16 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद
अखंड ज्योति जनवरी 2003 में प्रकाशित लेख पर आधारित, गुरुपूर्णिमा को समर्पित,आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का आज द्वितीय लेख प्रस्तुत है। इस लेख शृंखला के माध्यम से परम पूज्य गुरुदेव के अनेकों प्रथम शिष्यों में से एक और शिष्य आदरणीय रामचंद्र सिंह जी की गुरुभक्ति का आभास कराती यह लेख श्रृंखला सच में हमें ऐसी बातों का ज्ञान प्रदान करा रही है जिनका अमृतपान करते हुए हम नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते।
साथिओं से बड़े ही विनय के साथ करबद्ध निवेदन कर रहे हैं कि यह लेख श्रृंखला आदरणीय रामचंद्र सिंह जी की गुरुभक्ति का वर्णन कर रही है न कि आदरणीय शुक्ला बाबा की, ऐसा कुछ एक कमैंट्स दर्शा रहे हैं। रमेश चंद्र और राम चंद्र इतने मिलते जुलते नाम हैं कि यह CONFUSION होना स्वाभाविक है।
वैसे तो आज के लेख में अनेकों तथ्य हैं जिन्हें हमने quote/unquote (“ ,”) से हाईलाइट किया हुआ है लेकिन निम्नलिखित तथ्य अपने मस्तिष्क में stamp करने बहुत ही महत्वपूर्ण हैं :
क) 8 अगस्त 1968 का दिन शाँतिकुँज का जन्मदिवस है जब गुरुदेव पहली रात्रि इसी भूमि पर अपने अस्थायी आवास में बहते पानी के बीच सोए थे।
ख) तप की नींव पर खड़ा शाँतिकुँज हज़ारों वर्षों तक जन-जन को प्रकाश देता रहेगा।
ग) स्वयं गुरुदेव के हाथों से आरम्भ किया गया मात्र 3 कमरों का शांतिकुंज आज कितना विस्तृत हो गया है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं के योगदान से तैयार की गयी वीडियो आज के प्रज्ञागीत के स्थान पर संलग्न की है जिसमें साथिओं को निर्माणाधीन शांतिकुंज के कुछ अति दुर्लभ चित्र देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।
तो आइए गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें और ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को रोशन कर दें।
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रामचंद्र सिंह जी आगे लिखते हैं :
1966 में मैं आसाम से बिहार वापस आ गया। घर के लिए ठीक ठाक व्यवस्था हो गई थी। इसी बीच पता चला कि 24 से 26 दिसंबर,1967 के बीच मेरे गुरुदेव मस्तीचक आ रहे हैं। मस्तीचक में पंडित रमेशचंद्र शुक्ला जी के यहाँ पंच कुंडी यज्ञ का आयोजन था। मैंने अपनी आँखों से देखा कि दो स्त्रियों ने दर्शन के समय उनसे प्रार्थना की कि विवाह को 8-10 वर्ष हो गए हैं, संतान नहीं हुई। गुरुदेव ने उन्हें यज्ञशाला की परिक्रमा करते रहने का आदेश दिया। दोनों स्त्रियों को 10 माह बाद पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई।
इसी यज्ञ में पूज्यवर ने मुझे बुलाकर कहा, रामचंद्र, हम तुम्हारे गाँव व घर चलेंगे। मैं स्तब्ध रह गया कि भगवान् को उस छोटी सी झोंपड़ी में कहां बिठाऊँगा। गुरुदेव के लिए एक इंजीनियर की जीप की व्यवस्था की। कुटिया के द्वार पर गुरुदेव भगवान की आरती उतारी । कुछ देर बाद वे बोले कि गाँव में कोई सार्वजनिक स्थान हो तो वहाँ ले चलो। गाँव के किनारे देवी का एक मंदिर था, पास में खुली जमीन थी। वहाँ पहुँचने पर गुरुदेव को एक स्थान पसंद आया, गुरुदेव ने सात ईंटें और पूजन की सामग्री मँगवाई। अपने हाथों से भूमिपूजन किया और स्वयं ही खुदाई करवा कर ईंट रखकर शिलान्यास किया। वहाँ उपस्थित समुदाय से कहा:
“यह भूमि हमने अपने तप से असाधारण बना दी है। आगे चलकर यहाँ एक गायत्री मंदिर बनेगा। प्राणिमात्र का कल्याण होगा। दूर से लोग आएँगे, प्रकाश पाकर जाएँगे। गाँव वाले मंदिर बनाएँ, हम इसकी प्राण प्रतिष्ठा करेंगे।
इतना कहकर गुरुदेव भगवान मस्तीचक वापस लौट गए। कालांतर में पूर्णिया से बक्सर जाते हुए 1971 में इस मंदिर में गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा हुई।
वह भी बड़ा अलौकिक प्रसंग है, उसकी चर्चा आने वाले लेखों में करेंगें, आप हमारे साथ बने रहिए ।
रामचंद्र सिंह जी बताते हैं :
1 जून,1967 को मथुरा में मुझे 15 दिवसीय सत्र में आने का निर्देश मिला।अंतिम दिन गुरुदेव ने अकेले में बुलाया और तपोभूमि की यज्ञशाला के सामने खड़े होकर बोले:
“रामचंद्र,अब युगनिर्माण विद्यालय आरंभ होने जा रहा है। तुम बाल बच्चों को लेकर यहाँ आ जाओ। यहीं उन्हें पढ़ाएँगे-लिखाएँगे, छाछ रोटी साथ खाएँगे। भगवान का मान करेंगे।”
मैं गाँव लौट गया। अक्टूबर, 1967 में टाटानगर में एक विशाल यज्ञ था। वहाँ से लौटते हुए गुरुदेव भगवान पटना सिटी डॉ माथुर के यहाँ रुके।10 अक्टूबर की प्रातः उनके दर्शन हेतु अपने गाँव-क्षेत्र से 50 व्यक्तियों को लेकर मैं पहुँचा। गुरुवर तुरंत बोले:
“तुम अभी तक मथुरा नहीं पहुँचे।”
मैंने करबद्ध निवेदन किया कि आपने ही हमारे गाँव में शिलान्यास किया था, मंदिर बनना आरंभ हो जाए,तो मैं आ जाऊँगा।
भगवान श्री बोले:
“मंदिर गाँव वाले बनाएँगे। मूर्ति की व्यवस्था भी हो जाएगी। तुम तो हमारा मंदिर बनाने मथुरा चलो।”
अंततः 1 फरवरी 1968 को अपनी पत्नी तथा पुत्री सहित मैं श्रीचरणों में मथुरा पहुँच गया।
1968 की गुरुपूर्णिमा पर आयोजित पूजन निपटने के बाद गुरुदेव-माता जी हरिद्वार के सप्त सरोवर में बनने वाले आश्रम (शांतिकुंज) की चर्चा कर रहे थे। अचानक भगवान श्री बोले:
“रामचंद्र, तुम हरिद्वार चलो। वहाँ निर्माण कार्य में मदद करना। बाद में माताजी की सेवा करना ।”
हमने आज्ञा शिरोधार्य कर ली। फिर उसी दिन से प्रतिदिन एक नर्सरी ले जाकर गुरुदेव ने हमारा बागवानी का शिक्षण आरंभ कर दिया। सातवें दिन बगीचे का सामान, फावड़ा, खुरपी, गेंती, कुछ प्रकार के पौधे व बीज, ओढ़ने-बिछाने का सामान लेकर 8 अगस्त,1968 को मुझे लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ भविष्य का शाँतिकुँज बनना था।
श्रावण मास के उस पवित्र दिन रात्रि तो सप्तर्षि आश्रम की एक कुटिया में ठहरे। फिर अगले दिन उस भूमि पर ले गए। चारों तरफ घनघोर जंगल था । जमीन पर एक फुट गहरा पानी बह रहा था। पड़ोस में एक माताजी (विद्योत्तमायति) का मकान था। उसी में एक ब्रह्मचारी रहते थे। उनसे 12X 8 फुट का एक टीन शेड लिया व मेरे रहने की अस्थायी व्यवस्था बना दी। मैंने एक ही दिन में छोटी-सी कोठरी बना ली, उसी कोठरी के एक कोने में भोजन बनाने की व्यवस्था भी कर ली, एक चारपाई,थोड़ी सी ईंटें, मिट्टी के तेल की लालटेन, स्टोव आदि सब आवश्यकता की चीज़ें एक ही दिन में इकक्ठा कर लीं। मैंने दाल-चावल बनाए थे और गुरुदेव खाकर वहीं सो गए। मैं ईंटों के बिछौने पर उनके पाँव दबाकर सो गया। सवेरे नींद खुली तो देखा कि गुरुदेव तो दैनंदिन कृत्यों से निवृत्त होकर प्लास्टिक का रेनकोट सिर पर ढके,निकर-बनियान पहने, फावड़े से पानी के निकलने का रास्ता बना रहे हैं,पानी लगातार बरस रहा था । मैं जल्दी से फारिग होकर आया। गुरुदेव बोले:
“मैंने गड्ढे खोद दिए हैं, तुम इन्हें गहरा करके नर्सरी से लाए पौधे लगाते चलो।”
मैंने आज्ञा का पालन किया। आठ दिन यही क्रम चलता रहा। इस बीच गुरुदेव का साधक स्वरूप देखा, उनका कर्मयोगी स्वरूप देखा, हास्य विनोद भरा रूप देखा, सीमित साधनों में जीवन जीने का क्रम देखा। हम दोनों ने अकेले ही पौधे लगा दिए । अस्थायी सड़क बन गई। माताजी का कमरा कहाँ बनेगा,यह सब तय करके वे हमें यहीं रुकने का आदेश देकर चले गए।
वह 8 अगस्त 1968 का दिन था, जब भगवान श्री पहली रात्रि इसी भूमि पर अपने अस्थायी आवास में बहते पानी के बीच सोए। वस्तुतः यही शाँतिकुँज का जन्मदिवस भी है, क्योंकि इसी के बाद विधि-व्यवस्थापूर्वक सारे कार्य आरंभ होते चले गए एवं क्रमशः निर्माण हेतु गुरुदेव के आने का क्रम बनता चला गया।
सप्तर्षि आश्रम के माध्यम से, भगवान श्री के पत्र हर चार दिन में आ जाते थे, जिनमें सारे निर्देश रहा करते थे। कुएँ की खुदाई व कमरों के निर्माण के लिए गुरुदेव जनवरी 1969 में वसंतपंचमी के दिन फिर पधारे। साथ में चार आना प्रतिदिन की दर से किराये पर कबाड़ी की दुकान से एक साइकिल भी लेकर आए। ताँगे उन दिनों बड़े महँगे थे। एक बार का आना-जाना 12-15 रुपये खरच कर देता था। गुरुदेव ने हमसे कहा:
तुम हमें साइकिल पर बिठाकर खुद चला सकते हो? हमने “हाँ” कहा, तो उन्होंने कहा बिठाकर चलाकर दिखाओ, संतुष्ट होने पर ही, एक ही साइकिल पर हम दोनों बैठकर अच्छूमल के ईंट के भट्टे पर पहुँचे। 60 रुपये प्रति हजार के हिसाब से 60,000 ईंटें खरीदीं। नकद पैसे दिए व ईंटें पहुँचाने के लिए कहा। सेठ बोला, “मैं अपनी गाड़ी से आपको आश्रम पहुँचा देता हूँ।” गुरुदेव ने स्पष्ट मना कर दिया व कहा कि हम साइकिल से ही वापस जाएँगे। प्रभु की सादगी एवं सरलता देखकर हम हतप्रभ थे। जिनके संकल्पमात्र से लाखों के निर्माण हम स्वयं देखकर आए थे, वे हमें निमित्त बनाकर हम जैसे ही बनकर सारा कार्य कर रहे थे। हमने कहा भी, तो बोले:
“रामचंद्र, यह तप है। तप की नींव पर जब शाँतिकुँज खड़ा होगा तो हज़ारों वर्ष तक जन-जन को प्रकाश देता रहेगा। अतः तुम बस वही करते जाओ, जो हम कह रहे हैं।”
सीमेंट आने वाला था। मैं भोजन बना रहा था। देखा कि गुरुदेव घुटनों के ऊपर धोती चढ़ाकर स्वयं ईंटें बिछा रहे हैं। मैं भागा-भागा उन्हें रोकने के लिए आया, तो बोले, उधर जाओ,सब्जी जल जाएगी। तुम उसे सँभालो। मैंने सीमेंट को भीगने से बचाने के लिए ईंटें बिछाकर एक प्लेटफॉर्म सा बनाया। सीमेंट लाने वाले मजदूरों ने एवं मैंने सारा सीमेंट व्यवस्थापूर्वक प्लेटफॉर्म पर जमा दिया।
निर्माण कार्य शुरू हो गया। गुरुदेव के निर्देशानुसार शुरू में तीन कोठरियाँ बननी थीं। मैं उनके बताए अनुसार कार्य में लग गया। गुरुदेव मथुरा होते हुए दौरे पर निकल गए। अप्रैल, 1969 में वे पुनः आए । नवरात्रि अनुष्ठान भी यहीं रहकर किया व भविष्य के निर्माण कार्य की सारी रूपरेखा बना ली। कोई इंजीनियर नहीं, कोई आर्किटेक्ट नहीं। बस, हम दोनों व थोड़े से मजदूर। 1970 में जयपुर के श्री बिहारीलाल जी आए, उन्हीं से निर्माण संबंधी मार्गदर्शन मिलते रहे।
इसी बीच पत्र आया कि हम माता जी को उनकी “भविष्य की कर्मभूमि” दिखाने ला रहे हैं, तुम स्टेशन पर हमें मिलना। रेल के डिब्बे से तौलिया फहराते गुरुदेव-माता जी उतरे। साथ में टीन की एक पेटी। एक ताँगा किया गया, हम आगे बैठे, माताजी-गुरुदेव पीछे। सबसे पहले दक्ष प्रजापति मंदिर गए। दोनों ने वहाँ घंटे भर पूजन किया। फिर रास्ते में सब दिखाते हुए, माताजी व मेरे गुरुदेव भगवान हँसते-हँसते शाँतिकुँज पहुँचे। यहाँ मात्र तीन कमरे ही बने थे लेकिन शिव-शक्ति के युगल यहीं विराजमान हुए । हम तीनों दिन भर निर्माण-कार्य देखते। शाम को गंगाजी के तट पर बैठते। सवेरे दोनों की साधना चलती। हम माताजी के हाथ की बनी रोटी खाते थे । वोह कैसे आनंद भरे क्षण थे, सोच-सोचकर रोमाँच हो जाता है।
शेष कल वाले अंक में।
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508 कमैंट्स और 11 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो
रही है।आज चार Toppers के अंक इतने पास-पास हैं कि चारों ही गोल्ड मेडलिस्ट हैं उनको बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-24,(2)नीरा त्रिखा-38,(3)पुष्पा सिंह-25,(4)अरुण वर्मा-24,(5)चंद्रेश बहादुर-37,(6)संध्या कुमार-33,(7)सुजाता उपाध्याय-39 ,(8)पूजा सिंह-29,(9) वंदना कुमार-24,(10 )मंजू मिश्रा-24,(11)सरविन्द पाल-25