वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुपूर्णिमा 2024 को समर्पित लेख श्रृंखला का तृतीय लेख

17 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद 

अखंड ज्योति जनवरी/फ़रवरी  2003 में प्रकाशित लेखों  पर आधारित, गुरुपूर्णिमा को समर्पित,आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का आज तृतीय  लेख प्रस्तुत है। इस लेख शृंखला के माध्यम से परम पूज्य गुरुदेव के अनेकों प्रथम शिष्यों में से एक और शिष्य आदरणीय रामचंद्र सिंह जी की गुरुभक्ति का आभास कराती यह लेख श्रृंखला सच में हमें ऐसी  बातों का ज्ञान प्रदान करा रही है जिनका अमृतपान करते हुए हम नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते। 

कल इस लेख श्रृंखला का अंतिम एवं चतुर्थ लेख प्रस्तुत किया जायेगा। 

आइए अब बिना कोई देरी किए सीधे गुरुकक्षा की ओर रुख करते हैं और गुरुचरणों में समर्पित हो जाते हैं। 

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आज के लेख में  शाँतिकुँज के शुभारंभ के समय के वे प्रसंग प्रस्तुत हैं, जो अति महत्त्वपूर्ण हैं। इन लेखों में एक सेवक की भक्ति एवं गुरुसत्ता की अलौकिक विभूति का परिचय चरितार्थ हो रहा है । यह आत्मकथा आद रामचंद्र सिंह जी के ही शब्दों में प्रस्तुत है : 

मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि 1968 से 1972 तक सतत सारे भारतवर्ष के कार्यक्रम में भ्रमण करते हुए, अतिव्यस्त रहते हुए भी, किस तरह परमपूज्य गुरुदेव शाँतिकुँज आने का समय निकाल लेते थे। मेरे कार्य संबंधी मार्गदर्शन देने के लिए  वे क्षेत्र में जहाँ भी होते, वहाँ से मुझे पत्र भेजते रहते थे। हर पत्र में स्पष्ट निर्देश होता था कि अमुक तारीख को वे किस स्थान पर होंगे, अमुक पते पर निर्माण कार्य की प्रगति की सूचना भेजने के निर्देश मिल जाते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह होती थी कि हर पत्र के नीचे लिखा होता था,अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाकर रखना।

एक बार गुरुदेव आए तो मैंने बताया कि इन दिनों महात्मा आनंद स्वामी आए हुए हैं। गुरुदेव भगवान मुझे साथ लेकर उनसे मिलने गए। खूब चर्चा व सत्संग, परस्पर विनोद आदि का क्रम चलता रहा। दो महापुरुषों के मिलन व पारस्परिक चर्चा के गहन प्रसंग आज भी मस्तिष्क-पटल पर अंकित हैं। इस तरह और भी कोई महात्मा आते तो उनसे मिलने जाना होता था। मैं भी साथ रहता था।

परमपूज्य गुरुदेव जिससे भी मिलते,अपनी सज्जनता,सदव्यवहार व विनम्रता की छाप उस पर छोड़ते थे। प्रारंभिक दिनों में जब बिहारीलाल जी की देख-रेख में नीचे के कमरे  बन गए तो उनमें बिजली लेने की बात आई । गुरुदेव मुझे साथ लेकर कैलाशनगर के ठेकेदार के पास गए। उसे अभिवादन किया। वह 22 वर्ष का एक युवा था । बातचीत से इतना प्रभावित हुआ कि स्वयं मुझे साथ लेकर अगले दिन रुड़की  गया, लाइन मंजूर हो गई व शाँतिकुँज में पहली बार बिजली आ गई। यह 1970 की बात है। कैसा भी कठिन कार्य क्यों न हो, बिना किसी व्यवधान के वह आसानी से संपन्न हो जाता था। 

शांतिकुंज की पावन भूमि पर अगस्त 1968 में भगवान् श्री के  पदार्पण होते ही ज्वालापुर से सप्तसरोवर तक एक सिटी बस आरंभ हो गई थी। यह उनकी कृपा ही थी कि इससे इस क्षेत्र को अत्यधिक राहत मिली थी। इससे पूर्व आवागमन के साधन साइकिल,रिक्शा,ताँगा इत्यादि ही थे। सितंबर 1969 से पूर्व हमें गंगाजल के लिए काफी दूर, दो-ढाई किलोमीटर  जाना होता था। इसी माह गंगा में बाढ़ आई । सप्तसरोवर क्षेत्र में बड़े समीप से एक धारा बहने लगी। बाद में सरकार ने बाँध बना दिया व बड़े ही व्यवस्थित घाट बन गए। यह मानों उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि साक्षात् गंगा समीप से बहने लगी व बाद में यही सप्तसरोवर की मुख्य धारा बन गई। गुरुदेव शाँतिकुँज को गंगा में ही बसा कहते थे। जब भी खुदाई होती, शालिग्राम समान पत्थर निकलते । यहाँ पानी मात्र डेढ़ फीट गहराई पर ही उपलब्ध था एवं गंगा जितना ही मीठा व बढ़िया जल था। 

1971 में मथुरा-विदाई से पूर्व गुरुदेव ने बिहार का अंतिम यज्ञ संपन्न किया, यह जानकारी अखंड ज्योति में प्रकाशित हुई। मैंने अपने गाँव के लिए भी निवेदन किया था लेकिन इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ ।अपने छोटे से गाँव में प्रयत्न-परिश्रम करके मेरी अनुपस्थिति में ही  गाँव वालों ने मंदिर का निर्माण कर ही लिया था। पूर्णिया  से बक्सर के बीच मेरा गाँव यदुरामपुर (धर्मचक) पड़ता था। मेरा मन बार-बार कह रहा था कि  घंटा भर रुककर मेरे भगवान मेरे मंदिर में भी अपने करकमलों से प्राण-प्रतिष्ठा करे देते तो कितना ही अच्छा होता। मैं हरिद्वार से चलकर तुलसीपुर, गोंडा, जहाँ कार्यक्रम संपन्न हो रहा था, पहुँचा। पूज्यश्री ने हरिद्वार के समाचार पूछे, निर्माण कार्य की गति पूछी एवं अकस्मात् आने की वजह जानी। मेरा निवेदन सुनते ही भगवान बोले:

मैं भावविभोर हो सब कुछ सुनता रहा। उनके श्रीचरणों को अपने अश्रुओं से धोकर मैं तत्काल शाँतिकुँज वापस आ गया। कार्य का फेर बनाया एवं यज्ञ की तिथि से 10  दिन पूर्व अपने गाँव पहुँच गया।

गाँव में मेरा घर कच्चा खपरैल का बना है। उसमें शौचालय भी नहीं था। दूर खेत में जाना पड़ता था। गाँव के एक व्यक्ति ने पक्का मकान बनवाया था, जिसमें 7-8  कमरे, शौचालय व स्नानघर भगवान के ठहरने की व्यवस्था की। भगवान पधारे। भोजन हेतु मैं उन्हें अपने घर ले गया, उन्होंने  भोजन किया, कुछ देर विश्राम किया, फिर मंदिर आकर विधिवत् मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की। हजारों की भीड़ जमा हो गई। आस-पास के गाँवों के भी हजारों व्यक्ति मौजूद थे। सबने शाँतिपूर्वक प्रवचन सुना।

प्रवचन समापन के बाद रात्रि में गुरुदेव बोले, यदि तुम्हारे परिवार को कोई असुविधा न हो, तो रात्रि में हम तुम्हारे यहाँ ही सोना चाहते हैं। मैंने विनय-निवेदन किया कि प्रभु, कच्चा मकान है। शौचालय, स्नानघर की भी व्यवस्था नहीं है, इसलिए आपके विश्राम हेतु हम सबने मिलकर पक्के मकान में व्यवस्था की है, ताकि आपको कोई असुविधा न हो। गुरुदेव फिर भी न माने। रमेशचंद्र शुक्ला जी से कहा, उठाओ बिस्तर व चलो रामचंद्र के घर ।तुम यहाँ सोना, हम वहाँ रहेंगे। गुरुदेव श्री, मेरे घर, मेरी कुटिया में पधारे। चारपाई पर बिस्तर लगा था। उनके श्रीचरण खटिया से बाहर निकल रहे थे। सुबह लगभग 3:30  बजे लालटेन लेकर शौच हेतु खेत में गए। आकर आँगन में गरम पानी से स्नान किया। फिर दरवाजा बंद करके अपनी पूजा-उपासना में लग गए। सवेरे 6:00 बजे परिवार के सभी सदस्यों को बुलाकर उनके दुःख-दर्द का हाल पूछा। सभी को आशीर्वाद प्रदान किया।

यह कार्यक्रम 24, 25, 26 जनवरी 1971  को संपन्न हुआ। बिहार प्रांत के लगभग 15000  गायत्री परिजनों ने इस आयोजन में भागीदारी की एवं हजारों व्यक्तियों की पीड़ा, दुःख का निवारण किया जिसे  मैंने अपनी आँखों से स्वयं देखा। तीसरे दिन पूर्णाहुति के बाद गुरुदेव श्री ने अपने कर-कमलों से कुछ जगह छोड़कर एक कन्या विद्यालय का शिलान्यास किया और मेरी लड़की उर्मिला से कहा कि जैसे राजस्थान में श्री हीरालाल शास्त्री ने पेड़ की छाया में 5  लड़कियों से पढ़ाना आरंभ किया था, वैसे ही यह विद्यालय तुम्हें ही चलाना है। हम जो भी कार्य आरंभ करते हैं, वह विशाल बन जाता है। ऋषियों की वाणी कभी व्यर्थ नहीं जाती। मेरी लड़की उर्मिला 7  वर्ष तक शाँतिकुँज में वंदनीया माताजी के प्रशिक्षण में रही। उर्मिला ने 5  लड़कियों से उस ग्रामीण स्कूल  में पढ़ाना आरंभ किया। आज इस स्कूल में, जिसका नाम “श्रीराम कन्या विद्यालय” रखा गया है, लगभग 150  से अधिक  लड़कियाँ पढ़ती हैं। 3  शिक्षिकाएँ स्थायी रूप से कार्यरत हैं। बाद में 18 अप्रैल, 1982 को गाँव में एक दीपयज्ञ हुआ और एक “कन्या महाविद्यालय” बनाने का संकल्प लिया गया। परमवंदनीय माताजी ने इस महाविद्यालय भवन के निर्माण हेतु  संस्कारित शिलाएँ आशीर्वादस्वरूप भेजीं।

परमपूज्य गुरुदेव का  मेरे गाँव में आगमन, वह भी तब, जब विदाई की पूर्व वेला में उनका एक-एक दिन बड़ा महत्वपूर्ण था एवं 3  दिन वहाँ निवास ने मुझे कृतकृत्य कर दिया। मेरे प्रति कितना प्रेम है, इसका एहसास करा दिया। एक प्रकार से ऋण से भी लाद दिया।

हमने गूगल में इस महाविद्यालय को सर्च करने का प्रयास किया लेकिन इस नाम के बहुत से स्कूल सामने आए। 

कल इस श्रृंखला का समापन लेख प्रस्तुत किया जाएगा 

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473   कमैंट्स और 11 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो 

रही  है।आज भी अनेकों साथिओं के अंक( 31,32,34,37,39)  इतने पास-पास हैं कि बहुत सारे गोल्ड मेडलिस्ट हैं  उनको बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्। 

(1)रेणु श्रीवास्तव-31,(2)नीरा त्रिखा-34 ,(3)पुष्पा सिंह-32 ,(4)सुमन लता-25,(5)चंद्रेश बहादुर-24 ,(6)संध्या कुमार-39 ,(7)सुजाता उपाध्याय-26  ,(8)पूजा सिंह-37 ,(9)मंजू मिश्रा-39 ,(10 )सरविन्द पाल-24 


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