्वनि सुन, बाहर की क्या सुनता है अरे मानव ? और मन एकाग्र हो गया, ओम् का अजपा-जप चलने लगा ।
हमने यह संकल्प पत्र गुरुदेव जी को समर्पित किया :
हे परब्रह्म परमात्मन्! इस आपत्तिकालीन परिस्थिति में अन्त:करण में बार-बार किये गये आदेश के अनुसार अब हम नौकरी को गौण मानकर हर शिक्षित वर्ग के लोगों, जैसे- स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज, न्याय, चिकित्सा एवं प्रशासन विभाग एवं जन सामान्य में मेला, पर्व, इत्यादि के माध्यम से प्रज्ञापीठ, शक्तिपीठ के माध्यम एवं सुनियोजित तरीके से आपके विचारों को भारत के कोने-कोने में वितरित कर बताएँगे कि मनुष्य क्या है ? वैज्ञानिक एवं आत्मिक दृष्टिकोण में उसका रूप और ध्येय क्या है ? इस विषम समय में, स्वर्णिम् वेला में, महाकाल की क्या पुकार है ? जिससे वह अपने जीवन को धन्य बनाकर शान्ति, आनन्द एवं सन्तोष प्राप्त कर स्वर्गीय वातावरण बना सके । हे परब्रह्म परमात्मन्! अन्त:करण की प्रार्थना है कि हमारी आत्मा को उपर्युक्त कार्य करने का सतत बल देते रहें, जिससे अपने पूर्ण समय, शक्ति, एवं साधनों का सदुपयोग कर सुयोग्य सेवक की तरह “आपकी वाटिका की पूर्ण चिकित्सा करने में योगदान दे सकें।” आपके आदेशों का पालन कर उसमें पूर्ण पुरुषार्थ करना ही अब मेरी जीवन साधना है । फलस्वरूप, हे प्रभो! आपसे प्रार्थना है कि युगों-युगों तक हम दोनों तथा बच्चों को आप अपने चरणों में कार्य करने के लिए स्वीकार करने की कृपा करते रहें । हे प्रभो ! आपकी इच्छा ही मेरी इच्छा है। हे प्रभो ! मेरी इच्छा आपके चरणों में समर्पित है । अक्टूबर 1982 में अनुष्ठानकाल के दौरान एक सहयोगी कार्यकर्त्ता कहने लगे: आपको नौकरी में जो रुपया मिले, उसे आनन्द स्वामी जी की तरह पूज्यवर का सन्देश देने में लगा दीजिये (नौकरी छोड़िए मत) जब जरूरत हो, लम्बी छुट्टी ले लीजिए और रुपया/पैसा उसी में खर्च कर दीजिए। अपने से बचाइए, समाज के प्रचार-प्रसार में लगा दीजिए । किसी से कभी कुछ मत लीजिए, यदि वह देता है तो लेकर प्रज्ञापीठ, शक्तिपीठ एवं शान्तिकुञ्ज को दान कर दीजिए । यही सन्देश कल अन्त:करण से भी आया था, सुनकर उसकी पुष्टि हुई ।
विस्मय,आश्चर्य का समाधान :
कमरे में आने के बाद मन में निम्नलिखित विचार उठने लगा: तपस्या की मूर्ति, महान् निष्काम योगी पूज्य गुरुदेव जी,शंकर का रूप होकर साक्षात् परब्रह्म के रूप में आकर हम जैसे अनेकों मनुष्यों को ऊँचा उठाने के लिए अपनी मानवीय लीला कर रहे हैं। बार-बार अपनी तपस्या बाँटकर, प्रलोभन देकर, ज्ञान, भक्ति देकर (जो जैसे उठ सकता है) हमारे लिए अनवरत प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हाय रे हम महामूर्ख ! बन्धनों में फँसा हुआ नर-तन पशु! बताने पर भी साक्षात् परब्रह्म की लीला को न समझकर अपनी जीवात्मा को कई जन्मों के लिए अन्धकार की योनियों में ढकेलता चला जा रहा है । यह स्वर्णिम् वेला कई हजार साल के बाद आयी है कि साक्षात् परब्रह्म, सिद्धान्तों, क्रियाकलापों के रूप में उतरकर व्यक्ति को अनुदान बाँट रहे हैं। हाय रे नासमझ जीवात्मा ! अपना समय और अंश का दान न करके,उनकी आज्ञा पर न चलकर, उनको अन्दर से न समझकर, नर-तन पाकर मनुष्य जानवरों से भी गयी-गुजरी समझदारी दिखाकर, स्वयं को अन्धकार की योनियों में ढकेलता नहीं चला जा रहा है क्या? जिस ध्येय(ईश्वर-दर्शन) को पाना चाहता है वोह तो साक्षात् अंदर बैठे हैं। अंतर्मन की जान-पहचान न होने पर पता ही नहीं चल पा रहा है कि मैं कौन हैं, मैं क्या हूँ ? समय चूक जाने पर फिर पछताने से कोई फायदा नहीं है ।
विश्व में मानवीय गरिमा को उठाने का संकल्प: प्रभु के बताए रास्ते पर चलकर, हथेली में श्रद्धा रूपी आँसुओं को लेकर, परब्रह्म परमात्मा के समक्ष फिर संकल्प लेता हूँ कि हे भगवान्! जैसे आपने हमें और धर्मपत्नी गायत्री जी को अपना दर्शन देकर, पूर्ण श्रद्धा पैदा करके , प्रज्ञा चक्षु खोल दिए हैं , हे प्रभो ! आपने हम दोनों के अनेक जन्म धन्य बना दिये हैं । यह जीवन तो सार्थक हो ही गया है, उसी तरह हे परमपिता परमात्मन् ! आप से वह शक्ति माँगते हैं, जिससे हम दोनों पूर्ण पवित्रता एवं निष्काम कर्मयोगी की तरह जन-जन को महाकाल की पुकार सुनाकर, पूर्ण समय और साधन (जो आपका दिया हुआ है), आपके चरणों में देकर धन्य बन सकें, जिससे कई जन्म सार्थक हो जायें । हे परमपिता परमात्मन् “आप वह शक्ति प्रदान करने की कृपा करें” । प्रभु चरणों में समर्पित ।
गुरुकृपा,आश्चर्यभरी स्वानुभूति:
यज्ञ के बाद पूज्य गुरुजी को जब लाइन में प्रणाम करने जा रहे थे, तो स्पष्ट अनुभव हो गया कि पूरी सुन्दरता आत्मा और परमात्मा की है और जो कुरूपता है वह “जड़वत्” प्रकृति की है। आत्मा-परमात्मा का ऐसा स्पष्ट अनुभव हुआ जैसे सुख-दुःख का, मीठा-कड़वा का होता है। इस अनुभव को लेखनी में व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
उसी समय प्रतीक्षालय में ऊपर पड़े टीन के छत पर दृष्टि गयी, सूखी लकड़ी पड़ी थी, जो जड़ पदार्थ की कुरूपता को दर्शा रही थी तथा हरी लता-पुष्पों सहित उसी के साथ आत्मा और परमात्मा की सुन्दरता को दिखा रही थी। देखने में जड़ पदार्थ का शरीर चाहे मनुष्य का हो, पक्षी का हो, पेड़-पौधे का हो, बाहरी आँख से देखने पर सुन्दर दिखाई पड़ता है; लेकिन अंतर्मन की आँख से देखने से स्पष्ट हो जाता है कि यही तो है आत्मा-परमात्मा का सौन्दर्य । प्रकृति तो जड़वत्, केवल दासी के रूप में जीवात्मा का आज्ञा पालन करती है । मानव शरीर में जीवात्मा स्वामी के रूप में बैठा है, मन-बुद्धि-चित्त की वृत्तियों एवं इच्छा पर चलता है, कार्य करता है तथा ऊँचा या नीचे गिरता है ।
अब अनुभव से यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि हर जीवधारी की पूरी सुन्दरता आत्मा-परमात्मा की है, न कि जड़ पदार्थ की। उदाहरणार्थ जब जीवात्मा शरीर से निकल जाती है, वही सुन्दर दिखने वाला शरीर कितना डरावना हो जाता है । सुन्दर दिखने वाला फूल किस तरह मुरझा कर कुरूप और बिना सुगन्ध वाला हो जाता है । आकृति तो वही है।
यह सिद्ध करता है कि जो सुन्दरता, कोमलता, सुगन्ध, प्रकाश देख रहे हैं, वह परमात्मा की वजह से उसी का गुण है । चमक सूर्य की नहीं है, चमक रही है एक चेतन शक्ति, ठीक उसी तरह जैसे केवल विद्युत् शक्ति के आते ही जड़वत् तार के माध्यम से हीटर में गर्मी आती है। ऐसे ही जीवात्मा रूपी व्यापक परमात्मा का अंश जब जड़वत् शरीर में उतरता है, तो क्रियाकलाप करते समय हाथ, पाँव, जीभ, आँख दिखाई पड़ती है; लेकिन यह मोटर केवल आत्मा की ही शक्ति से चलती है। इसलिए पूर्ण कार्य के लिए स्वामी रूपी आत्मा तथा वाहन रूपी शरीर दोनों का या जीवात्मा रूपी अध्यात्म और शरीर रूपी भौतिक पदार्थ दोनों का ख्याल रखने पर ही जीवात्मा इस बगीचे को सुन्दर बनाते हुए अपने लक्ष्य अर्थात् परमात्ममिलन, परम आनन्द, परम सन्तोष को प्राप्त कर सकता है ।
जब यही व्यापक परमात्मा मनुष्यों एवं जीवों का कल्याण साक्षात् रूप से स्वयं करना चाहता है, तो अत्यधिक शक्ति के रूप में आ जाता है, वही अवतार हो जाते हैं । युग प्रवर्तक होकर व्यापक रूप से हर क्षेत्र में बिगड़ी मानवीय परिस्थिति को सुधारने का कार्य करते हैं (पूज्य गुरुजी उसी अवतार रूप में आये हैं) । धन्य हैं आप परम पूज्य पिताजी आज आपने स्पष्ट अनुभूति कराई है, यह अनुदान भी हे प्रभु ! आपके चरणों में समर्पित ।
अगला एपिसोड सोमवार वाले दिन।
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कल वाले दिव्य लेख के अमृतपान से 569 टोटल कमैंट्स, 40 मेन कमेंटस पोस्ट हुए हैं। कॉमेंट्स संख्या इतनी पास पास है कि गोल्ड मेडल तो संध्या बहिन जी को ही जा रहा है लेकिन अनेकों अन्य साथियों का योगदान भी कोई कम सराहनीय नहीं है।सभी साथिओं का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं
