वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मा के मंदिर के प्रवेश द्वार पर पंहुचने की प्रक्रिया

https://youtu.be/RdvMqCRFoGY?si=cYMsa1qsnmpvJ0Ik (कर मन पे अधिकार)
https://youtu.be/nF6PqsTP0ZQ?si=MS_UhkoJxUWdugDe (हमारा साहित्य लोगों को पढ़ाइए
27 मई 2024 का ज्ञानप्रसाद
परम पूज्य गुरुदेव की 1940 की प्रथम दिव्य रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंखला का 13वां लेख आज प्रस्तुत किया गया है, सभी लेखों के पीछे केवल एक ही उद्देश्य है, “मैं क्या हूँ?” प्रश्न का उत्तर ढूंढना।
शनिवार वाले “क्या कहते हैं हमारे सहयोगी?” सेगमेंट में आदरणीय सुमनलता बहिन जी ने एक गृहणी का उदाहरण दिया था, हमने इससे सम्बंधित एक Quiz की जिज्ञासा व्यक्त की थी जिसमें साथिओं को पूछा गया था कि बहिन जी क्या कहना चाहते हैं। उसी उदाहरण को आज फिर निम्नलिखित प्रस्तुत कर रहे हैं, साथिओं से निवेदन है कि इस उदाहरण के बारे में लिखकर हमारी रिसर्च में सहयोग दें :
एक गृहिणी जो पूरे सप्ताह घर के लोगों की जरूरत को ध्यान में रखते हुए सहर्ष खाना बनाती है । यदि एक दिन उसे बोला जाए कि आज जो तुम्हारी पसंद हो वोह बनाओ,तब क्या होगा ? वो खुशी से जो भी बनाएंगी वोह भी घर के लोगों की विशेष पसंद का ही होगा, जिसमें बनाने वाली भी प्रसन्न कि आज हमें अपने मन का बनाने का अवसर मिला और खाने वाले भी प्रसन्न, कि आज तो बहुत बढ़िया मिला। इस उदाहरण से आप हमारा आशय समझ गए होंगे। हमारे साथ कई बार ऐसा हो चुका है। ऐसी प्रसन्नता अप्रत्याशित होती हैं और हौसला दोगुना ।आज की भाषा में इसे Surprise कहते हैं।
इन्हीं शब्दों के साथ गुरुकक्षा की और प्रस्थान करते हैं।


लोग कहते हैं कि इंद्रियों के भोग हमें अपनी ओर खींचे रहते हैं, लेकिन यह बात सत्य नहीं है। सत्य के दर्शन करने के योग्य सुविधा और शिक्षा प्राप्त न होने पर झक मार कर अपनी आंतरिक प्रयास को बुझाने के लिए मनुष्य विषय भोगों के कीचड़ को पीता रहता है। यदि मनुष्य को एक बार भी आत्मानंद का चसका लग जाता, तो वह दर-बदर धक्के क्यों खाता फिरता ?
हम जानते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ते समय आपका चित्त वैसी ही उत्सुकता और प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है,जैसी बहुत दिनों से बिछड़ा हुआ परदेसी अपने घर- कुटुंब का समाचार पाने के लिए आतुर होता है।
“यह एक मजबूत प्रमाण है, जिससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की आंतरिक इच्छा आत्मस्वरुप देखने की बनी रहती है। शरीर में रहते होने के बावजूद भी मनुष्य आत्मा में घुल मिल नहीं सकता बल्कि उचक-उचक कर अपनी खोई हुई अति अमूल्य वस्तु की तलाश करता रहता है।
बस,वह स्थान जहाँ मनुष्य भटकता है, यही है। उसे इस बात की ज्ञान ही नहीं कि मैं क्या चीज़ ढूंढ रहा हूँ ? मेरा कुछ खो तो गया है, इसका अनुभव भी करता है, खोई हुई वस्तु के अभाव में दुःख भी पाता है, किंतु मायाजाल के परदे से छुपी हुई वस्तु को नहीं जान पाता । ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से अनेकों बार यह अमूल्य संदेश दिया जा चुका है कि “मन बड़ा चंचल” है । एक नन्हें शिशु की भांति, जो अभी-अभी इस दुनिया में आया है, जिसे सब कुछ जानने की उत्सुकता रहती है,सरपट भागता ही रहता है। मनुष्य को तो पता ही चलता की कब अंतिम समय भी आ जाता है । ठीक उसी नन्हें शिशु की भांति मनुष्य का मन भी एक घड़ी भर एक जगह नहीं टिक पाता।
ध्यान में मन नहीं लगता :
हमारे इस छोटे से परिवार में अनेकों बार इस अधीरता/चंचलता की शिकायत की गई है । सभी कहते हैं कि ध्यान में बैठते तो हैं लेकिन मन इधर-उधर भागे फिरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि घर-परिवार की समस्त समस्याओं के पुलंदे का निवारण इस अमूल्य समय में ही करना है। अरे मूर्ख जिसके सानिध्य में बैठा है, उसमें समर्पित होकर तो देख, सारी समस्याओं का निवारण वोह स्वयं ही कर देंगे।
हममें से अनेकों इस बात की शिकायत तो करते हैं कि मन इतना चंचल हो रहा है, लेकिन
इस चंचलता का कारण नहीं जानते, हो सकता है कारण भी पता हो लेकिन उसका निवारण नहीं कर पाते/करना चाहते।
ऐसा क्यों है?
यह सब अज्ञान और कमज़ोर संकल्प शक्ति के कारण होता है।कबीर जी के दोहे “कस्तूरी कुण्डल में बसे, मृग ढूंढें बन माहीं” के मृग की भांति मनुष्य भी अपनी खोई हुई वस्तु के लिए हाहाकार मचाता इधर-उधर भटकता फिरता है।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य इतनी समस्याओं से घिरा हुआ है कि कई बार संकल्प शक्ति भी काम नहीं करती।
बार-बार आत्मदर्शन के विषय पर चर्चा के बावजूद स्मरण करते रहना उचित है कि “आत्मदर्शन” का मतलब अपनी सत्ता, शक्ति और साधनों का ठीक-ठीक स्वरुप अपने मानस पटल पर इतनी गहराई के साथ अंकित कर लेना है कि उसे जीवन में कभी भी भुलाया न जा सके। गुरुदेव बता रहे हैं कि तोता रटंत मनुष्य अपनी विद्या में अति प्रवीण हो सकता है, “मैं क्या हूँ ?”, जिस पुस्तक को आधार मान कर यह लेख श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है, जितना कुछ इसमें लिखा है, उस से 10 गुना ज्ञान का प्रवचन मनुष्य बिना रुके दे सकता है , बड़े-बड़े तर्क उपस्थित कर सकता हो,शास्त्रीय बारीकियां भी निकाल सकता है लेकिन यह सारी बातें केवल “आत्मा के मंदिर” के फाटक तक ही ले जाने में सक्ष्म हैं।
शास्त्रों ने स्पष्ट कर दिया है कि “आत्मा के मंदिर की सीढ़ियों” पर चढ़ने से पहले सर्वप्रथम समतल भूमि पर ठीक से चलने का अभ्यास करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ।
नन्हा शिशु भी तो पहले Walker का सहारा लेता है और समतल भूमि पर चलते हुए अनेकों बार गिरता-उठता है। माता-पिता उसके “प्रथम पग” को देखकर जिस आत्मसंतुष्टि का आभास करते हैं,वोह तो उनकी आत्मा ही वर्णन कर सकती है। यह दिव्य दृश्य माता-पिता के मानस पटल पर इतना पक्का चित्र बना जाता है कि जब वही शिशु एक Full-fledged पिता बन जाता है तो वोह उसके बच्चों को बताने में गर्व महसूस करते हैं। ऐसा ही गर्व हमारे “आध्यात्मिक पिता”, परमपिता परमात्मा अपने शिष्य की/बेटे की सफलता सभी के समक्ष Quote करने में गर्व महसूस करते हैं । वह अपने बच्चे की सफलता का गुणगान करते हुए यहीं पर नहीं रुक जाते ,अपने शिष्यों के अमृत वचन, संदेश, दोहे आदि जन्म-जन्मांतर तक भटके हुओं को रास्ता दिखाते रहते हैं।
क्या यह स्थिति कुछ उसी तरह की नहीं है जिसके अंतर्गत हमारे कुछ Celebrity साथिओं के कमेंट Quote किये गए थे ? क्या परम पूज्य गुरुदेव अपने बच्चों की सफलता से प्रसन्न नहीं हुए होंगें, गर्व नहीं अनुभव कर रहे होंगें, अवश्य ही होंगें
परम पूज्य गुरुदेव बता रहे हैं कि जहाँ आप आज भटक रहे हो, वहाँ से लौट आओ और उस समतल भूमि पर स्थिर हो जाओ। “यह समतल भूमि ही आत्मा के मंदिर का प्रवेश द्वार है।” गुरुदेव ने इस बात को और अधिक बल देते हुए आग्रह किया है कि आप अन्य ज्ञानियों से प्राप्त हुए ज्ञान को भुला दें और बिल्कुल नए सिरे से नर्सरी कक्षा में भर्ती होकर क, ख, ग वर्णमाला सीखने को तत्पर हो जाएँ । गुरुदेव बड़े प्यार से बताते हैं कि बेटा इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। आप उर्दू के उच्चकोटि के विद्वान हों, हर जगह आपके उर्दू के ज्ञान की चर्चा अवश्य होती होगी लेकिन अगर हिंदी द्वारा भी लाभ प्राप्त करना है तो वर्णमाला से ही तो आरंभ करना पड़ेगा, एकदम दर्शनशास्त्र (फिलॉसोफी) तो नहीं पढ़ने लगोगे।
ज्ञान के मंदिर की यह सीढ़ियां, आत्मा के ज्ञानमंदिर की सीढ़ीओं से किसी भी प्रकार से अलग नहीं हैं। हम अपने आदरणीय और ज्ञानी जिज्ञासुओं की पीठ थपथपाते हुए दो कदम पीछे लौटने को कहते हैं, क्योंकि ऐसा करने से ही वोह प्रथम सीढ़ी पर पांव रख सकेंगे और आसानी एवं तीव्र गति से ऊपर चढ़ेंगे |
गुरुदेव हमें “मैं” का महत्व समझाते हुए निम्नलिखित बताते है:
पशु-पक्षी तथा अन्य अविकसित प्राणियों में यह “मैं” की भावना नहीं होती। यह प्राणी भौतिक सुख-दुःख का तो अनुभव कर ही नहीं सकते। Evolution की दौड़ में यह अविकसित प्राणी मनुष्य से इतना पीछे हैं कि अपने बारे में कुछ भी नहीं सोच सकते। गधा नहीं जानता कि उस पर बोझ क्यों लादा जाता है, लादने वाले के साथ उसका क्या संबंध है,उसे किस प्रकार के अन्याय का शिकार बनाया जा रहा है। वह बेचारा अधिक बोझ लद जाने पर कष्ट अनुभव करता है और हरी घास मिलने पर तृप्ति का अनुभव करता है क्योंकि वोह मनुष्य की तरह सोच नहीं सकता। इन जीवों में “शरीर ही आत्मस्वरुप” है। Evolution की प्रक्रिया से एवं अपना विकास करते-करते मनुष्य इन प्राणीओं से बहुत आगे बढ़ आया है लेकिन फिर भी अनेकों मनुष्य ऐसे हैं, जो आत्मस्वरुप को जानते और गधे का जीवन व्यतीत करते हुए ही जीवन का अंत कर लेते हैं। यह वोह लोग हैं जिन्होंने डिग्रियां तो बहुत अर्जित कर ली हैं, समाज में नाम भी है, भौतिकता में संपन्न हैं,मस्तिष्क में आत्मज्ञान की चर्चा/उद्बोधन एक टेपरिकॉर्ड की तरह भरे बैठे हैं और समय अनुसार विज्ञापन की दृष्टि से कुछ सुना भी देते हैं लेकिन “आत्मा” के बारे में कुछ नहीं जानते। ऐसे लोगों में सोचने-विचारने की शक्ति गई-गुज़री है क्योंकि वोह स्वयं को आत्मा के मंदिर की उच्चतम पायदान पर बैठे अनुभव करते हैं। उनका संसार आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, लोभ, मोह आदि तक सीमित होता है। ऐसे मूढ़ मनुष्य, भद्दे भोगों से ही तृप्त होते जाते हैं। मजदूर को बैलगाड़ी में बैठ कर जाना सौभाग्य प्रतीत होता है, तो धनवान मनुष्य मोटर में बैठकर अपनी बुद्धिमानी पर प्रसन्न होता है। बात एक ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे मनुष्यों में जो थोड़ा बहुत बुद्धि का जो विकास हुआ है, वह भोग सामग्री को उन्नत और आकर्षित बनाने में हुआ है। समाज के अधिकांश सभी नागरिकों के लिए वास्तव में “शरीर ही आत्मस्वरुप” है। धार्मिक रूढ़ियों का पालन वे मन-संतोष के लिए करते रहते हैं, लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई संबंध नहीं। लड़की के विवाह में दहेज देना पुण्य कर्म समझा जाता है, लेकिन वैसे पुण्य कर्मों से ही कौन मनुष्य अपने उद्देश्य तक पहुंच सका है। यज्ञ, तप, दान एवं सांसारिक धर्म में लोकजीवन और समाज-व्यवस्था के लिए इन्हें करते रहना धर्म है,लेकिन इससे आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । आत्मा इतनी सूक्ष्म हैं कि रुपया, पैसा, पूजा-पत्री, दान, मान आदि बाहरी वस्तुएँ उस तक नहीं पहुंच सकती, तो फिर इनके द्वारा आत्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?


801 आहुतियां,18 साधक आज की कीर्तिमान महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज सुजाता जी ने 66 आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-31,(2)संध्या कुमार-55,(3)सुमनलता-45,(4)सुजाता उपाध्याय-66 , (5)नीरा त्रिखा-40,(6) वंदना कुमार-28 ,(7)चंद्रेश बहादुर-58,(8)राधा त्रिखा-38 ,(9 ) सरविन्द पाल-24 ,(10)अरुण वर्मा-34 , (11)आयुष पाल-25 , (12 ) मंजू मिश्रा-37,(13 ), अरुण त्रिखा-28, (14)मीरा पाल-33 ,( 15)कुमोदनी गौराहा-39,(16)निशा भरद्वाज-33,(17 ) अनुराधा पाल-25 ,(18) पिंकी पाल-25


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