2 जुलाई 2024 का ज्ञानप्रसाद
कल वाले ज्ञानप्रसाद में किये गए वचन का पालन करते हुए आज का लेख आदरणीय डॉ शर्मा जी की पुस्तक से न होकर “मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यम्” की चर्चा कर रहा है। “मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यम्” का अर्थ है गुरु वाक्य ही मूलमंत्र है, इसकी साधना से ही सब कुछ स्वयं ही हो जाता है।
इस मन्त्र को ठीक से समझने के लिए जब हमने गूगल सर्च और गूगल ट्रांसलेट का सहारा लिया तो श्रद्धेय डॉक्टर प्रणव पंड्या जी की अद्भुत रचना “गुरुगीता” से संस्कृत के तीन शब्दों का अर्थ तो समझ आ गया लेकिन उत्सुकता हुई कि गुरुगीता में प्रकाशित इस लेख को समझकर,गुरुकक्षा में अपने सहपाठिओं के साथ सामूहिक चर्चा की जाए। 258 पन्नों की इस पुस्तक में श्रद्धेय डॉक्टर साहिब ने “मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यम” शीर्षक से जिस चैप्टर का ज्ञानामृत हम सबको प्रदान किया है उसके लिए धन्यवाद् शब्द तो बहुत ही छोटा है।
हमारे साथी इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है, उसी तथ्य को दर्शा रहा है आज का ज्ञानप्रसाद लेख जिसमें साधारण से सर्वेयर, सुरेंद्र नाथ बनर्जी जी के महान सन्त महानन्द गिरी बनने का विवरण है। बनर्जी जी की श्रद्धा ने “गुरु वाक्य ही मूलमंत्र है”, के सिद्धांत का पालन किया और विश्विख्यात हो गए। गुरु के अनुदानों को प्राप्त करने के लिए पात्रता एवं कठिन परीक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। गुरु की महिमा को वर्णन करता इसी मंच पर प्रकाशित 9 मई 2023 का लेख जिसे आदरणीय सरविन्द पाल जी के सहयोग से प्रस्तुत किया गया था, हमारे साथिओं को अवश्य ही स्मरण होगा।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की गुरुकक्षा में सहपाठिओं के साथ चर्चा से बहुत कुछ जानने को मिलता है। कमैंट्स-काउंटर कमैंट्स की प्रक्रिया से हमें जो कुछ सीखने को मिल रहा है उसे शब्दों में वर्णन करना लगभग असंभव ही है। अभी कल की ही बात है आदरणीय सुरेश चंद्र जी ने अपने कमेंट में 1980 और 1981 से सम्बंधित टाइपिंग मिस्टेक को नोटिस किया था। अपनी प्रवृति के अनुसार हमने उसी समय आदरणीय डॉ शर्मा जी को सुरेश जी के कमेंट का स्क्रीनशॉट भेज दिया। बहुत बहुत धन्यवाद् आदरणीय सुरेश जी।
आज शब्द सीमा हमें कुछ ऐसा लिखने की आज्ञा दे रही है जो शनिवार के विशेषांक की पृष्भूमि है:
परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” जिसका अभी-अभी समापन हुआ है, उसमें आत्मा, शरीर, ब्रह्मंडीय Vibrations जैसी बातों की चर्चा की गयी थी। परम वंदनीय माता जी भारतीय समयानुसार प्रतिदिन शाम 6:00 बजे नादयोग से पूर्व ब्रह्मांडीय तरंगों की बात करते हैं। कनाडा समय के अनुसार प्रातः 8:30 बजे हम भी प्रतिदिन वंदनीय माता जी के साथ Live जुड़ते हैं। शनिवार को विशेषांक में हम चर्चा करने का प्रयास करेंगें कि हमारे मस्तिष्क में, आदरणीय नीरा जी के मस्तिष्क में एवं आदरणीय योगेश जी के मस्तिष्क में एक ही समय में, एक ही बात कैसे उठी,क्या यह भी कोई ब्रह्मांडीय सूक्ष्म तरंगों का प्रभाव है ? हमें विश्वास है कि हमारे साथिओं से इस प्रश्न का उत्तर अवश्य हो प्राप्त होगा।
इन्ही शब्दों के साथ अब समय है गुरुकक्षा को ओर प्रस्थान करने का।
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गुरुगीता के महामंत्रों में साधना की दुर्लभ अनुभूतियाँ सँजोयी हैं। लेकिन यह मिलती केवल उन्हें ही है, जो निष्कपट भाव से इन मंत्रों की साधना करते हैं।
यहाँ साधना का अर्थ गुरुगीता के मंत्रों का बारबार उच्चारण नहीं; बल्कि बार- बार आचरण है।
जो कहा जा रहा है, उसे रटो नहीं; बल्कि उसे जीवन में उतारो, आचरण में ढालो, उसे कर्त्तव्य मानकर करो। जो इस साधना सूत्र को स्वीकारते हैं, फलश्रुतियाँ भी उन्हीं की ही अन्तश्चेतना में उतरती हैं। सिर्फ बातें बनाने से काम नहीं चलता।
श्रीरामकृष्ण परमहंस देव कहा करते थे कि यदि घर से चिट्ठी आयी है,दो जोड़ी धोती, एक कुर्ते का कपड़ा और एक किलो मिठाई भिजवाना है,तो फिर वैसा करना पड़ेगा कि बाजार जाकर यह सामान खरीद कर भिजवाना होगा, केवल चिट्ठी रटने से काम चलने वाला नहीं है।
गुरु गीता के महामंत्रों में महेश्वर महादेव जो कुछ भी माता पार्वती से कह रहे हैं, उसके अनुसार जीवन को गढ़ना-ढालना होगा। जो ऐसा करने में जुटे हैं, उन्हें स्मरण होगा कि पिछले मंत्रों में यह कहा गया है कि गुरूदेव की चेतना ही इस जड़-चेतन, चर-अचर में संव्याप्त है। ज्ञान शक्ति पर आरूढ़ गुरूदेव प्रसन्न होने पर शिष्यों को भोग एवं मोक्ष दोनों का ही वरदान देते हैं। वे अपने ज्ञान व तप के प्रभाव से सहज ही शिष्यों के संचित कर्मों को भस्म कर देते हैं। श्री गुरूदेव से बढ़कर अन्य कोई तत्त्व नहीं है। उनकी सेवा से अधिक कोई दूसरा तप नहीं है। गुरूदेव ही जगत् के स्वामी हैं, वे ही जगत् के स्वामी हैं, वे ही जगतगुरू हैं। शिष्य के आत्मरूप गुरूदेव ही अन्तश्चेतना की सृष्टि के समस्त प्राणियों की आत्मा हैं।
ऐसे सर्वव्यापी सद्गुरू की महिमा बताने के बाद भगवान् भोलेनाथ गुरूदेव की चेतना में समाए अन्य आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर करते हैं। वे भगवती पार्वती से कहते हैं:
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् । मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥ ७६ ॥ गुरूरादिरनादिश्च गुरू: परम दैवतम्। गुरोः परतंर नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः ॥७७॥ सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानादिकं फलम् । गुरोरडिध्रपयोबिन्दुसहस्त्रांशेन दुर्लभम् ॥७८॥ हरौ रूष्टे गुरस्त्राता गुरौ रूष्टे न कश्चन। तस्मात् सर्व प्रयन्तेन श्रीगुरूं शरणं व्रजेत् ॥७९॥गुरुरेव जगत्सर्वं ब्रह्म विष्णुशिवात्मकम् । गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरूम्॥८०॥
परम पूज्य गुरूदेव की भावमयी मूर्ति “ध्यान का मूल” है। उनके चरण कमल “पूजा का मूल” हैं। उनके द्वारा कहे गए वाक्य “मूल मंत्र” हैं। उनकी कृपा ही “मोक्ष का मूल” है ॥७६|| गुरूदेव ही आदि और अनादि हैं, वही “परम देव” हैं। उनसे बढ़कर और कुछ भी नहीं। उन श्रीगुरू को नमन है ॥७७॥ सप्त सागर पर्यन्त जितने भी तीर्थ उन सभी के स्नान का फल “गुरूदेव के पादप्रक्षालन के जल बिन्दुओं का 1000वां हिस्सा भी नहीं है || ७८ || यदि भगवान् शिव स्वयं रूठ जाएँ तो श्री गुरु की कृपा से रक्षा हो जाती है; लेकिन यदि गुरू रूठ जायें तो कोई भी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता । इसलिए सभी प्रकार से कृपालु सद्गुरू की शरण में जाना चाहिए॥७९॥ ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव रूप यह जो जगत् है,वह गुरूदेव का ही स्वरूप है। गुरूदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए सब तरह से गुरूवर की अर्चना करनी चाहिए ॥
सद्गुरू चेतना की महिमा का गायन करने वाले इन मंत्रों में आध्यात्मिक जीवन के कई रहस्यों की दुर्लभ झलकियाँ हैं। गुरूदेव का ध्यान, उन्हीं की पूजा, उनके ही वाक्यों के अनुसार जीवन एवं उनकी ही कृपा से परम पद की प्राप्ति – यह साधना का सहज पथ है। वही सब कुछ है। इस सृष्टि में जो भी विस्तार है, वह ब्राह्मी चेतना के साकार रूप गुरूदेव का ही है। गुरूदेव प्रसन्न हों तो काल को भी अपने पाँव पीछे लौटाने पड़ते हैं। जो शिष्य अपने सद्गुरू की कृपा छाँव में रहता है, उसका भला कौन क्या बिगाड़ सकता है?
अपने शिष्य के जीवन के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर एवं गुरूदेव के सिवा और कोई भी नहीं । परम समर्थ एवं परम कृपालु गुरूदेव से अधिक शिष्य के लिए और कुछ भी नहीं है।
गुरु की महिमा बताने वाली एक सत्य घटना:
इस सत्य को बताने वाली एक बहुत ही प्यारी घटना है, जिसे जानकर शिष्यगणों को सहज ही गुरूदेव की महिमा का बोध होगा। यह सत्य घटना बंगाल के महान साधक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के बारे में है।बनर्जी महाशय उन दिनों सर्वेयर के पद पर कार्यरत थे। इस पद पर उनकी आमदनी तो ठीक थी लेकिन पारिवारिक जीवन समस्याओं से घिरा था। पहले बेटी का इस संसार से चला जाना और फिर पत्नी का लम्बी बीमारी के बाद देहत्याग। इन विषमताओं ने उन्हें विचलित कर दिया था। ऐसे में उनकी मुलाकात महान् सन्त सूर्यानन्द गिरी से हुई। सुरेन्द्र नाथ के विकल मन ने सन्त की शरण में छाँव पाना चाहा। इसी उद्देश्य से वह उन संन्यासी महाराज की कुटिया में गए और दीक्षा देने की प्रार्थना की।
इस प्रार्थना को सुनकर संन्यासी महाराज नाराज हो गए और उन्हें डांटते हुए बोले,
“आज तक तुमने कोई सत्कर्म किया है, जो मेरा शिष्य बनना चाहते हो। जाओ पहले सत्कर्म करो।”
उनकी इस झिड़की को सुनकर सुरेन्द्रनाथ विचलित नहीं हुए और बोले,”आज्ञा दीजिए महाराज !”
संन्यासी सूर्यानन्द गिरी ने कहा,
“इस संसार में पीड़ित मनुष्यों की संख्या कम नहीं है। उन पीड़ितों की सेवा करो।” सुरेन्द्र नाथ ने कहा,“जो आज्ञा प्रभो ! मैंने सम्पूर्ण अन्तस् से आपको अपना गुरू माना है, आपके द्वारा कहा गया प्रत्येक वाक्य मेरे लिए मूलमंत्र है। आपके द्वारा उच्चारित प्रत्येक अक्षर मेरे लिए परा बीज है।”
ऐसा कहकर सुरेन्द्रनाथ कलकत्ता चले आए और अभावग्रस्त, लाचार, दुःखी मनुष्यों की सेवा करने लगे। उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करने लगे। निराश्रितों के सिरहाने बैठकर सेवा करते हुए वे गरीबों के मसीहा बन गए। धीरे-धीरे अपनी सारी जमा पूँजी समाप्त हो जाने पर वे कुली का काम करने लगे। जो आमदानी होती, उससे अपाहिजों की सहायता करने लगे। ऐसी दशा में कई वर्ष गुजर गए। इस बीच संन्यासी सूर्यानन्द गिरी से उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई।
एक दिन जब वे कुली का काम करके जूट मिल से बाहर निकले, तो देखा कि सामने गुरूदेव खड़े हैं। सुरेन्द्र के प्रणाम करते ही उनसे गुरूदेव ने कहा- सुरेन्द्र, तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गयी है, अब मेरे साथ चलो। इस आदेश को शिरोधार्य करके वे चुपचाप गुरू के पीछे-पीछे चल पड़े। गुरूदेव उन्हें बंगाल, आसाम पार कराते हुए बर्मा (Myanmar) के जंगलों में ले गए। यही से उनकी साधना का क्रम शुरू हुआ। गुरू-कृपा से वह महान् सिद्ध सन्त महानन्द गिरी के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
आने वाले काल में जब भी कोई उनसे साधना का रहस्य जानना चाहता, तो वे एक ही बात कहते, मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं यानि गुरू वाक्य ही मूल मंत्र है। इसकी साधना से सब कुछ स्वयं ही हो जाता है।
सचमुच ही गुरूदेव की महिमा अनन्त व अपार है।
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522 कमैंट्स और 9 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो रही है।आज का गोल्ड मैडल आदरणीय संध्या जी, रेणु जी और नीरा जी को जाता है। सभी को गोल्ड मैडल जीतने की बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
आज एक बार फिर नारी शक्ति की जीत हुई है, विजय पताका ग्रहण करने के लिए बधाई।
(1)सुमनलता-32,(2)सुजाता उपाध्याय-38 ,(3)चंद्रेश बहादुर-32 ,(4)संध्या कुमार-46,(5) राधा त्रिखा-31,(6)नीरा त्रिखा-40 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-43,(8)मंजू मिश्रा-26,(9)अरुण वर्मा-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।