वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मा का  इंटरव्यू  

22  मई 2024 का ज्ञानप्रसाद

1940 में प्रकाशित हुई परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख शृंखला का आज 11वां लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रत्येक लेख के पीछे एक ही धारणा है, एक ही उद्देश्य है “मैं क्या हूँ ?” प्रश्न  का उत्तर ढूंढना, स्वयं को जानना,पहचानना। ऐसा केवल सद्ज्ञान के निरंतर अमृतपान से ही संभव है। समय-समय पर हम अपने साथिओं के साथ  “नियमितता वाला पोस्टर” शेयर करते रहते हैं ताकि सभी को ज्ञान होता रहे कि यह “ज्ञानप्रसाद लेख” एक शृंखला की भांति किसी नियत विषय पर प्रस्तुत किये जाते हैं। अगर कोई पाठक इनका “जब जी चाहा अमृतपान करता है” तो उसे वोह लाभ नहीं मिलेगा जो  प्रत्येक लेख ( एक के बाद एक) पढ़ने से मिलेगा। 

कल वाले लेख में भी चर्चा हुई थी कि आत्मा देखने वाली नहीं बल्कि समझने, अनुभव एवं आभास करने वाली धारणा है।अखंड ज्योति के अक्टूबर 1941 वाले  अंक में परम पूज्य गुरुदेव “आत्मा के इंटरव्यू” के बारे में बता रहे हैं।  इस इंटरव्यू को समझने के लिए एक बहुत ही सरल लेकिन धैर्यपूर्वक प्रैक्टिस करने वाला एक प्रैक्टिकल बताया गया है।गुरुदेव बता रहे हैं कि शीघ्रता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, अगर मन इधर उधर भटकता है तो निरुत्साहित होने की ज़रुरत नहीं है। 

इस प्रैक्टिकल की आरंभिक पंक्तियों में शिथिलासन (Relaxation technique) की बात की गयी है जो आज के फैशनेबुल समाज में बहुत ही प्रचलित है। 

साथिओं से करबद्ध निवेदन है कि जितना भी समझ आ सके,धारण करने का प्रयास किया जाए तो अवश्य ही लाभ होगा, बजाए इसके कि मंज़िल से पहले ही हार मान ली जाए। 

आइए चलें गुरु चरणों की ओर : 

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इस संसार में जहाँ तक मनुष्य की  दृष्टि जाती है ऊर्जा (जिसे परम पूज्य गुरुदेव अग्नितत्व कह रहे हैं ) हर  जगह व्याप्त है और उस ऊर्जा का  हर समय यही प्रयास रहता है कि उसे ग्रहण करने वाला कोई उचित प्राणी मिल जाए क्योंकि ऊर्जा का ऐसे पड़े रहना तो विज्ञान को भी गवारा नहीं।  ऐसा इसलिए है कि ऊर्जा को प्रकट  करने के लिए,प्रयोग करने के लिए  दो वस्तुओं का घिसना (घर्षण,रगड़) बहुत ही आवश्यक है।माचिस की तीलियाँ, डिब्बी में पड़ी हुई स्वयं तो आग प्रकट नहीं कर सकतीं,उन्हें डिब्बी के साइड में लगाए गए बारूद के साथ रगड़ना पड़ता है,तभी आग प्रकट होती है और कई बार देखा गया है कि अगर कहीं गलती से एक दियासिलाई सुखी फसल के ढेर में गिर जाए तो पलक झपकते ही दावानल की आग की भांति सारा खेत स्वाहा हो जाता है। 

परम पूज्य गुरुदेव अपने बच्चों के अंतःकरण में इस तरह के अग्नितत्व को प्रकट कराने के लिए प्रयासरत हैं। उनके साहित्य का एक-एक पन्ना,उस पन्ने पर लिखा गया एक-एक शब्द उनके रक्तकण हैं, जिनकी रचना उन्होंने बिना किसी सुख सुविधा के, गर्मी-सर्दी की परवाह किये बिना, भूखे प्यासे रहकर हम सबके लिए, अपने बच्चों के लिए की है।       

गुरुदेव बताते हैं कि आत्म-शक्ति (माचिस की तीली), परमात्म-शक्ति (माचिस की डिब्बी) का ही एक भाग है। समस्त संसार में यह परमात्म शक्ति जिसे हम परमात्मा कहते हैं, समाया हुआ है। हमारी आत्मा उसी महातत्व की एक चिंगारी है। जिस प्रकार अपने छोटे से रूप वाली चिंगारी उपयुक्त साधन मिलते ही  असंख्य गुना Multiply करके भीषण दावानल के रूप में प्रकट हो सकती है, ठीक उसी तरह हमारी आत्मा छोटी सी,अल्प शक्ति वाली  मालूम पड़ती है लेकिन परमात्मा का अंश होने के कारण हम कई गुना भारी हो जाते हैं।  ऐसी उपमा से तो हम में से कइयों का अनेकों बार सामना तो   हुआ होगा जब किसी अमीरज़ादे के बेटे ने आपको धमकाते हुए कहा  होगा, “तू जानता नहीं मैं कौन हूँ, मेरे बाप की पहुँच कहाँ तक है ?” इस अमीरज़ादे  को हम मामूली लड़के की तरह तुच्छ नहीं समझ सकते, क्योंकि उसके पिता के पास भारी ताकत (धन की, रुतबे की) होती है, उससे बुरा  बुरा व्यवहार किया और उसने अपने पिता से शिकायत कर दी तो बस हमारी तो  खैर नहीं है। 

जब साधारण से दिखने वाले मनुष्य की आत्मा उस महान परमात्मतत्व से मिल जाती है तो वोह साधारण मनुष्य, साधारण नहीं रहता, उस परम सत्ता का राजकुमार बन जाता है। राजकुमार को किसी का क्या डर, उसका सम्राट जो उसकी रक्षा के लिए बैठा है। अपने समर्पण एवं साधना से राजकुमार जितना चाहे अपने सम्राट से शक्ति प्राप्त कर सकता है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से नियमितता,समर्पण आदि के सूत्र बार-बार दोहराने का अभिप्राय केवल साथिओं (साधारण मानवों ) को उस परमसत्ता (चक्रवर्ती सम्राट,परम पूज्य गुरुदेव) से जोड़ना है। मंच से प्रसारित होने वाले ऐसे  निवेदनों में न तो गुरुदेव का कोई स्वार्थ होता है और न ही परिवार के किसी सदस्य का। यह मंच केवल “देने वाला” मंच है, लेने की कभी किसी ने भी इच्छा नहीं व्यक्त की है।       

प्रत्येक मनुष्य की आत्मा को अपने मूल स्वरूप में निर्गुण, निराकार एवं नाम-रूप रहित होकर ही  प्रकाशरूप परमात्मा-तत्व का  दर्शन होता है। जिस किसी को भी इस प्रकाश के दर्शन हुए हैं उन्होंने स्वयं केअनुभव का ऐसा ही वर्णन किया है। जो साधक इस विषय का अभ्यास करेंगे उनको भी आत्मा के  प्रकाश के  अवश्य ही  दर्शन होंगें । यह अनुभव का विषय है, केवल सुनने, पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होता ।

परम पूज्य गुरुदेव की 1940 में प्रकाशित प्रथम रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख श्रृंखला के शुभारम्भ पर ही हमारा संकल्प था कि इसे सभी उपलब्ध साधनों का प्रयोग करके, न केवल  शब्दों के स्तर पर बल्कि भावनओं और आत्मिक स्तर पर समझने का प्रयास करेंगें, उसी संकल्प के अंतर्गत हम लेख के साथ-साथ, वीडियोस, प्रैक्टिकल का भी सहारा ले रहे हैं। हमारा यह समझना है कि Scientific spirituality, वैज्ञानिक अध्यात्मवाद,विज्ञान ही तो है, तो प्रैक्टिकल होने कोई अनुचित नहीं है। 

इसी तरह का एक प्रैक्टिकल नीचे प्रस्तुत किया गया है :    

गुरुदेव बता रहे हैं कि जब भी फुरसत मिले,एकान्त में किसी कमरे में जाओ। प्रातःकाल का या दिन छिपे बाद का समय इस अभ्यास के लिये उत्तम है, फिर भी यह कोई विशेष प्रतिबंध नहीं है, जब अवसर मिले तभी सही । कमरे में अन्दर जाकर उसके दरवाजे बंद कर लो, हाँ थोड़ा सा प्रकाश आने के लिये खिड़कियाँ खुली रख सकते हो। कमरे में आराम कुर्सी पर लेट जाओ । आराम कुर्सी न हो तो मुलायम बिछौने पर तकिए  के सहारे पड़े  रहो।

यहाँ किसी कष्टकर आसन पर बैठने की भी जरूरत नहीं है। जिस तरह तुम्हारा शरीर आराम का अनुभव करे उसी तरह पड़े  रहना ठीक है, चाहो तो लेट भी सकते हो। शरीर की अपेक्षा सिर,कम से कम एक फुट ऊंचा जरूर रहना चाहिये। शरीर को आराम से डाल दो और आँख बन्द कर लो। अब देह को बिल्कुल ढीला छोड़ने की कोशिश करो,ऐसा मानो कि इसमें जान ही नहीं है, रुई का निर्जीव गद्दा पड़ा हुआ है। 

पहले ही दिन शायद यह अभ्यास पूरा नहीं हो सकेगा क्योंकि नाड़ियों का तनाव ढीला करने का पहला अभ्यास न होने के कारण नसें और पेशियाँ अकड़ी ही रहती हैं। 15 से 30  मिनट तक का समय इसी कोशिश में लगाओ। ऐसा अनुभव करो मानो तुम अपने शरीर से अलग हो गये हो और दूर खड़े हुए इस निर्जीव पुतले को देख रहे हो। 

एक सप्ताह के अभ्यास के बाद  आपको शरीर को बिल्कुल  ढीला छोड़ना आ जायेगा। 

“यह दशा बड़े आनन्द की है।”

शरीर को दिन-रात कड़ा काम करना पड़ता है,उसे यदि कुछ देर के लिए,कभी-कभी इस तरह का आराम मिल जाय तो बड़ी शान्ति का अनुभव करता है। सारे दिन बोझ ढोने वाला मज़दूर यदि आध घंटा  भी सुस्ता ले तो उसे बड़ा आनन्द आता है। शरीर को ढीला छोड़ने पर आपको बहुत  अच्छा लगेगा और मन के भीतर एक प्रकार की स्थिरता और शाँति का अनुभव होगा ।

एक सप्ताह इस शिथिलासन (Relaxation) का अभ्यास करने के बाद अब आगे की ओर बढ़ो। 

अपना ध्यान श्वास के आवागमन पर लगाओ। नाक के रास्ते जब साँस भीतर जाय तो अनुभव करो कि वह जा रही है, जब निकले तब भी अनुभव करो कि निकल रही है । मानो कि  तुम एक चौकीदार हो और इस बात की अच्छी तरह जाँच करना तुम्हारा काम है कि साँस कब आती है और कब जाती है। मन को इधर-उधर डिगने मत दो, श्वास के आवागमन पर ध्यान लगाते रहो। यह “ब्रह्म प्राणायाम” है। इसे करते समय अपने मानस लोक को शून्य रखो। भावना करो कि तुम्हारा मस्तिष्क ही अनंत आकाश है, इसके अतिरिक्त विश्व में कहीं कोई वस्तु नहीं है। मस्तिष्क के अन्दर का भाग नरम है  और नील आकाश की तरह अनन्त है। इसी आकाश में प्राणवायु में आ जा रही है। “मस्तिष्क के अन्दर नीलाकाश जैसा शून्य मानसलोक और उसमें प्राणवायु का आना जाना।” बस, इन दो ही बातों का चित्र आपके  मन पर अंकित होना चाहिये। समस्त ध्यान जब इन्हीं दो बातों को देखने में लगेगा तो 2-4  दिन, अधिक से अधिक एक सप्ताह में यह भावना दृढ़ हो जायेगी। इन दो बातों के अतिरिक्त ध्यान के समय और कुछ मालूम ही न होगा। यदि मन उचटे तो निरुत्साहित (Discourage)  होने की जरूरत नहीं है, उसे रोको और फिर वहीं लगाओ। कुछ दिन के अभ्यास से वह उपरोक्त भावना का अनुभव करने लगेगा।

शून्य लोक में प्राणवायु का घर्षण होने से आत्म-ज्योति प्रकट होती है। थोड़े दिनों के अभ्यास से जब कुछ-कुछ मनोलय (चेतना की शून्यता) होने लगता है तो मानस लोक में अंतर्दृष्टि से सफेद, लाल, पीले आदि रंगों के बिन्दु, चक्र की तरह घूमते हुए दिखाई देते हैं। फिर कुछ दिनों बाद उनका लोप होकर नीले रंग का  बिंदु  दिखाई देता है। 

बाद में  अभ्यास से जब मनोलय अधिक होता जाता है, तब सूर्य, अर्धचन्द्र, चन्द्र, तारे, मोती, पुष्पों के गुच्छे, इन्द्र नील आदि चमकते हुए अनेक रत्न तथा सफेद रंग के चक्र एक दूसरे में प्रवेश करते हुए दिखाई देते हैं। तब साधक को समझना चाहिये कि अब शीघ्र ही “आत्मा का दर्शन” होने वाला है और वैसा होता भी है। अर्थात् कुछ समय के बाद उपरोक्त दृश्यों का लोप होकर आखिर में आत्मा को तेजस्वी प्रकाश का दर्शन होता है। उसमें साधक का पूर्ण मनोलय होकर उसे “समाधि अवस्था” प्राप्त होती है, इस अवस्था उसे जिस सुख, शाँति तृप्ति का अनुभव होता है, उसकी संसार भर के किसी भी विषय से होने वाले सुख से तुलना नहीं हो सकती।

कई बार यह आत्मदर्शन बहुत जल्द हो जाता है। जिसका अन्तस्थल जितना पवित्र होगा उसे उतनी ही जल्दी सफलता मिलेगी। कभी-कभी तो 1 -2  सप्ताह में ही शिथिलासन, ब्रह्म प्राणायाम पूरे हो जाते हैं, और आत्मप्रकाश का दर्शन होने लगता है। 

परम पूज्य गुरुदेव बता रहे हैं कि हमारे  पूर्वज महर्षियों ने जिस योग विद्या के बल से संसार में अपना सिक्का जमाया था, यह प्रैक्टिकल उसी महाविद्या का यह छोटा सा सैंपल है जो आपके  लिये बहुत उपयोगी होगा । 

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577 आहुतियां,12   साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज चंद्रेश  जी एवं अरुण जी, दोनों भाइयों ने  सबसे अधिक आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।     

(1)रेणु श्रीवास्तव-34 ,(2)संध्या कुमार-37,(3)सुमनलता-35 ,(4 )अरुण त्रिखा-26 ,(5)नीरा त्रिखा-34,(6) वंदना कुमार-31,(7)चंद्रेश बहादुर-47 ,(8)राधा त्रिखा-27,(9 )सरविन्द पाल-27, (10)अरुण वर्मा-50, (11)आयुष पाल-24 , (12 ) मंजू मिश्रा-24


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