4 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद
गुरुवार के दिन गुरुचरणों में समर्पित होकर,आदरणीय डॉ ओ पी शर्मा जी द्वारा लिखित पुस्तक “अज्ञात की अनुभूति” पर आधारित लेख शृंखला का आज सातवां लेख प्रस्तुत है। हम बार-बार कहते आ रहे हैं कि ज्ञान के अथाह सागर में से कुछ अमूल्य रत्न ढूंढ कर लाना किसी अमृत-मंथन से कम नही है। हर एक पन्ना, हर एक पंक्ति, हर एक शब्द ऐसा कुछ संजोए हुए है कि हमारे लिए उसे मिस करना संभव नहीं है।
कल डॉ साहिब का मैसेज और आज उनके भाई आदरणीय प्रोफेसर त्रिपाठी जी द्वारा ज्ञानरथ में योगदान देना हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक है। आदरणीय चंद्रेश जी को डॉ साहिब ने इस पुस्तक में प्रस्तुत ज्ञान को जन-जन तक पंहुचाने के लिए कहा है, हम सब वही कर रहे हैं।
डॉ साहिब की सादगी को नमन है कि उन्होंने हमें और चंद्रेश जी को एक ही बात कही कि “हम कोई लेख थोड़े ही हैं।” यही है लेखक की महानता क्योंकि हम अनुभव कर सकते हैं कि 202 पन्नों का ग्रन्थ ऐसे ही लिखा नहीं जा सकता, हम अपने पिताजी के संस्मरण लिख रहे हैं, अभी मात्र कुछ पन्ने ही लिख पाए हैं।
साथिओं से निवेदन कर रहे हैं कि कल प्रकाशित होने वाली वीडियो से सम्बंधित डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दी गयी जानकारी अवश्य पढ़ें, शनिवार वाले विशेषांक में भी इसकी चर्चा होने वाली है कि क्या ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म तरंगों ने ही हमें, नीरा जी को और योगेश जी को जोड़ा ?
आज के लेख का शुभारम्भ वहीँ से हो रहा है जहाँ कल छोड़ा था। बहुत ही छोटे-छोटे संस्मरण हैं लेकिन सभी में- “अणु में विभु,गागर में सागर” चरितार्थ होता दिख रहा है। कोई भी ऐसा संस्मरण नहीं है जिसे मिस किया जा सके।
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गुरुदेव जी अकेले बैठे थे, चरणों पर सिर रखकर नमन किया, बाद में पिताजी ने कहा:
“बेटा, सब ठीक है ?माताजी से एक सेब ले लो और उसे प्रसाद रूप में डाल देना।”
वन्दनीया माताजी ने कृपा करके आशीर्वाद के साथ एक सेब दिया, खिचड़ी में डाल दिया और भी मीठी हो गयी, प्रसाद समझकर हमने उसे पूरा ग्रहण किया। स्वभावतः हमें नमकीन पसन्द था लेकिन ऐसा लग रहा था कि गुरुदेव ने हमारे मन को पढ़ते हुए उसको ठीक करने के लिए माताजी से आशीर्वाद दिलवाया था। शांतिकुंज के हर कमरे की तरह हमारे कमरे में भी नित्य प्रातः गुरुदेव जी का प्रवचन ब्रॉडकास्ट होता था। सुबह-शाम मिलाकर, हम प्रतिदिन 31 माला गायत्री मन्त्र का जाप एवं प्रज्ञा पुराण भाग 1 का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन मौन रहकर किया करते थे । यही क्रम नित्य चलता था । पोस्ट-ऑफिस के साथ ही नल लगा था, एक कुआँ भी था। लगभग 3.00 बजे प्रातः नीचे जाकर, वहीं स्नान करना एवं बाल्टी भरकर, ऊपर तीसरी मंजिल पर ले जाना, उत्साह एवं सन्तोष से मन भरा रहता था।
सेवा-भाव जीता और अहंकार हारा:
लगभग 5 या 6 दिन बाद ध्यान गया कि शौचालय गन्दा है, अन्दर से आवाज़ आयी, “स्वयं साफ करो।” फिर पुराने संस्कार, बस मन में दोनों बातें उठने लगीं, शौचालय साफ करें या न करें। एक दिन की बात है कि हम तीन बार साफ करने के लिए ब्रश, पाउडर लेकर गये, लेकिन लौट आये। अन्दर का अहंकार रोक रहा था, कहे जा रहा था, “नहीं करना है” और अन्तरात्मा कह रही थी,“करना है।” अन्त में सेवा-भाव जीता और अहंकार हारा। हमने तीसरी मंजिल का शौचालय अच्छी तरह से साफ किया, उसके बाद ही मन में विनम्रता एवं सेवा की भावना का जागरण हुआ, सब कुछ और अच्छा लगने लगा, स्वाध्याय व जप में मन और लगने लगा ।
मन रुकने लगा :
लगभग 9-10 दिन बीत गये, प्रतिदिन गुरुदेव की कृपा से लगभग 11:00 बजे प्रातः नमन-दर्शन-आशीर्वाद एवं प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के लिए उपस्थित होते थे । गुरुदेव जी पूछते थे, “सब ठीक है ?” हम कहते थे कि “ठीक है”; लेकिन मन कभी-कभी सुल्तानपुर एवं अन्य स्थानों पर चला जाता था।
पूज्यवर ने कृपा करके हमारे मन को देखा कि प्रयास के बाद भी यह शिष्य सफल नहीं हो पा रहा है।
एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में उपासना एव ध्यान के समय “नजदीकी दिवंगत आत्माओं का दर्शन हुआ व अनुभूति का विचार आना आरम्भ हो गया।” थोड़ी देर बाद ही बहुत नजदीकी रिश्तेदार (जैसे मामा जी, श्री विश्वनाथ मिश्रा प्रिंसिपल, सिटी स्टेशन लखनऊ, दादाजी एवं अन्य लोग) जिनके सम्पर्क में हम रह चुके थे, एक-एक करके मानस पटल पर दिखने लगे। अन्दर से आवाज आयी, “देखो, उनके न रहने से कोई कार्य रुका है क्या ? सच्चाई तो यह है कि अब और अच्छा हो गया।”
प्रश्न का उत्तर मिलता रहा, हम सन्तुष्ट होते रहे, फिर अन्त में आवाज आयी, “यदि तुम भी 40 दिन तक सुल्तानपुर में नहीं रहोगे, तो कौन सा काम रुक जायेगा ?” फिर अन्दर से ही जवाब आया, कोई भी तो नहीं।
बस मन उसी सत्य घटना के दर्शन के बाद रुकना प्रारम्भ हो गया।
फिर उसके बाद जब दोपहर में परम पूज्य गुरुदेव के समक्ष गये तो उन्होंने पूछा,”बेटा सब ठीक है ?” पूज्यवर बहुत प्रसन्न मुद्रा में थे, हमने हाथ जोड़कर कहा,” पिताजी आपकी महान् कृपा है।” नमन करके कमरे में वापस आ गये, उसके बाद हमारा मन शान्तिकुंज में ही स्थिर हो गया, सुल्तानपुर की याद न के बराबर हो गयी।
गुरुदेव से पूछा नौकरी छोड़ दूँ ?
कल्प-साधना एवं अनुष्ठान के लगभग 15 दिन बीते होंगे,हम पूज्य गुरुदेव के समक्ष बैठे हुए थे। गुरुदेव जी अखबार पढ़ रहे थे, हमने हाथ जोड़कर कहा,”पिताजी मन करता है कि नौकरी छोड़ दूँ और आपका विचार जन-जन को बाँटने के लिए परिव्रज्या (घूम-फिर का प्रचार करना) में लग जाऊँ। जिस दिन लोग आपको और आपके विचारों को जान जायेंगे, उस दिन “सर्वे भवन्तु सुखिनः ” हो जायेगा, इसके पहले नहीं हो सकता। हम चिकित्सक हैं, चिकित्सा करेंगे और आपका काम करेंगे। पूज्य गुरुदेव ने कहा,
“बेटा,तुम्हारी आत्मा ने सही समय पर सही निर्णय लिया है लेकिन अभी नौकरी मत छोड़ना, जब हम कहेंगे तभी छोड़ना।” गुरुदेव ने अनेकों लोगों के उदाहरण दिए जिन्होंने जल्दबाज़ी में नौकरी छोड़ दी और वोह कहीं के नहीं रहे। बेटा! तुम्हारा लक्ष्य हम अपने कन्धे पर बिठाकर प्राप्त करायेंगे।”
अनुष्ठान के समय अस्वाद भोजन, मन की एकाग्रता, स्वाध्याय एवं निरन्तर सद्विचारों का सम्प्रेषण आन्तरिक सन्तोष को तृप्त कर रहा था। कभी-कभी बारह बजे ही नींद खुल जाती थी, परम पूज्य गुरुदेव जी के कमरे की लाइट ठीक बारह बजे जलती थी, थोड़ी देर के बाद लाइट बुझ जाती थी। चार घण्टे के बाद फिर प्रकाश होता था, चार घण्टे(12:00 से 4:00) गुरुदेव समाधिस्थ रहते थे । प्रातः चार से आठ बजे तक गुरुदेव लिखते थे, उसी समय उनका दर्शन होता था ।
गुरुदेव ने कहा: मैं केवल शांतिकुंज में ही थोड़े रहता हूँ ?
एक दिन हम परम पूज्य गुरुदेव के समक्ष बैठे थे, नमन के पश्चात् हाथ जोड़कर हमने कहा, “पिताजी,आज हमें आपका दर्शन ऐसी स्थिति में हुआ जिसमें आप दूर कहीं पत्थर पर बैठे हुए थे।” पिताजी ने कहा,
“बेटा,मैं यहाँ कहाँ रहता हूँ, मैंने तो तुम्हें अभी अपना एक शरीर ही दिखाया है, जो हमेशा ऋषियों से बात करता रहता है, कभी वह शरीर दिखायेंगे जो सीधे भगवान् से बात करता है।”
हम अवाक् होकर परम पूज्य गुरुदेव को देखते रहे,थोड़ी देर उनके दर्शन करते रहे,समय समाप्त हुआ वापस कमरे में आ गये।
सुन्दरता का बोध:
एक दिन हमने परम पूज्य गुरुदेव जी से विनम्र भाव से कहा,”पिताजी आप काफी लिखवा रहे हैं,समर्पण, भविष्य की योजना, दिव्य अनुभूतियाँ आदि । पिताजी ने कहा- “बेटा! मैं लिखवा नहीं रहा हूँ, तुमको दे रहा हूँ।” एक दिन यज्ञ करके आ रहे थे, जहाँ अब वसिष्ठ टीन शेड है वहाँ पौधे एवं फूल लगे हुए थे। एक लाल रंग का पुष्प देखते ही परमात्मा की सुन्दरता का बोध होने लगा। यह दृश्य आज भी मानस पटल पर उपस्थित है।
मुख्यमन्त्री जी ने कहा: मैं प्रेरणा लेकर जा रहा हूँ:
हमारे अनुष्ठान के लगभग 15-16 दिन बाद,उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री श्रीपति मिश्रा का शान्तिकुंज आगमन हुआ। मन में विचार आया, इतने महान् पुरुष का पृथ्वी पर आगमन हुआ है, उत्तर प्रदेश इतना बड़ा राज्य है, मुख्यमन्त्री जी को जानना चाहिए और उसका लाभ लेना चाहिए । विचार आते ही हमने पोस्ट कार्ड लिखना प्रारम्भ कर दिया। सभी ने सहयोग किया और माननीय मुख्यमन्त्री श्रीपति मिश्रा जी 22 अक्टूबर 1982 को शान्तिकुंज परम पूज्य गुरुदेव का दर्शन करने एवं मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु पधारे। परम पूज्य गुरुदेव जी ने साहित्य केन्द्र तक स्वयं उनका मार्गदर्शन किया, तत्पश्चात् प्रवचन सभागार में गये । माननीय मुख्यमन्त्री जी ने कहा,” ऐसे ऋषियों के परामर्श से ही शासन, ठीक चल सकता है; अन्यथा शासन बिना रोकटोक का हो गया है।” परम पूज्य गुरुदेव जी ने अपने प्रवचन में कहा,
“शासन से हमको कुछ चाहिए नहीं, हम जरूर उनको जन-कल्याण के मार्ग में आगे बढ़ाने में सहयोग करते रहेंगे।”
चलते समय मुख्यमन्त्री जी ने परम पूज्य गुरुदेव जी को नमन किया और कहा, “कुछ ऐतिहासिक करने की प्रेरणा आपसे लेकर जा रहा हूँ।”
उसके बाद उनके साथ आये हुए 7 वरिष्ठ अधिकारी श्री योगेश नारायण, आई. ए. एस. प्रमुख सचिव, अन्य सचिव एवं अधिकारियों ने नमन कर भोजन प्रसाद ग्रहण किया और लखनऊ के लिए प्रस्थान किया।
लगभग 6-7 माह के बाद ही हरिद्वार में हर की पौड़ी की तरह भगवान् राम की जन्मस्थली अयोध्या में राम की पौड़ी का बहुत सुन्दर निर्माण मुख्यमन्त्री जी ने ही करवाया, जिससे उनको कीर्ति एवं शान्ति प्राप्त हुई।
मुख्यमन्त्री पद से हटने के बाद भी वे शान्तिकुंज अक्सर आया आते रहे । वे अखण्ड ज्योति पढ़ने की प्रेरणा देने के साथ-साथ शान्तिकुंज के क्रिया-कलापों में सहयोग देने एवं दिलवाने का कार्य करते रहे।
गुरुदेव उसके बाद आँवलखेड़ा नहीं गए :
27-28 अक्टूबर 1982 को लगभग 4:00 ब्रह्ममुहूर्तं में गुरुदेव अन्य लोगों के साथ आँवलखेड़ा गये। हमने ऊपर से ही दर्शन कर, मन-ही-मन प्रणाम कर लिया। संकोचवश गुरुदेव के प्रस्थान समय नीचे भी नहीं आये। उसी दिन रात में लगभग 12:00 बजे तक जन्मस्थली एवं आंवलखेड़ा ग्राम की एक परिक्रमा लगाकर पूज्यवर वापस आ गये। दूसरे दिन लगभग 12:00 बजे दोपहर शिवप्रसाद मिश्रा जी बुलाने आये, कहने लगे परम पूज्य गुरुदेव जी आपको बुला रहे हैं। हम गये और चरणों पर सिर रखकर नमन किया। पूज्य गुरुदेव कहने लगे, “बेटा,मैं आँवलखेड़ा गया था, वापस आ गया।” हमने कहा, “पिताजी जाते समय हमने देखा था।” गुरुदेव जी ने कहा, “देखा था तो फिर नीचे क्यों नहीं आये ?” हमने कहा, “संकोचवश नहीं आये।” गुरुदेव जी बोले, “बेटा,तुमको आना चाहिए था।”
यह प्रेम के साथ-साथ एक व्यावहारिक मार्गदर्शन था। इसके बाद परम पूज्य गुरुदेव जी आँवलखेड़ा कभी नहीं गये ।
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504 कमैंट्स और 9 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो रही है।आज भी गोल्ड मैडल का सम्मान आदरणीय रेणु जी को जाता है, उनको बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-53,(2)नीरा त्रिखा-40,(3)सुमनलता-38,(4)अरुण वर्मा-41,(5)चंद्रेश बहादुर-30,(6)संध्या कुमार-28 ,(7)राधा त्रिखा-31 ,(8)सुजाता उपाध्याय-30(9) विश्वप्रकाश त्रिपाठी जी-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
