वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मा के दर्शन कराने वाले प्रैक्टिकल का प्रथम भाग    

https://youtube.com/shorts/jKClJLxqRQQ?si=bKRHSkwwx-2LCqv3 (सोलर सिस्टम)

https://youtu.be/nF6PqsTP0ZQ?si=MS_Uh... (हमारा साहित्य लोगों को पढ़ाइए)

29  मई 2024 का ज्ञानप्रसाद

परम पूज्य गुरुदेव की 1940 में प्रकाशित  प्रथम दिव्य रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंखला का 15वां लेख आज प्रस्तुत किया गया है, सभी लेखों के पीछे केवल एक ही उद्देश्य है, “मैं क्या हूँ?”  प्रश्न  का उत्तर ढूंढना।

अगर हम स्वयं को जान लें, आत्मा के दर्शन कर लें तो बात ही क्या है। गूगल सर्च  में भांति-भांति की Entries मिल जाएंगीं जो हमें आत्मा के दर्शन कराना Claim करती हैं, सभी अपने में सम्मानीय हैं लेकिन परम पूज्य गुरुदेव के साथ करने वाला यह प्रैक्टिकल इतना गूढ़  विज्ञान से भरा है कि इसके बाद कुछ भी जानने को बाकी नहीं रहता। जिन साथिओं को साधना में भटकन सी अनुभव होती है, मन स्थिर नहीं होता है, उनके लिए Step-by-step, थोड़ी-थोड़ी करके सीखने वाली प्रक्रिया बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो सकती है, ऐसा हमारा विश्वास है। 

विज्ञान की प्रयोगशाला में किसी भी प्रैक्टिकल को करने के तीन भाग होते हैं, Experiment, Observation और Inference अर्थात हमने क्या प्रयोग किया, हमने प्रयोग में क्या देखा और हमें क्या परिणाम मिला। हमारी सर्व सम्मानीय बहिनें तो प्रतिदिन रसोई में प्रैक्टिकल ही तो करती हैं। बाज़ार से सब्ज़ी-दाल, नमक,मिर्च आदि इक्क्ठा करती हैं, इन चीज़ों को बर्तन में डाल कर पकाती हैं, फिर सभी खाते हैं, हुए न प्रयोगशाला के वही तीनों स्टैप।

प्रयोगशाला के इन्हीं तीन Steps को सामने रखते हुए हम आत्मा के मंदिर में प्रवेश करने का प्रैक्टिकल करेंगें। कल हमने भूमिका एवं बैकग्राउंड में जाना था कि  हम क्या करने की योजना बना रहे हैं, आज हम गृहणी की भांति रसोई, बर्तन, दाल सब्ज़ी आदि का चयन करते हुए, सभी चीज़ों को इक्क्ठा करेंगें, कल वाले लेख में देखेंगें कि हम क्या कर रहे हैं और आने वाले सोमवार को अपने Results का मूल्यांकन करेंगें यानि हमें इस प्रैक्टिकल से क्या प्राप्त हुआ। 

आदरणीय सुमनलता बहिन जी के Quiz से सम्बंधित पांच प्रश्न इसी धारणा से लिखे थे कि सभी साथी अपना स्वयं ही मूल्यांकन कर लें कि हमारी क्या उपलब्धि है। 

आज के लेख में  यही आशा की जा रही है कि साथिओं को गुरुदेव का मार्गदर्शन एवं हमारा परिश्रम ऐसे स्तर पर ले जाए कि साधना के विषय में, आत्मा के मंदिर में प्रवेश के विषय में  और कुछ जानने की आवश्यकता ही नहीं पड़े। अगर इस स्तर के परिणाम नहीं आते हैं तो समझ लेना चाहिए कि “तोता रटंत” वाली बात ही हो रही थी और फिर से जब इस पुस्तक पढ़ेंगें तो फिर नए सिरे से आरम्भ करना पड़ेगा। 

हमें विश्वास है कि हमारे वोह सूझवान साथी जो केवल “जय गुरुदेव” एवं वही कमेंट हर रोज़ कॉपी/पेस्ट किए  जा रहे हैं, उन्हें उत्सुकता होगी कि आज तो इस दिव्य लेख के सम्बन्ध में कुछ अद्भुत लिखें जो उन्हें भी सेलिब्रिटी बना दे। ऐसा करना कोई कठिन नहीं है केवल गुरु के प्रति विश्वास को ही स्टैम्प लगानी है। 

आज के लेख में “मैं” की  सोलर सिस्टम से तुलना की गयी है, इस सम्बन्ध में एक शार्ट वीडियो अटैच की है। 

हमें यह विषय इतना रोचक लगा है कि यह प्रैक्टिकल एवं पुस्तक में दिए गए अन्य भी एक pdf में प्रकाशित करने की योजना है। 

तो आइए गुरुचरणों में बैठकर गुरुकक्षा में परम पूज्य गुरुदेव से मार्गदर्शन प्राप्त करें।  

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गुरुदेव हमें साधना की ओर ले जाते हुए कहते हैं : 

अच्छा चलो, अब साधना की ओर चलें। किसी एकान्त स्थान की तलाश करो। इस प्रयोग के लिए वही स्थान उत्तम हो सकता है जहाँ किसी प्रकार का  भय या आकर्षण की वस्तुएँ न हों। यद्यपि पूर्ण एकान्त के लिए आदर्श स्थान हमेशा प्राप्त नहीं होते, फिर भी जहाँ तक हो सके एकांत  और कोलाहल रहित स्थान तलाश करना चाहिए। इस कार्य के लिए नित नये स्थान बदलने की अपेक्षा एक ही स्थान नियत कर लेना उचित है। वन, पर्वत, नदी तट आदि की सुविधा न हो तो एक छोटा सा कमरा चुन लेना ठीक रहेगा। गुरुदेव का बहुत ही  सरल सा सन्देश है जिसके अनुसार वोह कहते हैं:

“जहाँ भी तुम्हारा मन जुट जाए वही स्थान ठीक है। सुखासन में अर्थात ऐसे  बैठो जिससे नाड़ियों पर तनाव न पड़े, अकड़कर, छाती या गर्दन फुलाकर, हाथों को मरोड़कर,पाँवों को ऐंठकर एक-दूसरे के ऊपर चढ़ाते हुए बैठने के लिए हम नहीं कहेंगे, क्योंकि इन अवस्थाओं में शरीर को कष्ट होगा और वह अपनी पीड़ा की पुकार बार-बार मन तक पहुँचाकर Concentration में विग्न डालने के लिए विवश करेगा। शरीर को बिल्कुल ढीला (शिथिल) कर देना चाहिए, जिससे समस्त माँसपेशियाँ ढीली हो जावें और देह का प्रत्येक कण शिथिलता, शान्ति और विश्राम का अनुभव करे। इस प्रकार बैठने के लिए आराम कुर्सी बहुत अच्छी चीज है। चारपाई पर लेट जाने से भी काम चल जाता है लेकिन  सिर को कुछ ऊँचा रखना जरूरी है। मसनद, कपड़ों की गठरी या दीवार का सहारा लेकर भी बैठा जा सकता है। बैठने का कोई भी तरीका हो लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ध्यान रखने की बात यह  है कि  शरीर रुई की गठरी जैसा ढीला पड़ जाए, उसे अपनी साज सँभाल में जरा-सा भी प्रयत्न न करना पड़े। उस दशा में यदि समाधि चेतना आने लगे , तब शरीर के इधर-उधर लुढ़क पड़ने का भय न रहे।” 

इस प्रकार बैठकर कुछ देर के लिए शरीर को विश्राम और मन को शान्ति का अनुभव करने दो। प्रारम्भिक समय में यह अभ्यास विशेष प्रयत्न के साथ करना पड़ता है। बाद में  अभ्यास बढ़ जाने पर तो साधक जब चाहे तब शान्ति का अनुभव कर लेता है, चाहे वह कहीं भी और कैसी भी दशा में क्यों न हो । 

सावधान रहिए कि यह दशा आपने  न तो स्वप्न देखते हुए, कल्पना करते हुए किसी चमत्कार के उद्देश्य से पैदा  की है और न ही  इसलिए कि मन के एकान्त वन  में  इन्द्रिय विकार समाप्त होकर कबड्डी खेलने लगेगें । ध्यान रखिए अपनी इस ध्यानावस्था को भी काबू में रखना और इच्छानुवर्ती बनाना आपका ही काम  है क्योंकि इस अवस्था का चयन आपने स्वयं ही  किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया है। शुरू के कुछ ही दिन एक निश्चित अनुशासन का पालन करना पड़ता है, बाद में तो ध्यान की यह अवस्था आपकी  चेतना का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है और फिर सदैव स्वयमेव बनी रहती है। तब उसे ध्यान द्वारा उत्पन्न नहीं करना पड़ता बल्कि  भय, दुःख, क्लेश, आशंका, चिन्ता आदि के समय में बिना यत्न के ही वह जाग पड़ती हैं और साधक अनायास ही उन दुःख क्लेशों से बच जाता है।

हाँ, तो उपरोक्त ध्यानावस्था में होकर अपने सम्पूर्ण विचारों को “मैं” के ऊपर इकट्ठा करो। किसी बाहरी वस्तु या किसी मनुष्य  के सम्बन्ध में बिल्कुल विचार मत करो। भावना करनी चाहिए कि 

मनुष्य को चाहिए कि वोह स्वयं को केन्द्र, सूर्य जैसा प्रकाशवान माने, उसे चाहिए कि वोह लगातार इस भावना की कल्पना करते हुए मानसलोक की  रचना शक्ति के सहारे स्थिर होने की प्रैक्टिस करे। मानसलोक एक विशाल, अनंत आकाश है, उसमें  अपनी आत्मा को सर्य रूप मानते हुए केन्द्र की तरह स्थित हो जाएँ और आत्मा के इलावा अन्य सब चीजों को ऐसे देखने का प्रयत्न करें जैसे नक्षत्र सूर्य के इर्द-गिर्द घूम रहे हों। कल्पना करें कि सभी नक्षत्र मुझसे बंधे हुए  हैं लेकिन मैं उनसे बँधा नहीं हूँ। सूर्य की भांति मैं अपनी शक्ति से  उनका संचालन कर रहा हूँ। कल्पना एवं परिश्रम के बाद कुछ ही  दिनों में यह चेतना इतनी दृढ़ हो जाएगी कि आपको आनंद की अनुभूति होने लगेगी। 

वह भावना झूठी या काल्पनिक नहीं है। विश्व का हर एक जड़-चेतन परमाणु बराबर घूम रहा है। सूर्य के आस-पास पृथ्वी आदि ग्रह घूमते हैं और समस्त सौर मण्डल एक अदृश्य चेतना की परिक्रमा करता रहता है। हृदय में व्याप्त चेतना के कारण रक्त हमारे शरीर की परिक्रमा करता रहता है। शब्द, शक्ति, विचार या अन्य प्रकार के भौतिक परमाणुओं की  परिक्रमा करते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आस-पास की प्रकृति का यह स्वाभाविक धर्म अपना काम कर रहा है। हमसे भी जिन परमाणुओं का काम पड़ेगा वह स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे क्योंकि “हम चेतना के केन्द्र” हैं। इस  “स्वाभाविक चेतना” को भलीभाँति हृदयंगम कर लेने से तुम्हें अपने अन्दर एक विचित्र परिवर्तन मालूम पड़ेगा। ऐसा अनुभव होता हुआ प्रतीत होगा कि मैं चेतना का केन्द्र हूँ और मेरा संसार, मुझसे सम्बन्धित समस्त भौतिक पदार्थ मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। मकान, कपड़े, जेवर, धन, दौलत आदि मुझसे सम्बन्धित हैं लेकिन  वह मुझ में व्याप्त नहीं हैं बिल्कुल अलग हैं । 

स्वयं  को “चेतना का केन्द्र” समझने वाला मनुष्य, अपने को “माया (भ्र्म)”  से सम्बन्धित मानता है लेकिन  पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं

जाता। जब वह अपने को तुच्छ, अशक्त और बँधे हुए जीव की अपेक्षा चेतन सत्ता और प्रकाश केन्द्र स्वीकार करता है, तो उसे उसी के अनुसार परिधान (कपड़े) भी मिलते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो उसके छोटे कपड़े Reject कर  दिये जाते हैं। जब तक मनुष्य स्वयं को हीन, नीच और शरीराभिमानी तुच्छ जीव समझता रहेगा, तब तक उसी के लायक कपड़े मिलेंगे। इस भौतिकतावादी संसार में रहते हुए मनुष्य को लालच, भोग- विलास की इच्छा, काम-वासना की इच्छा, चाटुकारिता, स्वार्थपरता आदि गुण भी अपनाने पड़ते हैं, यह परिधान भी पहनने पड़ते हैं लेकिन  जब उसे अपने स्वरूप को महानतम अनुभव करने का ज्ञान प्राप्त हो जाता है ,तब यह सभी आवरण, परिधान कपड़े निरर्थक हो जाता है। 

आज के लेख का समापन हमारे  शुभम बेटे (संजना बेटी का भाई) को जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामना से होता है।                

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622  आहुतियां,11  साधक आज की  महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज सरविन्द  जी ने तीन  यज्ञ कुंडों पर 97 आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।       

(1)रेणु श्रीवास्तव-34,(2)संध्या कुमार-28,(3)सुमनलता-25,(4)सुजाता उपाध्याय-30 , (5)नीरा त्रिखा-32,(6)मंजू मिश्रा-26,(7)चंद्रेश बहादुर-30,(8)राधा त्रिखा-5,(9 )सरविन्द पाल-28,42,27=97,(10)अरुण वर्मा-37,25 (11)अनुराधा पाल-27 


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