11 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद
आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख शृंखला का आज 11वां लेख प्रस्तुत है। डॉ साहिब द्वारा रचित इस ज्ञान के अथाह सागर में से डुबकी मार कर, हम अमूल्य रत्न ढूंढ कर, जाँच परख कर अपने साथिओं के साथ दैनिक गुरुकक्षा में चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। साथिओं के कमैंट्स से पता चल रहा है कि उन्हें इस श्रृंखला के सभी लेख अति रोचक एवं ज्ञानवर्धक लग रहे हैं , हों भी क्यों न क्योंकि हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द ऐसा कुछ संजोए हुए है कि सचमुच अमृत ही है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित साथिओं के लिए इससे बड़ा सौभाग्य कोई हो ही नहीं सकता कि डॉ साहिब की इस रचना से हम (विशेषकर वोह परिजन जिन्हें गुरुदेव के साक्षात् दर्शन न हो पाए ) स्वयं गुरुदेव का सानिध्य अनुभव कर रहे हैं।
आज के लेख में परम पूज्य गुरुदेव के प्रति श्रद्धा और विश्वास को दर्शाते 3 संस्मरण प्रस्तुत किये गए हैं जिनमें से एक तो हमारे परिवार के अति समर्पित आदरणीय साथी चंद्रेश बहादुर जी के नगर प्रतापगढ़ से ही सम्बंधित है। हमने रिसर्च करके गायत्री ज्ञानमंदिर प्रतापगढ़ के बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया लेकिन कुछ भी न मिला, आशा करते हैं कि आदरणीय चंद्रेश जी अवश्य ही इस विषय पर अपना योगदान देंगें।
हमारे साथिओं ने कमैंट्स के माध्यम से नोटिस किया होगा कि आदरणीय डॉ शर्मा जी से सम्बंधित कुछ नए साथिओं (प्रवीण शर्मा,राघव शर्मा,cpsingh) ने कमेंट किये हैं उनका ह्रदय से स्वागत/धन्यवाद् है।
हमारे साथिओं को स्मरण होगा कि इस वर्ष गुरुपूर्णिमा 21 जुलाई रविवार को है। इस उपलक्ष्य में आने वाले सोमवार से डॉ साहिब की पुस्तक को अल्प विराम देते हुए, अखंड ज्योति में प्रकाशित दो लेखों पर आधारित लेख श्रृंखला प्रस्तुत करने की योजना है, बाकि जैसा गुरुदेव चाहेंगें वैसा ही होगा । इन लेखों को पढ़कर हमारी तो आँखें ही चुँधिया गयी थी, केवल यही शब्द निकले थे, “Oh my God, ऐसे थे हमारे गुरुदेव”
आदरणीय सुमनलता बहिन जी के अनुसार गुरुवार का प्रज्ञागीत गुरुवर को ही समर्पित होना चाहिए।
तो साथिओ अब समय है सीधा गुरुकक्षा की ओर कदम बढ़ाने का।
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1.तुम तो केवल ज्ञानरथ चलाओ:
श्री बैजनाथ पाण्डेय जी, रिटायर्ड क्लास वन रेलवे गार्ड,अयोध्या शक्तिपीठ के बड़े विनम्र और निष्ठावान् वरिष्ठ कार्यकर्त्ता थे। 90 वर्ष की आयु में भी साइकिल से अखण्ड ज्योति पत्रिका का वितरण किया करते थे। पूज्यवर को अयोध्या का समाचार देने गये तो कहने लगे, “गुरुदेव जी, अयोध्या बाबाओं का स्थान है, शक्तिपीठ नहीं बन पा रही है।” परम पूज्य गुरुदेव जी ने कहा:
“बेटा शक्तिपीठ हम बनवायेंगे, तुम तो केवल ज्ञानरथ चलाओ, शक्तिपीठ की चिन्ता छोड़ दो ।”
प्रस्तुतकर्ता ने भी उनसे कहा, “योजना तो परम पूज्य गुरुदेव जी एवं वन्दनीया माताजी की है, हमारी-आपकी नहीं है । जो उनकी आज्ञा हो, बस उसी को करना चाहिए ।”
श्री बैजनाथ पाण्डेय जी ज्ञानरथ चलाने लगे। उनके अयोध्या जाने के बाद एक माह भी नहीं बीता था कि श्री विश्वनाथ उपाध्याय जी ने कलकत्ता से आकर हनुमान् गढ़ी में हनुमान् जी के दर्शन के बाद कनक भवन का दर्शन किया, तत्पश्चात् गायत्री शक्तिपीठ प्रांगण पर गये। पाण्डेय जी ने उनको चाय-पानी कराया। भूमिपूजन का स्थान दिखाया और उपाध्याय जी ने कहा,
“अगर आप लोग स्वीकार करें, तो हम अकेले मन्दिर एवं गायत्री माता की स्थापना का खर्च वहन करेंगे।”
उपाध्याय जी ने पूरा सहयोग देकर शक्तिपीठ बनवा दिया। प्राण प्रतिष्ठा के बाद पूज्यवर का दर्शन करने के लिए शान्तिकुञ्ज गये। इस पर विश्वास बढ़ा कि लक्ष्य पूरा होने के लिए शंका करने में नहीं, केवल आज्ञा पालन करने में अपना एवं समाज का कल्याण है।
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2.बन्धन से मुक्ति:
वर्ष 1989 में चार माह की प्रव्रज्या से लौटने के पश्चात् प्रतापगढ़ शहर में निर्मित अपने निजी भवन “गायत्री निकेतन” को देखने गये एवं दो रात रुके। भवन के प्रति मोह जागृत हो गया, इस मोह के जागृत होने से हम स्वयं घबरा गये, जो निष्ठा में कमी का संकेत था। हमारी आत्मा से आवाज आयी, “मोह क्यों जागृत हो रहा है ?” तीसरे दिन हम शान्तिकुञ्ज आ गये । वन्दनीया माताजी का दर्शन एवं आशीर्वाद लेकर ऊपर परम पूज्य पिताजी का दर्शन करने गये, नमन-वन्दन के पश्चात् परम पूज्य पिताजी ने कहा, “बेटा, सब ठीक है?” हमने आपबीती घटना सुना दी। परम पूज्य पिताजी टहलने लगे, कृपा कर कहा, “बेटा,हम तुम्हें मोह तो होने नहीं देंगे, प्रतापगढ़ का मकान और गाँव की जमीन सब बेच दो।” हमने कहा, “ऐसा ही करेंगे।” धर्मपत्नी डॉ. गायत्री जी ने कहा कि पूज्य गुरुदेव ने कहा है, तो बेचने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देनी चाहिए। मकान के निर्माण के समय, नींव में 1008 गायत्री महामन्त्र यज्ञभस्म को डालकर,1978 में निर्माण प्रारम्भ हुआ था और 1979 में लगभग पूर्ण हुआ था। वह मकान लगभग 8 लाख रुपये में श्री भोला सिंह ने खरीद लिया। गाँव में अलग-अलग स्थानों पर काफी ज़मीन थी। हम सोचते थे कि गाँव के लोग सक्ष्म भी नहीं हैं, कैसे बिकेगी, लेकिन गुरुदेव की इच्छा थी, लोग खरीदने को तैयार हो गये। गुरुदेव जी की इच्छा पूरी करने में दोनों भाइयों प्रोफेसर विश्वप्रकाश त्रिपाठी और इन्द्र प्रकाश का पूरा सहयोग रहा। केवल ग्राम ब्राह्मणपुर का मकान जो 1960 में पिता, डॉ. यज्ञदेव शर्मा जी एवं माता श्रीमती इन्द्रा देवी जी ने बनवाया था, इसे यथावत रखा गया। 1962 में,इस मकान में 15 दिनों तक स्वामी अखिलानन्द जी द्वारा यजुर्वेद का यज्ञ, सम्पन्न कराया गया था जिसमें माता-पिता एवं अन्य लोगों ने भाग लिया, प्रतिदिन सैकड़ों लोग प्रसाद ग्रहण करते थे। 12 जून (मंगलवार) 1962 गायत्री जयन्ती को पूर्णाहुति पर इन्द्र भगवान् की प्रसन्नता से हलकी जल वृष्टि हुई, जिसे स्वयं प्रस्तुतकर्ता ने अपनी आँखों से देखा। वर्ष 1962 से लेकर 9 नवम्बर 1987 तक, जिस दिन पिताजी ने शरीर छोड़ दिया,इस “इन्द्रा यज्ञभवन” में नियमित यज्ञ सम्पन्न होता रहा।
परम श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी एवं श्रद्धेया शैल बहन जी, प्रमुख अखिल विश्व गायत्री परिवार ने उस मकान को “गायत्री ज्ञान मन्दिर” नाम दिया। उसी के अन्तर्गत गायत्री प्रज्ञापीठ का भी निर्माण हो गया है एवं परम श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी एवं श्रद्धेया शैल बहन जी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में, गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा, शान्तिकुञ्ज टोली द्वारा सम्पन्न हुई।
शान्तिकुञ्ज के बाईलॉज Bylaws के अनुसार 2012 में “इन्द्रा-यज्ञ गायत्री परिवार ट्रस्ट” बना दिया गया है। उसी के अन्तर्गत व्यक्ति, परिवार और समाज निर्माण का कार्य चल रहा हैं।
इस तरह परम पूज्य पिताजी एवं परम वन्दनीया माताजी की कृपा से उस पवित्र स्थान का सदुपयोग कराकर माता-पिता को आत्मिक शान्ति के साथ-साथ, हम सब को शान्ति एवं सन्तोष प्राप्त हो रहा है। बार-बार माता-पिता जी के स्वप्न में दर्शन देना समाप्त हो गया और हम लोग बन्धन से मुक्त होकर श्रद्धा, समर्पण एवं निष्ठा में अप्रत्याशित प्रगति प्राप्त करके संतुष्ट हुए हैं ।
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3.अज्ञात की अनुभूति (Feeling of Unknown)
अक्टूबर 1992 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के फलस्वरूप मात्र 125000 रुपये जीपीएफ का भुगतान हुआ। इसमें से 100000 रुपये एमजी मार्ग लखनऊ की स्टेट बैंक शाखा में हमने एक वर्ष के लिए फिक्स डिपॉजिट कर दिए । डिपॉजिट के लगभग 15 दिन बाद ही यज्ञ करते समय अन्दर से आवाज आयी कि तुमने रुपया क्यों जमा कर दिया। साथ ही परम पूज्य गुरुदेव जी का वह शब्द याद आ गए , जो उन्होंने 1986 में कहे थे,
“बेटा, तुमने बचाया क्यों ? वह भी बाँट देते। वन्दनीया माताजी के चरणों में भेंट करो।”
धर्मपत्नी गायत्री जी की पूर्ण सहमति से बैंक जाकर हमने एफडी समाप्त कर, एक लाख रुपये का ड्राफ्ट वेदमाता गायत्री ट्रस्ट हरिद्वार के नाम बनवाया। जब हमने वन्दनीया माताजी को ड्राफ्ट प्रस्तुत किया तो कहने लगीं कि बेटा,अपने पास रख लो, बच्चों के काम आयेगा। क्षणभर के बाद अन्तरात्मा से आवाज आयी, वहीं हमने वन्दनीया माताजी से प्रार्थना करते हुए निवेदन किया
“त्वमेव माता च पिता- -आप हैं तो हमको कभी भी किसी चीज की कमी नहीं पड़ेगी।”
हृदय की प्रार्थना एवं समर्पण भाव को देखते हुए वन्दनीया माताजी ने स्वीकार करते हुए सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
इस घटना में वह चिर प्रतीक्षित जिज्ञासा, जिस सत्ता को मानव “त्वमेव माता च पिता त्वमेव” कहकर प्रार्थना करता है, वह मानव की माता के रूप में एवं परम पूज्य गुरुदेव जी मानव के पिता के रूप में साक्षात् विराजमान हैं। वह अखण्ड दीप के स्वरूप में सबके हृदय में निवास करते हुए एवं वही सूर्य में अवस्थित होकर सविता शक्ति द्वारा अपनी लीला कर रहे हैं। हमारे उद्विग्न मन को शान्ति का आभास हुआ और वर्ष 1958 से खोये हुए “अज्ञात की अनुभूति” से प्रबल जिज्ञासा का समापन हो गया। यह अकाट्य सत्य, जिसकी अमिट छाप मन पर पड़ गयी है, उसे न तो शब्दों में बाँधा जा सकता है और न दिखाया जा सकता है। इस प्यासी आत्मा को वन्दनीया माताजी ने कृपा कर अपना स्वरूप अनुभव कराकर, कल्याण कर दिया जिसकी फलश्रुति अकाट्य श्रद्धा के रूप में विकसित होकर पूर्ण समर्पण एवं सक्रियता में बदल गयी। इस दिव्य अनुभूति को निरन्तर एक आध्यात्मिक विद्यार्थी की तरह स्मरण करते रहते हैं, जिससे शान्ति, शक्ति व दिशाबोध होता रहता है। हे प्रभो ! ऐसी ही कृपा आप सब पर करें, यही प्रार्थना है।
जून 1958 में जिस स्पष्ट आन्तरिक आवाज ने हमें झकझोड़ा था उसका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है :
जून माह में तख़्त पर लेटे कुछ चिन्तन कर रहे थे, तभी स्पष्ट आवाज आयी
“शंका मत करो, विश्वास करो, ईश्वर है।”
आज लगभग 60 वर्ष के बाद (इस पुस्तक के लिखने के समय) भी मानस पटल पर छाप बनी हुई है। परमात्मा कहाँ है ? बार-बार मन में प्रश्न उठता था। वह परमात्मा जिसे त्वमेव माता च पिता त्वमेव….कहते हैं, कहाँ है ? यह भाव मन में सतत रात-दिन बना रहता था जिसके कारण सदा बेचैनी रहती थी, किसी से ज़्यादा बात करने का मन नहीं करता था, घूमने टहलने का मन भी नहीं करता था। मन बहलाव के रूप में मोटर को साफ करना,उसके मैकेनिज्म को समझना,चलाना व फुटबाल खेलना आदि ही थे ।
दोनों सन्ध्या के समय, गायत्री मन्त्र के बाद ओउम् का जप मन को अच्छा लगता था व शान्ति मिलती थी। प्रातः यज्ञ करते समय हिन्दी में मन्त्रों का भावार्थ पढ़ने,उनको मन लगाकर सुनने और बाद में संस्कृत में उच्चारण, विचार करना बहुत अच्छा लगता था । धीरे-धीरे मन की एकाग्रता बढ़ती चली गयी एवं शुद्ध मन्त्र का उच्चारण, पूज्य माता-पिता के साथ होने लगा। यज्ञ करते समय और बाद में अपने को अन्दर से उठा हुआ अनुभव करने लगे जिससे मन शान्त रहता था।
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इससे आगे के लेखों के लिए सोमवार को भेंट होगी, परम पूज्य गुरुदेव जैसा मार्गदर्शन देने उसका ही पालन किया जायेगा। जय गुरुदेव
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581 कमैंट्स और 11 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो रही है।आज गोल्ड मैडल का सम्मान आदरणीय संध्या बहिन जी को जाता है, उनको बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-26 ,(2)नीरा त्रिखा-47 ,(3)सुमनलता-37,(4)अरुण वर्मा-41 ,(5)चंद्रेश बहादुर-46,(6)संध्या कुमार-51,(7)सुजाता उपाध्याय-28,(8)राधा त्रिखा-32,(9) पुष्पा सिंह -25,(10)वंदना कुमार-42,(11)मंजू मिश्रा-30
