16 मई 2024 का ज्ञानप्रसाद
परम पूज्य गुरुदेव की 1940 में प्रकाशित दिव्य प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज का लेख प्रस्तुत है।
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“आत्मस्वरुप को जानो और विस्तार करो।”
यह एक ऐसा सूत्र है जिसमें वह सब महान विज्ञान भरा हुआ है जिसके आधार पर विभिन्न अध्यात्म पथ बनाए गए हैं। वे सब इस सूत्र में बीजरूप से मौजूद है, जो किसी भी सच्ची साधना से कहीं भी और किसी भी प्रकार हो सकते हैं।
मनुष्य जिस दिन इस संसार में आता है, उसी दिन से, आँख खोलते ही इधर-उधर देखना,जानना आरम्भ कर देता है। यहाँ तो यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि संसार में आने के बाद ही क्यों, उसकी जानने की जिज्ञासा तो माँ के गर्भ में ही आरम्भ हो चुकी होती हैं, वहीँ से ही न जाने कितना कुछ जान गया होता है।
जानने योग्य संसार में अनेक वस्तुएं हैं,लेकिन उन सब में महत्वपूर्ण एवं प्रधान है “स्वयं को जानना।” जिस व्यक्ति ने स्वयं को जान लिया, समझो उसने “जीवन का रहस्य” ही समझ लिया। भौतिक जगत के अन्वेषकों ने न जाने कितने ही आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं जिनके आधार पर प्रकृति के अंतराल में छिपी हुई विद्युत शक्ति, इथर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूंढ निकाला है। अध्यात्म जगत के महान अन्वेषकों ने जीवन सिंधु का मंथन करके “आत्मारूपी अमृत” उपलब्ध किया है। आत्मा को जानने वाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इस अमृत को प्राप्त करने वाला “विश्व विजयी मायातीत” कहा जाता है। इसलिए हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि
“वह स्वयं को जाने, स्वयं से पूछे, “मैं क्या हूँ?” इस प्रश्न को स्वयं से पूछे और विचार चिंतन तथा मनन पूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्त करे। स्वयं का सही रूप मालूम हो जाने पर ही मनुष्य अपने वास्तविक हित-अहित को समझ सकता है।”
वोह कैसे ? आइए देखते हैं :
आत्म स्वरूप का अर्थ है अपना,स्वयं का व्यक्तित्व। यह मनोविज्ञान का परमप्रिय विषय है। सभी मानसिक विकार, समस्याएं और व्याधियां तभी पैदा होती हैं जब हम स्वयं को भूल जाते हैं। अगर मनुष्य ने आत्म स्वरूप को जान लिया तो परमात्म स्वरूप को भी आसानी से जान लेगा क्योंकि मनुष्य उसी विशाल स्वरूप की इकाई ही तो है।
आइए ज़रा अपने मन में झांक कर देखिए। बिना किसी डर एवं दिखावे के,unbiased होकर झॉँकने पर आपको अपने मन में अतृप्त जरुरतों और इच्छाओं का भंडार मिलेगा। अब आप दूसरों के व्यवहार को देखिए। आपको सभी अपनी अतृप्त जरुरतों और इच्छाओं की पूर्ति करते मिलेंगे या निराशा में डूबे लोग यह कहते हुए मिलेंगे कि यह संसार झूठ है, माया है, स्वप्न है और बुलबुला है। आप भी लोगों की तरह घबड़ा सकते हैं और अपनी निराशा दूर करने के लिए सरल उपाय ढूंढ सकते हैं।
अध्यात्म विज्ञान की ही भांति, मानवीय मनोविज्ञान ( Human Psychology) से भी आप सुख शांति प्राप्त कर सकते हैं। आपको केवल इतना समझना है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं वह समाज आप पर नियंत्रण कर रहा है और आप समाज के लिए ही जी रहे हैं। समाज को खुश करने के लिए जीवन भर आप न जाने क्या कुछ किए जाते हैं। समाज आपके लिए निर्णय ले रहा है कि आप वाहवाही लूटने के लिए उसकी कौन सी इच्छा पूरी करें और कौन सी त्याग दें, अर्थात आपके मन पर समाज नियंत्रण कर लेता है। जब मनुष्य अपनी समर्था (Capability) को भूल कर, समाज की इच्छाओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहता है तो वह असंतुष्ट रहता है,उसका व्यवहार बदल जाता है। समाज को तो आपकी समर्था से कुछ लेना देना नहीं है, इसलिए वही समाज जो आप पर नियंत्रण चाहता है, उसकी आशाओं पर पूरा न उतर पाने की स्थिति में आपको पागल समझ लेता है।
समाज तो पहले दिन से ही आप पर नियंत्रण करना आरम्भ कर देता है, अभी तो आपने आँख भी नहीं खोली है। बच्चे का जन्म होते ही माता पिता निर्णय कर लेते हैं, हम तो इसे सर्जन बनायेंगें ,क्या है यह ? आपसे किसी ने पूछा कि आपकी रूचि और समर्था क्या है ?
यही है आत्मस्वरूप।
इसलिए मनोवैज्ञानिकों का अतिउत्तम निर्देश है कि आपको अपनी जरूरतों और इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वयं निर्णय लेना है, कौन सी जरूरत और इच्छा पूरी हो सकती है और कौन सी नहीं। आप उन जरुरतों और इच्छाओं को पूरा कीजिए जो पूरी हो सकती हैं और अन्य जरुरतों और इच्छाओं के लिए, जो पूरी करने में दिक्कत आ रही हो, अपने मन को समझा कर समझौता करना ही उचित होगा । You are the boss of yourself. आप, केवल आप स्वयं ही “अपने मन के मालिक हैं”, अन्य कोई नहीं।
शुरू शुरू में तो ऐसे समझौते के लिए मन को समझाना अति कठिन लगेगा लेकिन कुछ ही देर में मन आपके नियंत्रण में आ ही जाएगा, आप अपने मन पर काबू पा ही लेंगें। यह वोह स्टेज होती है जब आपका मन आपकी ही सुनेगा और वोह आपका दास होगा। जैसे-जैसे आपकी समर्था के अनुसार, आपकी ज़रूरतें और इच्छाएं पूरी होती जायेंगी आप सुखी होते जाएंगे। यही वोह अवस्था है जिसे परम आनंद (Ultimate bliss) की परिभाषा से सम्मानित किया गया है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अनेकों साथिओं को इस परम आनंद का अवश्य ही आभास हुआ होगा। यहाँ यह कहना उचित रहेगा कि “गूँगें के गुड़” की भांति इस आभास को केवल अनुभव ही किया जा सकता है, शब्दों में बाँध पाना असंभव है।
“परम आनंद” की स्थिति तक पहुँचने के लिए दृढ संकल्प शक्ति की आवश्यकता होती है। अधिकतर लोग “हवा के साथ बह जाने वाली प्रवृति”, “खाओ पियो, मौज करो वाली प्रवृति” जहाँ देखी तवा परात, वहीँ बिताई सारी रात वाली प्रवृति” के देखने को मिलते हैं, उनके लिए यह पंक्तियाँ नहीं लिखी जा रही हैं।
जो मनुष्य सही मायनों में, संकल्प शक्ति के साथ परम आनंद को प्राप्त करने के इच्छुक हैं उनके लिए एक नन्हें बच्चे का उदाहरण देना उचित होगा। अक्सर कहा जाता है ,“दिल तो बच्चा है जी।” बच्चे अपनी जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करवाना चाहते हैं। वे रोयेंगे भी और जिद्द भी करेंगे। अगर उनके माता पिता स्पष्ट शब्दों में बोल दें कि कौन सी इच्छा पूरी हो सकती है और कौन सी नहीं एवं योग्य इच्छा पूरी करने में सहयोग दें तो उनके रोने और जिद्द के सुर कमजोर होते जाएंगे और वे अन्य जरुरतों और इच्छाओं की पूर्ति के लिए दो तीन बार ही जिद्द करेंगे। अगर माता पिता अपने संकल्प पर कायम रहेंगे तो वे उन इच्छाओं और जरुरतों के लिए जिद्द करना बंद ही कर देंगे।
माता पिता को ध्यान यह रखना है कि बच्चों को अपनी जरूरतों और इच्छाओं को व्यक्त करने दीजिए। एक समय आयेगा कि बच्चे आपके निर्णय को बिना जिद्द या रोये ही स्वीकार करने लगेंगे। हां, आप उनकी जरूरतों और इच्छाओं को बिना मांगे पूरा नहीं कीजीए। अपनी जरूरतों और इच्छाओं के बारे में उन्हें स्वयं निर्णय लेने दीजिए। उनको मालूम होगा कि कौन सी जरूरत और इच्छा पूरी हो सकती है और कौन सी नहीं। इस तरह की Upbringing ही बच्चों को व्यस्क होने पर, स्वयं सही निर्णय लेने में समर्थ बनाती है।
मनुष्य के मन के साथ भी बच्चों जैसा व्यवहार करना चाहिए। एक दिन मन भी वयस्क हो जाएगा और मनुष्य को अपने स्वरुप का (आत्म का) ज्ञान हो जाएगा है और वह सुखी, संतुष्ट और शांत हो जाएगा।
साधारण मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या क्या है ?
साधारण मनुष्य की बहुत बड़ी समस्या है कि वह विषय विकारों में लिप्त रहता है,उन्हें ही लाभदायक समझता है एवं उनके लिए ही लालायित रहता है। आरती में तो प्रतिदिन बचपन से हम रट रहे हैं “विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा” लेकिन जब भौतिक जगत में आते हैं तो वोह सब पूजास्थली में ही छूट जाता है। “आत्मा का ज्ञान” होने पर मनुष्य को समस्त भौतिक लाभ, शान शौकत, पद-प्रतिष्ठा आदि तुच्छ एवं हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं। वही व्यक्ति जो माया में लिप्त रहता था, जिन बातों से दूर भागता था, “आत्मा के ज्ञान” के बाद आत्म परायण का रस अनुभव करने लगता है। आत्म-साधन के पथ पर अग्रसर होने वाले पथिक की “भीतरी आंखें” खुल जाती हैं और वह जीवन के महत्वपूर्ण रहस्य को समझ कर तेज़ी से “शास्वत सत्य” की ओर कदम बढ़ाता चला जाता है।
यही है आत्मज्ञान का सुपर हाईवे जिस पर गुरुदेव हमारे जीवन की गाड़ी को सरपट दौड़ाना चाहते हैं।
अनेक साधक आध्यात्म पथ पर बढ़ने का प्रयत्न करते हैं लेकिन उन्हें केवल एकांगी और आंशिक साधना करने के तरीके ही बताए जाते हैं। खुमारी उतारना तो वह है, जिस दिशा में मनुष्य अपने रूप को भली भाँति पहचान सके। जिस इलाज से सिर्फ हाथ-पैर पटकना ही बंद होता हो या आंखों का सुख ही मिटता हो, वह पूरा इलाज नहीं। यज्ञ, तप, दान, व्रत अनुष्ठान, जप आदि साधन लाभ देते हैं, इनकी उपयोगिता से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। गुरुदेव बता रहे हैं कि इन कर्मकांडों से पवित्रता बढ़ती है, सतोगुण की वृद्धि होती है, पुण्य बढ़ता है लेकिन वह चेतना प्राप्त नहीं होती, जिसके द्वारा संपूर्ण पदार्थों का वास्तविक स्वरुप जाना जाता है और सारा भ्रमजाल कट जाता है।
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित 48 पन्नों की पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” का उद्देश्य “साधक की चेतना जगा देने का है”, क्योंकि ऐसा समझा जाता है कि मुक्ति के लिए इससे बेहतर सरल एवं निश्चित मार्ग हो ही नहीं सकता । जिस व्यक्ति ने आत्मस्वरूप का अनुभव कर लिया, सदगुण उसके दास हो जाते हैं और दुर्गुणों का पता भी नहीं लगता कि वह कहां चले गए।
उपरोक्त पंक्तियों में इसी “आत्मस्वरूप” को जानने का प्रयास किया गया है।
आत्मदर्शन का यह अनुष्ठान साधकों को ऊँचा उठावेगा, इस अभ्यास के सहारे वे उस स्थान से उठ जाएँगे जहाँ वह पहले खड़े थे। इस उच्च शिखर पर खड़े होकर वे देखेंगे कि दुनिया बहुत बड़ी है, मेरा राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ है। मैं जिन वस्तुओं को देखता था, उससे कहीं अधिक वस्तुएं मेरी है। अब वह और ऊंची चोटी पर चढ़ता है, जैसे-जैसे ऊंचा चढता है वैसे ही वैसे उसे अपनी वस्तुएँ अधिकाधिक प्रतीत होती जाती हैं और अंत में सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है। इस शिखर पर पहुँच कर जहाँ तक वह अपनी दृष्टि फैला सकता है, वहाँ तक उसे अपना साम्राज्य दिखता है। अब तक उसका एक बहन, दो भाई, माँ-बाप, दो घोड़े, दस नौकरों का परिवार था, अब उसके परिवार का हज़ार गुना विस्तार हो चुका है। यही अहंभाव का प्रसार है। दूसरे शब्दों में इसी को अहंभाव का नाश कहते हैं। बात एक ही है फर्क सिर्फ कहने-सुनने का है। इसे ही स्वः से सर्वस्व का विस्तार कहा गया है।
निम्नलिखित उदाहरण यहाँ बिल्कुल फिट बैठता है :
हम सबने रबड़ के गुब्बारे जिनमें हवा भरकर बच्चे खेलते हैं, देखे होंगे। इनमें से एक लो और उसमें हवा भरो, जितनी हवा भरती जाएगी, उतना ही वह बढ़ता जाएगा और फटने के अधिक निकट पहुंचता जाएगा। कुछ ही देर में उस गुब्बारे में इतनी हवा भर जाएगी कि वह गुब्बारे को फाड़कर अपने “विराट रूप आकाश” में भरे हुए महान वायुतत्व में मिल जाए।
यही आत्मदर्शन प्रणाली है।
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642 आहुतियां,15 साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज हमारी परम आदरणीय बहिनों -संध्या एवं सुजाता जी ने सबसे अधिक आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-48,(2)संध्या कुमार-53,(3)सुमनलता-28,(4 )सुजाता उपाध्याय -51 ,(5)नीरा त्रिखा-37,(6 )मीरा पाल-24 ,(7 ) अरुण वर्मा-43,(8)वंदना कुमार-25,(9 )निशा भारद्वाज-24 ,(10 )मीरा पाल-24,(11 ) विदुषी बंता-26 ,(12)चंद्रेश बहादुर-40,(13)मंजू मिश्रा-26,(14)पूजा सिंह-28,(15)राधा त्रिखा-32