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18 जून 2024 का ज्ञानप्रसाद-पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” पर चंद्रेश जी एवं रेणु जी की फीडबैक 

https://youtu.be/nF6PqsTP0ZQ?si=iWdwJWpLi8Foslxa (हमारा साहित्य पढ़ाएं)

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं ने परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम दिव्य पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” का 23 लेखों के माध्यम से अमृतपान किया। हमारे पाठक समझ सकते हैं कि मात्र 37 पन्नों की छोटी सी पुस्तिका में ऐसा क्या था जिसने हमें 23 दिनों तक अध्ययन करने को प्रेरित किया। बार-बार एक कमेंट आते रहे कि “इस पुस्तक का पहले भी कईं  बार अध्ययन किया था लेकिन जिस विस्तार और सरलता से अब अध्ययन किया गया है, बहुत कुछ समझने में सहायता मिली है।” 

ज्ञान का तो कभी भी अंत नहीं हो सकता, 6 माह बाद अगर फिर से इसी पुस्तक को  फिर से पढेंगें तो न जाने कौन कौन से प्रश्न मस्तिष्क पटल पर उभर आयेगें। इसलिए ऐसा भी निष्कर्ष निकल कर सामने आया है कि इस जटिल विषय को जितना भी समझ पाए हैं पर्याप्त  है। 

इस बात का कोई महत्व नहीं है कि ज्ञानार्जन थोड़ा है यां अधिक, महत्वपूर्ण बात यह है कि जो भी ग्रहण किया उसे अंतरात्मा में कितना उतार पाए। इसी महत्व का परीक्षण करने के लिए,परम पूज्य गुरुदेव ने एक अद्भुत प्रयोग का निर्देश दिया, एक ऐसा प्रयोग जो हम सबको बताने के लिए प्रेरित करेगा कि “क्या सच में हम जान पाएं हैं कि मैं क्या हूँ ?” 

इस प्रयोग के अंतर्गत अभी तक हम चार साथिओं के विचार जान पाएं हैं, जिन्हें गुरुवार और शनिवार के दो ज्ञानप्रसाद लेखों में  प्रस्तुत किया गया था। आज का ज्ञानप्रसाद,उसी शृंखला का तीसरा लेख है जिसमें आदरणीय चंद्रेश बहादुर जी एवं आदरणीय रेणु श्रीवास्तव जी का आत्मनिरीक्षण (Self-assessment) प्रस्तुत किया गया है। बहिन रेणु  जी द्वारा लिखा वाक्य 100% सत्य है: एक अध्यापक के नाते आपने एक कठिन ‌होम वर्क दे दिया, लेकिन बहिन जी हम कहना चाहेंगें कि आसान कार्य तो सभी कर लेते हैं, आनंद तो कठिनाइओं से झूझने में  है और इस होमवर्क के परिणाम सभी के समक्ष हैं। सराहना के लिए हमारे पास तो शब्दों का जैसे अकाल ही पढ़ गया हो। 

कल इस प्रयोग का चौथा  एवं अंतिम लेख प्रस्तुत किया जायेगा, उसके आगे की रूपरेखा कल वाले लेख में ही बताना संभव होगा। 

आदरणीय सरविन्द जी द्वारा लिखा जाना कि  

“हम तो इस यूनिक टेस्ट में असफल रहे क्योंकि इधर कुछ दिनों से अत्यधिक व्यस्तता के कारण लेखों का गंभीरतापूर्वक व ध्यान की मुद्रा में एकाग्रचित्त होकर स्वाध्याय नहीं कर पाए हैं जिसके कारण हम पास होने से वंचित हो गए, बहुत प्रयास किया लेकिन परम पूज्य गुरुदेव की इच्छा नहीं थी l अतः हमें पूर्ण विश्वास हो गया कि इस दिव्य प्लेटफार्म में वही विद्यार्थी पास हो सकता है जिसने कड़ी मेहनत की है l”

हम उनकी बात से पूरी तरह से सहमत हैं कि वही विद्यार्थी सफल होता है जिसने कड़ी मेहनत की हो क्योंकि Hard work is  key to success पर वर्षों से ऐसे ही विश्वास नहीं किया जा रहा है। यही  कारण है कि इस नवीन परीक्षण प्रयोग में सभी ने A ग्रेड ही प्राप्त किया एवं किसी की भी सफलता/असफलता को पर कोई प्रतिक्रिया करना अनुचित होगा। अगर कोई अच्छा लिख रहा है तो उसकी लेखनी द्वारा आकर्षित होने को कोई ताकत नहीं रोक सकती। जिस किसी ने भी  इस मंच पर अपना स्थान बनाया है, उसका सबसे बड़ा कारण उनकी प्रतिभा ही है और हमने संकल्प लिया हुआ है कि जिस किसी में भी प्रतिभा होगी उसे प्रोत्साहित करना हमारा परम कर्तव्य है, उसकी ऊँगली पकड़ कर ऊपर उठाने को हम वचनबद्ध हैं। 

इन्हीं  शब्दों के साथ हम अद्भुत प्रयोग की अगली कड़ी की ओर रुख करेंगें।

आज संकल्प सूची प्रकाशित करना संभव नहीं हो पा रहा जिसके लिए ह्रदय से क्षमाप्रार्थी हैं। 

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चंद्रेश बहादुर जी की फीडबैक : 

पूरी पुस्तक में मात्र एक प्रश्न मैं क्या हूं,? के उत्तर को खोजने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक के अनुसार यह बताने का प्रयास किया गया है कि, पंच तत्वों से निर्मित इस शरीर का किराएदार यह आत्मा है। यह शरीर शिशु से लेकर युवा, वर्ग होता हुआ, वृद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। इन सभी अवस्थाओं में श्रेष्ठ कर्म या सत्कर्म  करने का संकल्प लिया जाता है, जिसके द्वारा यह संकल्प पूर्ण हो जाता है, उसका एवम समीपवर्ती लोगों का जीवन धन्य हो जाता है। अच्छे एवम् बुरे विचार इस संसार में अनवरत प्रवाहित हो रहे हैं, इन्हें अपने रुचि के अनुसार धारण करते हुए जो जिस प्रकार का कर्म करता है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व बन जाता है। कहा गया है:

राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।अंत काल पछ तायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट।। 146 शब्द 

रेणु श्रीवास्तव जी की फीडबैक 1: 

ऊं श्री गुरुसत्तायै नमः। गुरु चरणों में कोटि कोटि नमन। सभी सहयोगियों को सादर नमन।आज का दिव्य ज्ञान प्रसाद गुरु देव ‌की अनुपम रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख श्रृंखला का अन्तिम भाग है।अब तक के लेख से यही ज्ञात हुआ है कि उद्देश्य केवल एक ही है,” मैं क्या हूं?” इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना।

आज का विषय है “मेरी अपनी वस्तु कुछ भी नहीं,यह सम्पूर्ण वस्तु मेरी है।”

कल के लेख में विस्तार से जानकारी दी गई थी कि विश्व की सभी वस्तुएं ‌गतिशील है। गुरुदेव कहते हैं कि गतिशीलता की धारणा, अनुभूति और निष्ठा यह विश्वास करा सकता है कि सारा संसार एक है,मेरा कुछ नही है। यह संसार जीवनशक्ति का एक सागर है। जीवन इन धाराओं से होकर आगे बढ़ता जाता है। विश्वव्यापी शक्ति, चेतना और जीवन के‌ परमाणु विभिन्न अनुभूतियों को झंकृत कर रहे हैं। यह सिर्फ एक तक ही सीमित नहीं है, सारे संसार में व्याप्त है। यही आत्मा शरीर का विस्तार है। जब मनुष्य को इसकी जानकारी होगी तब वह योगी की श्रेणी में आता है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने यही कहा है कि अनंत चेतना में एकीकरण का भाव रखने वाले सबको समभाव से देखने वाला योगी होता है जो आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में तथा सम्पूर्ण भूतों में आत्मा को देखते हैं। आत्माओं की आत्माओं से आत्मीयता होती है और सब परम सत्ता से बंधे हुए हैं। यह‌ भाव‌ना के आते ही मनुष्य उस सत्ता के समीप आता है और यही “समाधि की अवस्था” है जिसे शब्दों में व्यक्त करना ‌असंभव है। समाधिस्थ होकर ही इसे प्राप्त कर सकते हैं लेकिन यह सब एक दिन में संभव नहीं हो सकता है। 

स्थूल ‌भौतिक पदार्थो की एकता का अनुभव ‌करने के बाद सूक्ष्म मानसिक एकता की कल्पना करें, आत्मा को अनुभव करें कि आत्मा नित्य,अखंड, अपरिवर्तनशील और एकरस है। आत्मा पूरे संसार ,ब्रह्माण्ड को ‌प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है। आत्मा सत्य है लेकिन उसकी सत्यता परमेश्वर है। विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है। जहां आत्मा और परमात्मा का‌ एकीकरण होता है और सोSहम् अस्मि अर्थात् वह‌ परमात्मा मैं ही हूं। इस सत्य का ज्ञान प्राप्त करना ही सच्चा ज्ञान है।

लेख के अंत में  गुरुदेव द्वारा दिए गए कुछ दिव्य मंत्र के साथ लेख का समापन किया गया है।

मैं इस प्रसंग को कितना ‌समझ‌ सकी, मालूम नहीं लेकिन  जो भी समझ आया विचारों में व्यक्त कर दिया।

रेणु श्रीवास्तव जी की फीडबैक 2 :

जय गुरुदेव, सादर नमन भाई जी। एक अध्यापक के नाते आपने एक कठिन ‌होम वर्क दे दिया। गुरु देव के साहित्य पर‌ कुछ भी ज्ञान देना हमारी धृष्टता होगी। फिर भी ‌प्रयास कर रही हूं, जैसी प्रेरणा गुरु देव से मिले।

आत्मज्ञान एक‌ गहरी और आंतरिक सामग्री है जो मनुष्य को अपने अन्तरात्मा को समझने में सहायक होता है। इसके लिए नियमितता, ध्यान, स्वाध्याय,संयम चाहिए इसके साथ जीवन के प्रति सकारात्मक सोच भी आवश्यक है।जबतक हम अपना दृष्टिकोण नहीं बदलते भौतिक जगत में ही उलझे  रहते हैं तथा असंतुष्ट एवं दुखी रहते हैं। गुरु देव ‌की पुस्तक” मैं क्या हूं?”पर आधारित लेख श्रृंखला से बहुत कुछ‌ जानने का अवसर मिला ,पर अल्प बुद्धि वैसी

 साधना और सामर्थ्य के प्रति कूल हैं। गुरु देव ‌की तरह साधना के लिए हिमालय वास नहीं कर सकते।

हम कहां जाएं, क्या करें?मन में ऐसा विचार आते ही अन्तरात्मा हमें सत्ता की ओर जाने का संकेत देती है। श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचने के लिए आरंभ से ही विवेक के साथ यात्रा करना आरम्भ करें।जीवन को सफल बनाने के लिए पहली सीढ़ी अध्यात्म है, जिसमें मुख्य धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष माना गया है। स्वयं द्वारा स्वयं की खोज सबसे महत्वपूर्ण है। धर्म का  मुख्य सार  है जीवन में संयमित होना और हृदय की पवित्रता।यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म के आधार पर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित कर वास्तविक जीवन सेवा भाव के साथ आगे बढ़ना ही सच्चा धर्म है।

धर्म के उपरांत अर्थ ,प्रगति का मूल आधार है। जीविकोपार्जन के लिए धन आवश्यक है पर धन की अधिकता होने पर लोक कल्याण में खर्च करें।अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा राष्ट्र और समाज की सेवा में लगाएं।

काम को हमारे संस्कृति में  धर्म, मर्यादा एवं संयम में बांधकर रखा है। मनुष्य जबतक अपनी भावनाओ से बंधा रहता है उसे मोक्ष नहीं मिल सकता है।मोक्ष के लिए उद्देश्य निर्धारित करना पड़ता है।व्यापक दृष्टिकोण अपना कर ही सत्य को पा सकते हैं।वही सत्य आत्मज्ञान है। जब तक आत्म बोध नहीं होता स्वयं को समझना असंभव है। जिसके लिए अबतक त्रिखा भाईजी द्वारा कितने लेख प्रस्तुत किये गये। आत्मबोध होने पर मन शांत और आनंद का अनुभव होता है। आत्मबोध और आत्म ज्ञान का परिणाम ही आनंद और परमानन्द है। जब   ” मैं क्या हूं “का उत्तर  मिलता है तब हमें आनंद स्वरूप सच्चिदानंद (सत् -चित् -आनन्द)जो आत्मा के अंश है और यही हमारा वास्तविक स्वरूप है, जो अमिट है,परम सुख है।जब आत्मा का स्वरूप जाग्रत हो जाता है कि मैं शरीर नहीं आत्मा तथा आनंद स्वरूप ईश्वर का अंश हूं तब साधक दुख सुख से परे‌ हो‌ जाता है।

यहां सबसे महत्वपूर्ण है स्वयं को जानना कि मैं क्या हूं? आत्मा एक अदृश्य शक्ति है जो हर जीवात्मा के शरीर में प्रवेश कर एक नया नाम प्राप्त करता है। आत्मा के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है। आत्मा के शरीर से अलग होते ही वह निर्जीव,एक मृत शरीर यानि लाश बन जाता है। साधना के बल पर अपने आत्मा के स्वरूप को जान सकते हैं। जब हमें आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है तो आत्मा के स्वरूप का प्रकाश पुंज के रूप में दर्शन होता है। तभी कहा जाता है…’आत्म दीपो भव।’आत्मज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् सांसारिक दुःख सुख के बंधन से मुक्त हो जाता ‌है । भौतिक जगत से मोह माया, तृष्णा समाप्त हो जाता है। आत्मा एक प्रकाश है जो साधारण प्रकाश से भिन्न है आत्मज्ञान का स्वरूप प्रकाश ही है जिसका किसी अन्य रूपों में अस्तित्व नहीं है।आत्म शक्ति परमात्म शक्ति का ही एक अंश है जो दिखाई नहीं देता। अध्यात्म के पथ पर अग्रसर हो कर हम कठिन साधना के बल पर जान सकते हैं। साधना में शून्य लोक में प्राण वायु के घर्षण ‌होने से आत्म ज्योति प्रकट होती है।यह प्रक्रिया तभी संभव है जब साधक पूर्ण मनोलय होकर समाधि की अवस्था में हो।

मेरी अल्पबुद्धि में जो कुछ भी समझ आया व्यक्त कर दिया। आगे निर्णायक तो आप है।

दोनों साथिओं का धन्यवाद् 


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