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12 जून 2024 का ज्ञानप्रसाद
युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा जी की 1940 में प्रकाशित प्रथम दिव्य रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंखला का केवल एक ही उद्देश्य है, “मैं क्या हूँ?”, प्रश्न का उत्तर ढूंढना। आज इस लेख श्रृंखला का 23वां एवं अंतिम लेख प्रस्तुत किया जा रहा है।
आज इस समापन लेख को लिखते समय हमें जितनी प्रसन्नता हो रही है, उसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।
अपने साथिओं से एक और नवीन प्रयोग करते हुए निवेदन कर रहे हैं, आशा करते हैं हमारे साथी इस प्रयोग में भी सफल होने में सहायता प्रदान करेंगें।
तो प्रयोग यह है : कल गुरुवार के दिन का ज्ञानप्रसाद हमारे साथिओं की लेखनी से ही लिखा जायेगा। सभी साथिओं को सादर निमंत्रण है कि इस लेख श्रृंखला पर आधारित अपने विचार प्रकाशित करें। हमारी अंतरात्मा कह रही है कि हमारे साथिओं के हृदयों में विचारों के सागर का ज्वारभाटा ठाठें मार रहा है। उन विचारों को प्रकट करने का यह स्वर्ण अवसर कहीं चूक न जाए। समय बहुत ही कम है, आप सभी व्यस्त भी बहुत हैं और समय केवल आज रात शुभरात्रि सन्देश मिलने तक का ही है।
कार्य कठिन तो है ही लेकिन रोचक भी बहुत है, परिश्रमी साथी इतने अच्छे-अच्छे कमेंट लिख रहे हैं तो यह Assignment नया प्रयोग कराएगी।
तो अब चलते हैं गुरुकक्षा की ओर, हमारी भेंट अब वीडियो कक्षा में ही होगी।
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कल वाले लेख को ही आगे बढ़ाते हुए गुरुदेव हमें बता रहे हैं कि विश्व की दृश्य-अदृश्य सभी वस्तुओं की गतिशीलता की धारणा,अनुभूति और निष्ठा यह विश्वास करा सकती है कि संपूर्ण संसार एक है। एकता के आधार पर ही उसका निर्माण हुआ है। मेरी अपनी वस्तु कुछ भी नहीं है, यह संपूर्ण वस्तुएँ मेरी है। तेज़ बहती हुई नदी के बीच धार में आपको खड़ा कर दिया जाए और पूछा जाए कि पानी के कितने और कौन से परमाणु आपके हैं, तब क्या उत्तर दोगे, विचार करोगे कि पानी की धारा बराबर बह रही है। पानी के जो परमाणु इस समय मेरे शरीर को छू रहे हैं, पलक मारते-मारते बहुत दूर निकल जाएँगे। जलधारा बराबर मुझ से छू कर चलती जा रही है, तब या तो संपूर्ण जलधारा को अपनी बताओ या यह कहूँ कि मेरा कुछ भी नहीं है, यह विचार कर सकते हो।
यह संसार, जीवन और शक्ति का समुद्र है। जीव इसमें होकर अपने विकास के लिए आगे को बढ़ता जाता है और अपनी आवश्यकता अनुसार वस्तुएँ लेता और छोड़ता जाता है। प्रकृति मृतक नहीं है क्योंकि जिसे हम भौतिक पदार्थ कहते हैं, उसके समस्त परमाणु तो जीवित हैं, सभी परमाणु अनंत ऊर्जा से उत्तेजित होकर लहलहा रहे हैं,चल रहे हैं,सोच रहे हैं और जी रहे हैं। इसी जीवित विशाल महासागर की सत्ता के कारण हम सब की प्रत्येक गतिविधि चल रही है। हम सब इस महासागर के छोटे-छोटे तालाबों की मछलियाँ हैं। विश्वव्यापी शक्ति, चेतना और जीवन के परमाणु विभिन्न अनुभूतियों को झंकृत कर रहे हैं।
ऊपर लिखी पंक्तियों की अनुभूति आत्मा के उपकरणों और वस्त्रों के विस्तार के लिए काफी है। हमें सोचना चाहिए कि यह सब उपकरण केवल हमारे शरीर के लिए हैं, जिनमें एक ही चेतना ओतप्रोत हो रही है। हमें स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि जिन भौतिक वस्तुओं तक हम स्वयं को सीमित रख रहे हैं क्या हमारा संसार इतना ही है ? तुरंत उत्तर मिलेगा ,नहीं हमारा अस्तित्व, हमारा संसार प्रतक्ष्य से कहीं बड़ा है। हमें अब उस से बहुत आगे बढ़ना होगा। हमें इस धारणा से आगे चलना होगा कि “विश्वसागर की इतनी बूँदें ही मेरी हैं”,यह सरासर गलत है एवं मानस भ्रम है। मेरा अस्तित्व मात्र मेरे तक ही सीमित नहीं है, मैं इतना बड़ा वस्त्र पहने हुए हूँ जिसके आँचल में समस्त संसार ढका हुआ है।
“यही आत्मशरीर का विस्तार है”, केवल ऐसा अनुभव करते ही मनुष्य उस श्रेणी पर जा पहुंचेगा, जिस पर पहुँचा हुआ मनुष्य “योगी” कहलाता है।
गीता कहती है कि सर्वव्यापी अनंत चेतना में एकीकरण का भाव रखने वाला मनुष्य,सबको समभाव से देखने वाला योगी होता है जो आत्मा को संपूर्ण भूतों में और संपूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है। आत्माओं की आत्माओं में तो आत्मीयता है ही, ये सब आत्माएं एक दूसरे के माध्यम से परम-आत्मा (परमात्मा),परम-सत्ता से बँधे हुए हैं। अधिकारी आत्माएं आपस में एक हैं। ईश्वर इस एकता के बिल्कुल निकट हैं । ऐसी स्थिति एवं भावना के उजागर होते ही मनुष्य,परमात्मा के दरबार में प्रवेश पाने योग्य और उस परम सत्ता के साथ घुल-मिल जाने की Priority ticket हासिल कर लेता है, उसे VIP दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। हम जिस VIP टिकट की बात कर रहे हैं,हमारे साथी उससे भलीभांति परिचित हैं। शायद उनमें से कइयों ने अपने साधनों का प्रयोग करके यह VIP टिकटें ली भी होंगीं, लेकिन हमारे गुरुदेव बिना किसी पैसे के, पद आदि के, फ्री में परमात्मा के दरबार की एंट्री टिकट दिला रहे हैं, गुरुदेव के समक्ष नतमस्तक होकर एक वंदन तो बनता ही है।
यह एक ऐसी दशा होती है जिसका शब्दों वर्णन करना असंभव है। इस “अनिर्वचनीय आनंद में प्रवेश करना ही समाधि है” और इस आनंद का निश्चित परिणाम स्वतंत्रता, स्वराज मुक्ति एवं मोक्ष ही है
एकता का अनुभव करने का अभ्यास:
यह एक ऐसा अनुभव है जिसे करने के बाद, “संसार आपका और आप संसार के हो जाओगे”
ध्यानावस्थित होकर भौतिक जीवन प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रम्हाण्डों में एक ही चेतना शक्ति लहलहा रही है, उसी के विकार भेद से पंचतत्व निर्मित हुए हैं । इंद्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुःख अनुभव होते हैं, वह तत्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएँ हैं जो इन्द्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारे उत्पन्न करती हैं । समस्त लोगों का मूल शक्ति तत्व एक ही है और उससे मैं भी उसी प्रकार की गति प्राप्त कर रहा हूँ।
यह एक सांझे का कंबल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं। इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्धि का ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और ह्रदय को स्पष्टत: अनुभव करने दो। स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्व की एकता की कल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भांति एक ही तत्व है। आपका मन महान की एक बूंद है। विचार मस्तिष्क में भरे हुए हो, वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरुमुख द्वारा या ईथर आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया गया होता है। यह भी “एक अखंड गतिमान शक्ति” है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्ररूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस पटल पर अंकित कर लो। अपने शारीरिक और मानसिक वस्त्रों की भावना दृढ़ होते ही संसार आपका और आप संसार के हो जाओगे। कोई वस्तु बिरानी न मालूम पड़ेगी। यह सब मेरा है, मेरा कुछ भी नहीं, इन दोनों वाक्यों में आपको कुछ भी अंतर नहीं मालूम पड़ेगा, ठीक उसी तरह कि पानी का गिलास “आधा भरा” हुआ है यां “आधा खाली” है। वस्तुओं से ऊपर आत्मा को देखो,और अनुभव करो कि आत्मा नित्य,अखंड,अमर,अपरिवर्तनशील और एकरस है। आत्मा जड़,अविकसित,नीच प्राणियों,तारागणों,ग्रहों,समस्त ब्रह्मांड को प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है, इसे अपना बेगाना, घृणा करने योग्य, सताने योग्य, छाती से चिपटा रखने लायक कोई पदार्थ नहीं दिखता। अपने घर में और पक्षियों के घोंसले के महत्व में उसे तनिक भी अंतर नहीं दिखता।
ऐसी उच्च कक्षा का प्राप्त हो जाना केवल “आध्यात्मिक उन्नति” और ईश्वर के लिए ही नहीं बल्कि सांसारिक लाभ के लिए भी आवश्यक है। इस ऊंचे टीले पर खड़ा होकर मनुष्य संसार का सच्चा स्वरुप देख सकता है और जान सकता है कि किस स्थिति में किससे, क्या बर्ताव करना चाहिए। उसे सदगुणों के भंडार के लिए कोई विशेष क्रिया, कुशलता और सदाचार आदि सीखने नहीं पड़ते क्योंकि तब यही रत्न उसके पास रह जाते हैं, बुरे स्वभाव जो जीवन को दुःखी बनाए रखते हैं,न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं।
यह एक ऐसी उच्स्तरीय स्थिति होती है जहाँ पहुँचा हुआ आत्मसन्तोषी मनुष्य देखता है कि सब अविनाशी आत्माएं यद्यपि इस समय स्वतंत्र, तेजस्वरुप और गतिमान प्रतीत होते हुए भी एक ही मूलसत्ता का अंश हैं। यह स्थिति उस शिशु के शरीर जैसी होती है जो देखने में तो पृथक है लेकिन उसका सारा भाग माता-पिता के अंश का ही बना है।आत्मा सत्य है लेकिन उसकी सत्यता परमेश्वर है। विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है,जहाँ आत्मा और परमात्मा में एकता स्थापित हो जाती है, यही वोह स्थिति है जहाँ पँहुच कर जीव कहता है: सोऽहमस्मि अर्थात वह परमात्मा मैं हूँ और उसे अनुभूति हो जाती है कि संसार के संपूर्ण स्वरुपों के पीछे एक जीवन,एक बल,एक सत्ता,एक असलियत छिपी हुई है।
गुरुदेव इस मास्टरपीस पुस्तक की अंतिम पंक्तियों में हम सबसे अनुरोध कर रहे हैं कि इस स्थिति पर पँहुचने पर स्वतः ही आपके मुँह से यह शब्द निकलने चाहिए, “मैं क्या हूँ”, इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना ही सच्चा ज्ञान हैं। गुरुदेव यह भी बता रहे हैं कि जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता से परिपूर्ण होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो इस पुस्तक का पढ़ना केवल “पढ़ना” ही समझा जाना चाहिए जो कबीर जी के दोहे को सार्थक करता है :
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय । ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय , जिसका अर्थ है बड़ी-बड़ी पुस्तकों या किताबों को पढ़कर, संसार से अनगिनत लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए हैं, लेकिन सभी विद्वान नहीं बन सके। कबीर जी का मानना है कि यदि कोई प्यार का केवल ढाई अक्षर का अर्थ ही समझ ले तो वही सच्चा ज्ञानी होता है।
परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य पुस्तक “मैं क्या हूँ?” का समापन इस अध्याय के निम्नलिखित मंत्र के साथ होता है :
मेरी भौतिक वस्तुएँ महान भौतिक तत्व की एक क्षण एक झाँकी है।
मेरी मानसिक वस्तुएँ अविच्छिन्न मानस तत्व का एक खंड है।
भौतिक और मानसिक तत्व निर्बाध गति से बह रहे हैं, इसलिए मेरी वस्तुओं का दायरा
सीमित नहीं, समस्त ब्रम्हांड की वस्तुएँ मेरी है |
अविनाशी आत्मा परमात्मा का अंश और अपने विशुद्ध रुप में वह परमात्मा ही है।
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593 कमैंट्स और 11 युगसैनिकों से आज की 24 आहुति संकल्प सूची सुशोभित हो रही है।आज का गोल्ड मैडल आदरणीय संध्या जी को जाता है। बहिन जी को गोल्ड मैडल जीतने की बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1),रेणु श्रीवास्तव-35,(2)नीरा त्रिखा-38,(3)सुमनलता-48,(4)सुजाता उपाध्याय-49 ,(5)चंद्रेश बहादुर-39,(6)मंजू मिश्रा-24 ,(7)सरविन्द पाल-29,(8)वंदना कुमार-28,(9) संध्या कुमार-54,(10)अरुण वर्मा-34,(11)पिंकी पाल-25
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।