15 मई 2024 का ज्ञानप्रसाद
“मैं क्या हूँ ?” 1940 में प्रकाशित हुई मात्र 48 पन्नों की परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम पुस्तक है। इस पुस्तक को हमारे अनेकों साथी पढ़ चुके हैं, अभी भी पढ़ रहे हैं, लेकिन इस नन्हीं सी दिव्य पुस्तक का ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर फिर से अध्ययन होना किसी विशेष उद्देश्य के कारण ही हो सकता है। वह विशेष उद्देश्य “revision” तो है ही लेकिन हमारे गुरुदेव के किसी भी साहित्य को जब कभी भी पढ़ने बैठें तो नया ही अवतरित होता दिखेगा। इसी नयेपन का अनुभव एवं और अधिक विस्तार से “स्वयं को जानने का प्रयास” ही इस बार का उद्देश्य है।
हम अपने साथिओं का किन शब्दों में धन्यवाद् करें कि हमारी एक ही पुकार (लेखों को पढ़कर कमेंट करना) को उन्होंने इतना सम्मान दिया कि क्या कहें। हम नतमस्तक हैं। निशा बहिन जी एवं अरुण वर्मा जी के कमेंट ने तो हमारा दिल ही जीत लिया। हमारे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए जिसे अभी पूरी तरह से हिंदी भी लिखना नहीं आती, वैध, महात्मा और न जाने कौन से विशेषण प्रयोग किये जा रहे हैं। नमन, नमन एवं नमन।
आज एक और निवेदन कर रहे हैं ( आदत पड़ गयी है)- प्रज्ञागीत के साथ-साथ गुरुदेव की वीडियो के साथ ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करें
धन्यवाद्
*************************
स्वयं को आत्मा समझने वाले व्यक्ति सदा आनंदमयी स्थिति का रसास्वादन करते हैं।
जिसे आत्मज्ञान हो जाता है, वह छोटी-छोटी घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित, उत्तेजित या अशांत नहीं होता, लाभ-हानि, जीवन-मरण, विरह-विछोह, मान-अपमान, लोभ, क्रोध, भोग, द्वेष की कोई घटना उसके ऊपर कोई ज़्यादा प्रभाव नहीं करती।
ऐसा क्यों होता है? क्या आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति सांसारिक दुनिया से दूर चला जाता है? क्या वोह संत बन जाता है? रिश्तेदारों से, मित्रों आदि से दूर ही दूर चलता जाता है ? कदापि नहीं-ऐसा बिल्कुल नहीं है।
अभी अभी हम सबने राजा जनक और अष्टावक्र की दिव्य कथा का अमृतपान किया है। राजा जनक ने आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद अष्टावक्र से कहा, “मैं अपने राजपाट का क्या करूँगा, मेरे लिए यह सब चीज़ें कोई अहमियत नहीं रखतीं।” अष्टावक्र ने कहा, “अब आपका जीवन आपकी ज़रूरतों के बारे में नहीं है क्योंकि आपकी अपनी ज़रुरत तो कोई है ही नहीं, आप अपने राज्य में जाइए क्योंकि आपकी जनता को अधिकार है कि उन्हें एक आत्मज्ञानी राजा मिले।”
आत्मज्ञानी छोटी-छोटी, तुच्छ सी बातों से इसलिए प्रभावित नहीं होता क्योंकि वह जानता है कि समस्त संसार परिवर्तनशील है और सदियों से चल रहा यह नित्य का स्वाभाविक क्रम है। जिसे हम सब आज “है” कह रहे हैं, वही कल “था” हो जाएगा, आज “अरुण त्रिखा है”, वही कल “अरुण त्रिखा था” हो जाएगा। कल की तो बात ही क्या, यह तो “पल भर” का खेल है। अगर कोई अजर-अमर है तो गुरुदेव जैसे महाज्ञानी,आत्मिक सत्ताएं, जिनके लिए कभी भी “थे”, “गुरुदेव थे” जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं होगा।
आत्मज्ञानी को इस तथ्य की भलीभांति जानकारी है कि “मनोवांछित वस्तु या स्थिति” कभी भी प्राप्त नहीं होती। इसीलिए वोह “जो प्राप्त है वही पर्याप्त है” के सिद्धांत को लेकर आगे ही आगे पूरे वेग से, पूरी ऊर्जा से बढ़ता जाता है। आदरणीय चंद्रेश जी द्वारा शेयर की गयी वीडियो अवश्य ही हमें अभी तक स्मरण होगी। इसके विपरीत जिस व्यक्ति को अभी आत्मज्ञान नहीं हो पाया है, उसके लिए उसका शरीर ही “आत्मा” से बढ़कर है ,वोह उसी हाड़-मांस के, थूक-पीक के भरे हुए शरीर के पालन-पोषण में ही एक ऐसी मृगतृष्णा (Rat-race) में हीरे जैसे जन्म को गवाएं जा रहा है जिसका कोई अंत ही नहीं है। अनात्मज्ञानी व्यक्ति इस अंतहीन मृगतृष्णा को तो समाप्त नहीं कर सकता लेकिन स्वयं समाप्त हो जाता है।
ऐसे व्यक्तिओं को समझाने का भी कोई फायदा नहीं होता। अगर उन्हें यह कहा जाए कि Best तो एक ही होता है तो कहाँ मानेगें। ऐसे अनात्मज्ञानिओं से ही Bestest (यानि Best की भी सुपरलेटिव डिग्री) जैसा शब्द सुनने को मिलता है। यह शब्द Informal setting में प्रयोग तो हो सकता है लेकिन grammar के सम्बन्ध में प्रश्नचिन्ह है। इंग्लिश Grammar में तो Good, better, best ही सुनते आये हैं लेकिन यह लोग अक्सर बोलते हुए सुने गए हैं : I am the Bestest यानि मैं Best से भी ऊपर हूँ , जो कि है ही नहीं, Exist ही नहीं करता। इस विषय पर अगर हमसे विचार रखने को कहा जाए तो इतना ही कह सकते हैं कि यह उन लोगों की झूठी शान है, झूठा गर्व है जिन्हें “आत्मा” का ज्ञान तो है नहीं, इंग्लिश Grammar में भी अज्ञानता के शिखर पर हैं।
इसी सन्दर्भ में परम पूज्य गुरुदेव समझा रहे हैं कि कालचक्र के परिवर्तन के साथ-साथ, समय के साथ-साथ, इच्छित-अनिच्छित दोनों प्रकार की घटनाओं का घटना एक प्राकृतिक नियम है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि प्रकृति द्वारा घटने वाली इन घटनाओं को एक मनोरंजन की तरह, रंगमंच के नाटक की तरह, कौतुहल और विनोद (Curiosity and humour) की तरह देखा जाए। यहाँ पर 1971 में रिलीज़ हुई हृषिकेश मुकर्जी की बहुचर्चित मूवी “आनंद” में बाबू मोशाय द्वारा बोला गया सुपरहिट डायलाग “ज़िंदगी और मौत सब ऊपर वाले के हाथ में हैं, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं, हम सब, उसके हाथ की कठपुतलियां हैं, कौन किस वक्त इस संसार उठ जाए कोई नहीं जानता-हा-हा -हा”
This is the crux of life. यही जीवन का निचोड़ है। जो व्यक्ति स्वयं को Bestest कह कर अपने गर्व को शांत कर लेते हैं उन्हें प्राकृतिक परिवर्तनों से क्या लेना देना, जो सृष्टि में अनवरत ईश्वरीय शक्ति के अंतर्गत हुए चले जा रहे हैं।
परम पूज्य गुरुदेव ने हमें सरलता से समझाने के लिए, इन दो प्रकार के मनुष्यों के लिए शरीरभावी एवं आत्मज्ञानी शब्दों का प्रयोग किया है। आत्मज्ञानी विपरीत परिस्थितिओं में स्वयं की ऊर्जा के कारण किसी सामने आई विपत्ति में मानसिक संतुलन नहीं खोता और होने वाले कष्ट से सहज ही बचा रहता है। उधर दूसरी तरफ शरीरभावी लोग छोटी सी विपत्ति में ही ज़मीन आसमान एक कर देते हैं, व्यथित और बेचैन हो जाते हैं। ऐसे लोग कभी-कभी तो इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि आत्महत्या जैसे दुःखद परिणाम भी उपस्थित कर लेते हैं। जब ऐसे शरीरभावीओं को कोई ख़ुशी मिलती है तो तब वोह इतने उत्तेजित हो जाते हैं की पार्टिओं, आयोजन के बगैर उनकी सेलिब्रेशन ही पूरी नहीं होती और जो कुछ इन पार्टिओं में होता है हमारे इस छोटे से परिवार का बच्चा बच्चा भली भांति जानता है। हमें तो यह कहना भी अनुचित नहीं लगा रहा कि “पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए”, दुःखी हुए ,तो उत्तेजित; इस स्ट्रेस को दूर करने के लिए शराब पीना और पारिवारिक वातावरण नष्ट करना, ख़ुशी हुई तो उस उत्तेजना को लोगों को बताने के लिए शोर शराबा DJ,Loud music, शराब-पार्टी और न जाने क्या कुछ और फिर अनैतिकता, गुंडागर्दी आदि।
हमने उपरोक्त पंक्तियाँ इसलिए लिखी हैं ताकि हमारे द्वारा बार-बार इस तथ्य को दोहराना कि परम पूज्य गुरुदेव का साहित्य, केवल 48 पन्नों की यह पुस्तक ( मैं क्या हूँ ?) कैसे हमारे जीवन को बदलने में सक्ष्म है, कैसे हम शरीरभावी से आत्मज्ञानी में परिवर्तित हो सकते हैं। विश्वास कीजिये यह ज़रा भी कठिन नहीं है, थोड़े से ही प्रयत्न से, नियमितता से गुरु-साहित्य का अमृतपान करने से,अपनी अंतरात्मा में उतारने से आप इस राजमार्ग पर अपने जीवन की गाड़ी को सरपट दौड़ने में सफल हो जायेंगें।
क्या है राजमार्ग ? क्या है सुपर हाईवे ?
जीवन को शुद्ध, सरल, स्वाभाविक एवं पुण्य प्रतिष्ठा से भरा पूरा बनाने का राजमार्ग यह है कि हम स्वयं को “शरीर भाव” से ऊंचा उठाने और “आत्मभाव” में जागृत होने के लिए प्रेरित करें। ऐसा करने से ही सच्चा सुख, शांति और ईश्वर द्वारा प्रदान किये गए दुर्लभ जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है। पिछले लेख में हमने आत्मा को परिष्कृत करके आत्मज्ञान के सरल तरीके जानने का प्रयास किया था।
अध्यात्म विद्या के आचार्य, हमारे गुरुदेव ने इस तथ्य को भली प्रकार अनुभव किया है और अपनी साधनाओं में सर्वप्रथम स्थान “आत्मज्ञान” को दिया है। पूज्यवर ने महत्वपूर्ण प्रश्न “मैं क्या हूँ?” पर विचार करने पर यही निष्कर्ष निकाला है कि “मैं आत्मा हूँ।” और इसी का ज्ञान आत्मज्ञान है। गुरुदेव बताते हैं कि “मैं आत्मा हूँ” का भाव जितना सुदृढ होता जाता है, मनुष्य के विचार एवं कार्य उतने ही आध्यात्मिक एवं पुण्य रूप होते जाते हैं। आने वाले लेखों में गुरुदेव हमें ऐसी साधनाओं से परिचित कराने वाले हैं जिनके द्वारा हम स्वयं के आत्मरूप को पहचानने में सफल हो पायेंगें। आत्मज्ञान अर्जित करने पर मनुष्य को वह सच्चा मार्ग मिलता है, जिस पर चलकर वह जीवन लक्ष्य को समझकर,बड़ी ही आसानी से परम पद को प्राप्त कर सकता है ।
आत्म स्वरूप को पहचानते ही मनुष्य समझ जाता है कि “मैं स्थूल शरीर एवं सूक्ष्म शरीर नहीं हूँ।” यह मात्र मेरे कपड़े हैं। मानसिक चेतनाएं भी मेरे “उपकरण मात्र” हैं। इनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूँ, यानि इनसे मुझे कोई भी आसक्ति नहीं है। इस तथ्य को समझते ही मनुष्य का समस्त भ्रम दूर हो जाता है और बंदरनुमा मनुष्य मुट्ठी का अनाज छोड़ देता है। हमारे साथिओं ने यह किस्सा सुना होगा कि एक छोटे मुंह वाले बर्तन में अनाज जमा था। बंदर ने उसे लेने के लिए हाथ डाला और मुट्ठी में भरकर अनाज निकालना चाहा। बर्तन का छोटा मुंह होने के कारण बंदर हाथ न निकाल सका, बेचारा पड़ा-पड़ा चीखता रहा कि अनाज ने मेरा हाथ पकड़ लिया है, लेकिन जब उसे “असलियत का बोध” हुआ कि मैंने ही मुट्ठी बांध रखी है, इसे खोलूं तो सही, जैसे ही उसने अनाज को छोड़ा तो अनाज ने बंदर को छोड़ दिया।
काम, क्रोधादि हमें इसलिए सताते हैं कि हमने उनकी “दास्ता” स्वीकार कर लेते हैं। जिस दिन हम इन दुव्यसनों के प्रति “विद्रोह का झंडा” खड़ा कर देंगे तो यह सारे दुर्व्यसन अपनी बिल में फँस जायेंगें । परम पूज्य गुरुदेव अपने उद्बोधनों में अनेकों बार हम बच्चों को आत्मस्वरूप से परिचित कराने के लिए भेड़ों में पले हुए शेर के बच्चे की कहानी सुनाते हैं। इस कहानी के अनुसार भेड़ों के परिवार में पलने वाला शेर का बच्चा स्वयं को को भेड़ ही समझता था, लेकिन जब उसने पानी में अपनी तस्वीर देखी तो पाया कि मैं भेड़ नहीं, शेर हूँ।
आत्मस्वरूप का बोध होते ही क्षणमात्र में उसका सारा भेड़पन समाप्त हो गया। आत्मदर्शन की महता ऐसी ही है, जिसने इसे जाना उसने उन सभी दुःख दरिद्रता से छुटकारा पा लिया, जिन के मारे वह हर घड़ी हाय-हाय किया करता था।
इसी आत्मदर्शन के लिए, हमें भेड़ से शेर का बोध कराने के लिए, हमारे गुरुदेव ने युगतीर्थ शांतिकुंज में विश्व के एकमात्र विलक्षण मंदिर, “भटका हुआ देवता” मंदिर की स्थापना की।
******************
608 आहुतियां,13 साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं। आज नारी शक्ति का दिन है -तीनों समर्पित एवं हमारी परम आदरणीय बहिनों -रेणु जी, संध्या जी और सुजाता जी ने सबसे अधिक आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-58 ,(2)संध्या कुमार-56,(3)सुमनलता-29 ,(4 )सुजाता उपाध्याय -55 ,(5)नीरा त्रिखा-27 ,(6 )आयुष पाल-27,(7 ) अरुण वर्मा-32 , (8) राधा त्रिखा-30,(9 )प्रेरणा कुमारी-24,(10 )वंदना कुमार-24 ,(11)निशा भारद्वाज-39 ,(12 )अनुराधा पाल-24,(13) विदुषी बंता-25,