वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आत्मज्ञान,आत्मस्वरूप के बाद अब आत्मदृष्टि की बारी है

https://youtu.be/DJsp7Sn2b68?si=W6N4I0I_ElQlRm7S (हर मुख से निकले)

https://youtu.be/nF6PqsTP0ZQ?si=RQ0EQMMXhTZuiPGS (हमारा साहित्य पढ़ाइए)

20 मई 2024 का ज्ञानप्रसाद- । 

1940 में प्रकाशित हुई परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख शृंखला का आज 9वां लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। हमने 40 पन्ने,14000 शब्द लिख दिए लेकिन मुश्किल से एक ही चैप्टर को  समापन कर पाएं हैं, क्या कारण है, लेख में पढ़िए। 

आत्मज्ञान और आत्मस्वरूप की अति बेसिक जानकारी के बाद आज के लेख में आत्मदृष्टि को जानने का प्रयास है।

आदरणीय पुष्पा सिंह जी के योगदान से हमने “गृहे गृहे गायत्री यज्ञ” का पोस्टर शेयर किया था, आज का प्रज्ञागीत इशिता विश्वकर्मा बेटी की दिव्य वाणी में  उसी यज्ञ को करने की प्रेरणा दे रहा है। यह योगदान भी बहिन पुष्पा जी का ही है जिसके  लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। 

आदरणीय उमा साहू जी हमारी नियमित साथी हैं, उनकी बेटी लक्ष्मी और अजय की आज दूसरी वैवाहिक वर्षगांठ है। गुरुदेव से प्रार्थना है कि दोनों बच्चों को आशीर्वाद देकर  ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में नियमित भागीदारी का अनुदान प्रदान करें, हमारे परिवार की यही प्रसाद है। 

तो आइए चलें गुरुचरणों की ओर, गुरुकक्षा में।        

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बहिन निशा जी ने हमें वैद्य की उपाधि दी तो बेटी संजना ने एकदम “वैद्य” शब्द को  पकड़ कर व्याख्या कर दी कि आदरणीय डॉ सर नित्य हमारी “आत्मा को भोजन” प्रदान करके, हमारी अंतरात्मा के ज़ख्मों को भरते हैं। इस बेटी के बारे में क्या लिखें, इतनी छोटी आयु में,यह सब गुरुदेव ही लिखवा रहे हैं। Keep up the good work, Sanjana, अब तो ऐसा हो चुका  है कि ज्ञानरथ परिवार की ही भांति संजना बेटी हमारे व्यक्तिगत परिवार में भी चर्चा का विषय बन चुकी है। ऐसी होती है गुरु-शक्ति, जो किसी से भी कुछ का कुछ करा लेती है।    

चिन्मय जी अक्सर अपने उद्बोधनों में कहते आए हैं कि आज का  मनुष्य रोटी तो एक खाता है, दवाई की गोलियां 10 खाता है क्योंकि वोह प्रकृति से दूर भागे  जा रहा है। पक्षियों एवं अन्य जंतुओं से सम्बंधित हमें उनके जीवन की आधुनिक मानव के जीवन के साथ  तुलनात्मक स्टडी की बात याद आ रही है जो निम्लिखित है:

जीव जंतु,पक्षी आदि रात को कुछ नही खाते,रात को घूमते नही,अपने बच्चे को सही समय पर शिक्षा देते  हैं, ठूस ठूस के कभी नही खाते,पेट भरने के बाद कभी नहीं खाएंगें, जितना चाहिए उतना ही रखते हैं, रात होते ही सो जाते हैं, सुबह जल्दी जाग जाते हैं ,गाते चहकते हुए उठते हैं ,स्वयं तो क्या, औरों को भी अपने गीतों से ऊर्जा प्रदान करते हैं, अपने शरीर से सतत् काम लेते हैं, बीमारी आई तो खाना छोड़ देंगे, तभी खायेंगे जब ठीक होंगे। उन्हें पता है कि शरीर के अंदर ईश्वर ने Built-in Immune regulator फिट किया है, उन्हें पता है कि कम खाने से यां  कुछ देर न खाने से कोई मर नहीं जाता, अपने बच्चे को भरपूर प्यार देते हैं ,प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितनी जरूरत होती है,अपना घर पर्यावरण अनुकूल बनाते हैं,अपनी भाषा छोड़कर दूसरों की भाषा  नहीं बोलते।

यह तो हुई प्रकृति की बात, ईश्वर की बात जिसके साथ जुड़ने की बात हम अक्सर करते आए हैं, हम उसी से दूर जा रहे हैं।  जब हम उस परम सत्ता, परमात्मा का ही अंश हैं तो उससे दूर कैसे जा सकते हैं। समस्या तो यही है कि हम अपने पिता को, अपने Creator को,अपने रचयिता को,अपने संरक्षक को, अपने पालनहार को ही पहचानने में आनाकानी कर रहे हैं,तो फिर क्या किया जाए। 

परम पूज्य गुरुदेव की 1940 में प्रकाशित,प्रथम रचना “मैं क्या हूँ?” पर आधारित अद्भुत लेख श्रृंखला का शुभारम्भ 6 मई 2024 को प्रकाशित प्रथम लेख “स्वयं को तुच्छ समझना आत्महत्या है” से हुआ था। इस शृंखला में आज तक आठ लेख प्रकाशित हो चुके हैं, आज वाला लेख 9वां है। 

हम अपने साथिओं के साथ बहुत ही श्रद्धा एवं आदरपूर्वक  शेयर कर रहे हैं कि हर बार की भांति यह लेख शृंखला भी बहुत ही विस्तृत एवं विश्लेषणात्मक हुए जा रही है, इसका प्रतक्ष्य प्रमाण है कि आठ लिखने के बावजूद अभी हम बड़ी मुश्किल से पहला चैप्टर ही समाप्त  कर पाए हैं। 37 पन्नों की तो पूरी पुस्तक है लेकिन हमने एक ही चैप्टर को explain करने में 40 पन्नों, लगभग 14000 शब्दों  के लेख लिख डाले। ऐसी विस्तृत लेखनी का श्रेय परमपूज्य गुरुदेव, हमारे समर्पित साथिओं को तो जाता ही है लेकिन आदरणीय अनिल मिश्रा जी का सुझाव विशेषकर हमें फटकारता रहता है। हमारे साथिओं को स्मरण होगा कि अनिल जी के सुझाव पर हमने 2021 में मनोनिग्रह पर 30 लेखों की एक श्रृंखला लिखी थी। भाई साहिब ने आग्रह किया था कि अगर इस विषय को समझने में एक महीना भी लग जाता है तो कोई बड़ी बात नहीं है। 

भाई साहिब की शिक्षा का ही परिणाम है कि विस्तृत और विश्लेषण से भरपूर (अनेकों उदाहरणों के साथ),साथिओं के कमैंट्स के माध्यम से अपने परम पिता को जानने का प्रयास किया जा रहा है। परम पूज्य गुरुदेव ने स्वयं लिखा है कि “आत्मज्ञान” का विषय शब्दों के स्तर का नहीं है, यह तो आत्मा के लेवल की बात हैं। जब तक “आत्मज्ञान” की समझ नहीं आएगी तो “आत्मस्वरूप” कैसे पहचान पहचान पाएंगें। “आत्मज्ञान” और “आत्मस्वरूप” को जानने के बाद ही “आत्मदृष्टि” की बात की जा सकती है जो आज के ज्ञानप्रसाद लेख का विषय है। 

आत्मदृष्टि का अर्थ है आत्मा की दृष्टि। क्या मनुष्य की आत्मा देख सकती है ? मनुष्य तो ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी दो आंखों से ही देख  सकता है, तो क्या आत्मा की भी कोई आँखें हो सकती हैं ? कहीं यह “मन की आँखों” की बात तो नहीं हो रही ? मन से  सम्बंधित हम कितने ही लेखों में चर्चा कर चुके हैं, क्या यह दिल, दिमाग की बात है ? हमारे समर्पित साथी तो अवश्य ही इन प्रश्नों को समझने में हमारी सहायता करेंगें लेकिन आत्मदृष्टि के बारे में हम निम्नलिखित वर्णन करना चाहेंगें: 

सुप्रसिद्ध बॉलीवुड निर्देशक शक्ति सामंत ने 1972 में  हमें “अनुराग” नाम से एक सफल मूवी दी। इस मूवी में मौशमी चटर्जी और विनोद मेहरा पर फिल्माया गया गीत था जिसकी अंतिम पंक्तियों के शब्द थे “मन से आँखों का काम लिया” मूवी में मौशमी तो नेत्रहीन हैं , लेकिन विनोद मेहरा के सभी प्रश्नों का एक-एक करके उत्तर दिए जा रही है, जब विनोद मेहरा ने पूछा कि तुम तो देख नहीं सकती, तो मेरे प्रश्नों का उत्तर कैसे दिए जा रही हो।   उसने कहा “मन से आँखों का काम लिया।” इसी सन्दर्भ में एक और बात स्मरण आ रही है।  अक्सर कहा जाता है कि भोजन को सबसे पहले मनुष्य की  “आँखें नाक आदि” खाते  हैं। 

उपरोक्त दोनों उदाहरणों से यही प्रमाणित होता है कि ईश्वर ने मनुष्य को  “चमड़े की दो आँखों” के इलावा भी कुछ ऐसी शक्तियां (मन की ऑंखें उनमें से एक हैं ) प्रदान की हैं जिनसे उसे परम् पिता से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त होता  है,सहायता मिलती है। इसी सहायता के कारण मनुष्य के जीवन की गाड़ी सुपर हाईवे पर सरपट दौड़ना आरम्भ कर देती। 

इसीलिए ईश्वर बार-बार आग्रह करते हैं, “अरे मुर्ख मुझे देखने के लिए,मन की आँखें खोल, इन चर्म चक्षुओं से तू मुझे कभी भी देख नहीं पाएगा, मुझे अपने ह्रदय में स्थापित कर, वहीँ मेरा वास है, मैं तो तेरे अंदर बैठा हूँ और तू मुझे पत्थरों में, मंदिरों में ढूंढ रहा है        

मनुष्य ने अपनी सुविधा एवं ज्ञान के आधार पर ईश्वर की कोई न कोई छवि बनाई हुई है। यह छवि किसी पेंटिंग या मूर्ति के रूप में सामने आती है। मनुष्य के लिए ईश्वर  के निराकार, निर्गुण स्वरूप की कल्पना करना कठिन है, इसलिए वोह उसे पत्थरों में ढूढ़ता है,उसे  भौतिक या सगुण रूप देने का प्रयास करता है। 

ईश्वर को देखने का सही तरीका क्या है? साकार या निराकार? 

भगवद‌्गीता, अध्याय 11 श्लोक 8 में भगवान कृष्ण कहते हैं, “ हे मानव, तुम इन भौतिक नेत्रों से मेरे ब्रह्मांडीय रूप को नहीं देख सकते, इसलिए मेरे राजसी ऐश्वर्य को निहारने के लिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह दिव्य दृष्टि प्रदान की और उसके बाद उसने जो  देखा वोह हमने बी आर चोपड़ा जी के धारवाहिक सीरियल  “महाभारत” में देख ही लिया है । प्रारंभ में अर्जुन भगवान को अपनी धारणाओं के आधार पर देखता है। धीरे-धीरे वह मन में बनाए सभी रूपों को तब तक ईश्वर में विलीन होते देखने लगता है, जब तक कि केवल एक अलौकिक अग्नि ही शेष रह जाती है। हज़ार  सूर्यों की चमक के बराबर यह तेज अर्जुन को चकाचौंध और भौंचक्का कर देता है।

अर्जुन की ही भांति मनुष्य भी  इंद्रियों की सीमित धारणाओं से दुनिया को देखता  है। एक चमगादड़ इंफ्रा-रेड दृष्टि से जो देखता है, वह मानव आंख के लिए असंभव है। इसी तरह ईश्वर को संकीर्ण दृष्टि से देखना उसके वैभव को सीमित करना है। फिर भी सब अपने-अपने चश्मे से ईश्वर को देखते हैं। मनुष्य जैसी धारणाओं का चश्मा पहनता है,उसे  वैसे ही ईश्वर दिखते हैं। ईश्वर  के वास्तविक स्वरूप को देखने के लिए सबसे पहले दृष्टि  का विस्तार करना सीखना चाहिए और “आंतरिक दृष्टि” से दुनिया को देखना चाहिए। भौतिक आंखों से बाहरी रंग-रूप ही देख पाते हैं, जबकि आंतरिक दृष्टि से देखना बंधी-बंधाई धारणाओं को एक स्वरूप में विलीन कर देना है। 

प्रेम, सहानुभूति और करुणा पैदा करना, दुखियारों की पीड़ा से दुःखी होना  और  सुख का जश्न मनाने वालों की खुशी अनुभव  करना ही सच्ची ईश्वर की भक्ति है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में यही तो सब कुछ हो रहा है,इसीलिए तो अरुण वर्मा जी कहते हैं कि इस परिवार में परम पूज्य गुरुदेव का साक्षात् वास है। गुरुदेव की सिसकियों भरी वीडियो से कौन परिचित नहीं है।  

प्रकृति की ऊर्जा से जुड़ना और उसकी तरंग का कंपन स्वयं में अनुभव  करना ही सही में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव है। जिस क्षण मनुष्य  ईश्वर की प्रतिध्वनि (Echo, frequency) से मेल खाने लगता है तो उसी  उसी क्षण से भीतर का प्रकाश फूटने लगता है। आसपास और भीतर की हर वस्तु  ईश्वरमय होने लगे तो मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि वह समय आ गया है जब  ईश्वर के वास्तविक रूप को देखने के लिए दिव्य प्रकाश मिल गया है।

यह वोह स्टेज होती है जब मनुष्य हर जगह दैवी गुणों की ही तलाश करता है। जिस किसी  चीज में वह सुंदरता देखता है तो उसे ईश्वर ही दिख रहे होते हैं। प्रेम, करुणा, मित्रता एवं अन्य अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ सब ईश्वर के ही रूप हैं। ईश्वर को अनुभव करने का, देखने का  सबसे आसान तरीका यही है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार इन्हीं सिद्धांतों का पालन करने का प्रयास कर रहा है,पता नहीं अर्जुन जैसी दिव्य दृष्टि प्रदान हुई कि नहीं,ज्ञानप्रसाद  लेखों ने अनेकों  को  आत्मदृष्टि जैसा अनुदान अवश्य दिया है।

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774  आहुतियां,17  साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज तीन साथिओं -संध्या जी,सुजाता जी एवं चंद्रेश जी  ने सबसे अधिक आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्। 

सरविन्द जी के समस्त परिवार ने आज पूर्ण समर्पण दिखा कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है।    

(1)रेणु श्रीवास्तव-43 ,(2)संध्या कुमार-63,(3)सुमनलता-45 ,(4 )सुजाता उपाध्याय -60     ,(5)नीरा त्रिखा-25  ,(6 )पिंकी  पाल-25,(7 )वंदना कुमार-27 ,(8 )चंद्रेश बहादुर-61,(9 )राधा त्रिखा-32 ,(10 )सरविन्द पाल-28 (11)अरुण वर्मा-45, (12)अनुराधा पाल-25,(13 ) आयुष पाल-25, (14) कुमोदनी गौराहा-40,(15)निशा भारद्वाज-24,(16)पुष्पा सिंह-27,(17 ) मीरा पाल-27  


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