वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुपूर्णिमा 2024 को समर्पित लेख श्रृंखला का प्रथम लेख 

15 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद

पौराणिक मान्यता के अनुसार गुरु पूर्णिमा को महाभारत के रचयिता वेद व्यास का जन्म दिवस माना जाता है। उनके सम्मान में इस दिन को “व्यास पूर्णिमा” भी कहा जाता है। शास्त्रों में यह भी कहा जाता है कि गुरु पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास ने चारों वेद की रचना की थी और इसी कारण से उनका नाम वेद व्यास पड़ा। 

हिंदू कैलेंडर के अनुसार यह त्योहार हर वर्ष  के आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष गुरु पूर्णिमा 21 जुलाई 2024 को मनाई जाएगी। गुरु पूर्णिमा का महत्व गुरु और शिष्य के पवित्र संबंध का प्रतीक है। इस दिन, शिष्य अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनके ज्ञान और मार्गदर्शन के लिए उनका सम्मान करते हैं।

लेख श्रृंखला का शुभारम्भ करने से पहले, इस लेख शृंखला की रचना में गुरुदेव द्वारा प्रदान किए  गए  मार्गदर्शन का संक्षेप वर्णन करना उचित  समझते हैं । 

आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी  की पुस्तक में अनेकों स्थान पर शुक्ला बाबा जी को रमेश चंद्र के बजाए राम चंद्र लिखा गया है। राम चंद्र और रमेश चंद्र की DISCREPANCY की जिज्ञासा को शांत करने के लिए गूगल महाराज का सहारा लिया। एकदम खटाखट रामचंद्र सिंह जी का नाम प्रकट हो उठा। रामचंद्र सिंह जी को गुरुदेव के प्रारंभिक शिष्यों में से एक कहे जाने का श्रेय प्राप्त है, एक ऐसे शिष्य जिन्हें परमपूज्य गुरुदेव ने परमवंदनीय माताजी के पास सेवा हेतु शाँतिकुँज में नियुक्त किया। शाँतिकुँज की शैशव अवस्था में जब स्वयं पूज्यवर हिमालय प्रस्थान कर चुके थे, उन्हें इस छोटे से आश्रम की गौशाला सहित परमवंदनीय स्नेहसलिला माता जी के चरणों में भी बैठने का सौभाग्य मिला।  इतना लोकप्रिय, महत्वपूर्ण नाम कि  गुरुकथामृत श्रृंखला के अंतर्गत जनवरी/फ़रवरी 2003 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख प्रकट हो आए। लेख देखते ही हमें ऐसे अनुभव हुआ जैसे कोई खजाना ही मिल गया हो। डॉ ओ पी शर्मा जी की लेख शृंखला के साथ-साथ एक और शिष्य का प्रकट होना अवश्य ही गुरुकृपा ही है। अपने साथिओं से आज्ञा लेकर डॉ साहिब पर आधारित लेख श्रृंखला को अल्प विराम देकर आदरणीय रामचंद्र सिंह जी की लेख शृंखला को गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर प्रकाशित करना हमारे लिए बहुत ही सौभाग्य का क्षण है। 

आखिर क्या है इस लेख शृंखला की विशेषता ?

रामचंद्र सिंह जी की गुरुभक्ति तो हम प्रत्येक शब्द में आने वाले दिनों में देखते ही जायेंगें लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथियों को रामचंद्र सिंह जी का दिव्य सानिध्य अनुभव होगा क्योंकि बिहार प्रदेश के जिस स्थान (आरा) की बात हो रही है, हमारे अनेकों साथी इसी स्थान  के निवासी हैं। इसके साथ ही आने वाले दिनों में अरुण जी द्वारा आयोजित हो रहे 5 कुंडीय यज्ञ के लिए सूक्ष्म मार्गदर्शन मिलेगा, अरुण जी स्वयं को रामचंद्र जी भूमिका में अनुभव करेंगें। 

परिवार के प्रत्येक सदस्य का परम कर्तव्य है कि अरुण जी के इस पुरषार्थ में सूक्ष्म आशीर्वाद देते हुए सफलता की करें क्योंकि यह परिवार का ही कार्य हैं। 

लेख को रोचक एवं जानकारी को कम्पलीट करने की दृष्टि से हमारे साथी यथास्थान  हमारे विचार भी देखते रहेंगें।  

तो आइए गुरुपूर्णिमा के उपलक्ष्य में रची गयी इस दिव्य लेख शृंखला के प्रथम लेख का अमृतपान,गुरुचरणों में समर्पित होकर करें 

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धर्मचक (यदुरामपुर) जिला छपरा, बिहार निवासी श्री रामचंद्र सिंह एक विनम्र सेवक के रूप में अपनी आराध्य सत्ता परमपूज्य गुरुदेव के साथ वर्षों रहे। उन्हें उन प्रारंभिक शिष्यों में से एक कहे जाने का श्रेय प्राप्त है, जिन्हें परमपूज्य गुरुदेव ने परमवंदनीय माताजी के पास सेवा हेतु शाँतिकुँज में नियुक्त किया। शाँतिकुँज की शैशव अवस्था में जब स्वयं पूज्यवर हिमालय प्रस्थान कर चुके थे, उन्हें इस छोटे से आश्रम की गौशाला सहित परमवंदनीय स्नेहसलिला माता जी के चरणों में भी बैठने का सौभाग्य मिला। वे अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी अपने हृदयेश्वर-श्री गुरुदेव भगवान के संबंध में अनुभूतियाँ आने वले लेखों में प्रस्तुत की जा रही हैं।

रामचंद्र जी लिखते हैं: 

वर्ष 1958 के सहस्र कुँडी यज्ञ में धर्मचक (जो मेरे  गाँव से एक मील दूर स्थित है) के श्री रमेशचंद्र शुक्ला  गए थे। उनको मैं बचपन से एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में जानता था। यज्ञ से लौटकर आए, तो मेरे लिए प्रसाद रूप में “अखण्ड ज्योति” पत्रिका लाए। मैं उसे पढ़ने लगा। नियमित प्रति माह पत्रिका आने लगी। पता चला  कि उन्हीं दिनों 1959 के जून माह  में  श्री शुक्ला  जी का मथुरा जाने का योग बन रहा है। मेरे भतीजे जलेसर के अस्वस्थ होते हुए भी मन में आकाँक्षा जगी कि उनके साथ जाकर अपने आराध्य का दर्शन करूं जिन्हें मन-ही-मन मैं गरु के रूप  में स्वीकार कर चुका था। 

प्रथम दर्शन 8  जुलाई, 1959 को मथुरा में घीयामंडी स्थित घर में हुए। 

यह वही घर है जो मथुरा में  “भुतहा घर/अखंड ज्योति संस्थान” के नाम से प्रसिद्ध है। आजकल (2024 में) इस पुरानी बिल्डिंग का जीर्णोद्धार (Renovation) हो रहा है  और अखंड ज्योति का प्रकाशन मथुरा-वृंदावन रोड पर बिरला मंदिर के सामने, जयसिंहपुरा से हो रहा है। 

“तुम आए नहीं हो,हमने तुम्हें बुलाया है”,  यह एक ऐसा वाक्य है जिसे आदरणीय चिमन्य जी एवं हमने भी इस परिवार के मंच पर न जाने कितनी ही बार दोहराया है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से अनवरत उठती टीस “हम जिसको भी इस परिवार में लाने का प्रयास करते हैं, कोई भी सुनता नहीं है” उस समय नकार दी जाती है जब इस बात की समझ आ जाती है कि इस परिवार में गुरुदेव की आज्ञा के बिना किसी का भी प्रवेश नहीं हो सकता। शिष्य की पात्रता देखकर गुरुदेव स्वयं ही बुला लेते हैं , appointment letter ऑफर कर देते हैं, इस छोटे से, किन्तु समर्पित परिवार के अनेकों साथिओं ने ऐसी अनुभूतिओं से हमारा मार्गदर्शन किया है /कर रहे हैं।         

राम चंद्र सिंह जी कहते हैं : 

मेरी उनके साथ हिमालय चलने की इच्छा पर गुरुदेव बोले कि वह कार्य हमारे अकेले का है। तुम्हें आगामी 10  वर्ष तक पूरे भारतवर्ष में यज्ञों का आयोजन करना है। खूब भ्रमण करना है। हम तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अभी डेढ़ वर्ष हम हिमालय अज्ञातवास पर रहेंगे। 1962 की अष्टग्रही की भविष्यवाणी से परेशान मत होना। वह तो नए युग का संदेश लेकर आ रही है। महाविनाश या प्रलय जैसा कुछ नहीं होगा। हम परम पूज्य हृदयेश्वर का आदेश सिर-माथे रख चले आए।

आगे चलने से पूर्व अष्टग्रही के बारे में जानना उचित रहेगा : 

5 फरवरी सन् 1962 को कालकूट नामक “अष्टग्रही योग” पड़ा था। एक स्थान पर अनेक ग्रहों का एकत्रित होना अनिष्टकारक माना जाता है, इसलिये इस घटना को लेकर देश-विदेश में तरह-तरह की भविष्यवाणियाँ की गई थीं। महाभारत युद्ध के समय एक राशि पर सात ग्रह आने से विश्व-युद्ध जैसी विभीषिका आई थी और उससे व्यापक मार-काट और जन-धन की हानि हुई थी, इसलिये उस घटना को ही आधार मानकर दैवज्ञों ने यह आशा व्यक्त की थी कि इस, ग्रह-योग से विनाश के दृश्य उपस्थित होंगे। संसार में भीषण तोड़-फोड़, मार काट और विस्फोट होंगे और प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।

एक स्थान पर अनेक ग्रहों का एकत्रित होना, उसी प्रकार होता है जिस तरह देश की आपातकालीन स्थिति के समय चोटी के नेता बैठते हैं और विचार विनिमय करते हैं कि ऐसी स्थिति को कैसे सम्भाला जाय। जो निर्णय और निष्कर्ष लिये जाते हैं, उन्हें तत्काल लागू कर दिया जाना ही न तो कोई सिद्धान्त है और न ऐसा होता ही है । निष्कर्षों पर देर तक विचार विमर्श चलता रहता है, तब कहीं कार्यक्रम क्रियान्वित हो पाते हैं, यदि नेताओं में परस्पर भिन्न मत हों तो निर्णयों में प्रायः और भी देर होती है पर एक बात सर्वथा सत्य है कि किसी न किसी रूप में इस तरह के सम्मेलन कुछ नई तरह की हलचलें, तीव्र प्रतिक्रिया वाले निर्णय देने वाले होते हैं, उनसे कुछ न कुछ उखाड़-पछाड़ होतीअवश्य है।

यह ग्रहयोग ऐसा ही था। इसे अंश योग भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चन्द्रमा 4 फरवरी सायं  5:35 को सूर्य के साथ हो लिया था, ग्रहों की बैठक में दोनों साथ-साथ आये थे, किन्तु 5 फरवरी सांय 5:48 होते ही चन्द्रमा मकर राशि को पार कर 300 अंश आगे निकल गया। इससे वह कुम्भ का साथी हो गया और इस तरह अष्टग्रही योग सप्तग्रही योग ही रह गया।

राम चंद्र सिंह जी बताते हैं कि अक्टूबर 1961 में आरा (बिहार) के  पाँच कुँडी गायत्री यज्ञ में गुरुदेव आने वाले थे। मैं भी अपने गाँव से 52 व्यक्तियों को लेकर चार दिन के लिए आरा  यज्ञ में गया था।  गुरुदेव जिस कमरे में ठहरे थे, उन्होंने वहाँ मुझे अकेले बुलाया।  

गुरुदेव ने  तीन माह बाद होने वाली चाँद्रायण व्रत शृंखला हेतु बुलाया। मैं वह सत्र  करके आया। मुझे प्रतिवर्ष गायत्री तपोभूमि आते रहने का आदेश मिला। 

गुरुदेव भगवान के आदेश पर ही मैं पैसा कमाने हेतु आसाम गया। यह सुयोग सहज ही बन गया तो मैंने भी संकल्प लिया कि मैं काम के साथ-साथ, कम से कम 108 “अखण्ड ज्योति” के सदस्य बनाऊँगा। 1964 के मार्च में मैं आसाम चला गया था। दुमदुमा के भाई राजकुमार जी  ने हमसे चर्चा में कहा, हम चार भाई हैं। बँटवारा होने की नौबत आ गई है। सारा परिवार बिखर जाएगा। आप कुछ कराइए। मैंने कहा कि किसी ब्राह्मण से घर में गायत्री यज्ञ कराइए, सब ठीक हो जाएगा। राजकुमार जी बोले, आपको तो आता ही है, आप ही यज्ञ संपन्न करा दीजिये। यज्ञ कराया,एक व्यक्ति को अखण्ड ज्योति का ग्राहक बनाने हेतु बिठा दिया, पूर्णाहुति हुई, कुंवारी  कन्याओं का भोजन हुआ।  उस एक  यज्ञ में ही मेरे संकल्पित 108 परिजन अखण्ड ज्योति के ग्राहक बन गए । मेरा संकल्प पूरा हो गया। मैं स्वयं देखकर गदगद था कि कितना शानदार यज्ञ रहा। यह यज्ञ मात्र पाँच कुंडीय यज्ञ था एवं मेरे जैसा अनगढ़ किताब पढ़-पढ़ कर उसे करा रहा था। जिस परिवार में यज्ञ कराया, उसका अटल विश्वास था कि गुरुदेव एवं यज्ञ पिता ने गायत्री माता को मनवा लिया था क्योंकि यज्ञ के बाद चारों भाइयों के बीच समझौता हो गया; पूरा परिवार एक हो गया व सब के  काम बाँट दिए गए। सारा परिवार गुरुदेव भगवान के दर्शन करके आया।

इसके आगे का विवरण और भी रोचक है लेकिन शब्द सीमा आज्ञा नहीं दे रही। 

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635 कमैंट्स और 12   युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो 

रही  है।आज गोल्ड मैडल का सम्मान आदरणीय सुजाता  बहिन जी को जाता है, उनको बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्। 

(1)रेणु श्रीवास्तव-52  ,(2)नीरा त्रिखा-  ,(3)सुमनलता-36 ,(4)अरुण वर्मा-42  ,(5)चंद्रेश बहादुर-44,(6)संध्या कुमार-40 ,(7)सुजाता उपाध्याय-60 ,(8)राधा त्रिखा-34 ,(9) वंदना कुमार-32 ,(10 )मंजू मिश्रा-35 ,(11)सरविन्द पाल-49,(12)पूजा सिंह-25  


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