https://youtu.be/FmGbYzFFmIw?si=Zc71rdBLZPTlDVNc
आज का प्रज्ञा गीत (ज्ञान की ज्योति जला देना )
9 मई 2024 का ज्ञानप्रसाद-
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सभी 30,000 परिवारजनों को हमारा नमन एवं अभिवादन स्वीकार हो। अति आदरणीय बहिन सुमनलता जी ने कमेंट करके बधाई, शुभकामना के साथ निम्नलिखित कमेंट किया :
“ज्ञानप्रसाद भंडारे में आप इतना प्रसाद बाँट रहे हैं कि कोई खाली हाथ नहीं जा रहा है। इसलिए हमारे जैसे श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ना स्वाभाविक है।” आदरणीय चंद्रेश जी ने भी बधाई देते हुए अर्ध लक्ष सदस्यों तक पंहुचने का आशा व्यक्त की है।
जहाँ हम अपने समर्पित साथिओं का इस बधाई एवं शुभकामना के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं वहीँ पर यह भी कहना चाहते हैं कि यह सब आपके सहयोग एवं गुरुकृपा से ही संभव हो पाया है। गुरुदेव का साहित्य, उन्हीं की वीडियोस, उन्हीं के समर्पित बच्चे, तो हमारा क्या है, हम तो गुरुदेव के रसोईघर के कुक हैं जो अलग-अलग रेसपीओं का भोजन आपको परोस रहे हैं। इससे बढ़कर हमारी कोई भी भूमिका नहीं हैं। आदरणीय योगेश जी अनेकों बार लिख चुके हैं, “भाई साहिब आप तो अमृत पिला रहे हैं” उनका भी ह्रदय से धन्यवाद्।
कुछ दिन पूर्व हमने इंडीकेट किया था कि “ईश्वर कौन है,कहाँ है, कैसा है ?” विषय पर आधारित लेख श्रृंखला का शुभारम्भ करने की योजना है लेकिन ईश्वर जैसी विशाल एवं असीमित सत्ता को जानने से पूर्व स्वयं (मनुष्य) को जानना उचित होगा। मनुष्य की सत्ता भी कोई कम विशाल नहीं है। जब हम ईश्वर और मनुष्य को जानने की बात कर रहे हैं तो मनुष्य के जड़ और चेतन स्वरूप को जानना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। कल वाला लेख जड़ और चेतन विषय पर ही आधारित था। आदरणीय चंद्रेश जी के कमेंट से ऐसा अनुभव हो रहा था कि यह आने वाली लेख शृंखला का प्रथम अंक है, ऐसा नहीं है। यह अपनेआप में Independent लेख था। हो सकता है हमारी अयोग्यता के कारण हम भाई साहिब तक अपनी बात स्पष्टता से पहुँचाने में असफल रहे हों जिसके लिए हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं।
आज से हम परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम रचना “मैं क्या हूँ ?” पर आधारित लेख शृंखला का शुभारम्भ कर रहे हैं। 2016 की पुनरावृत्ति की हार्ड कॉपी इन लेखों का आधार रहेगी। मात्र 48 पन्नों की इस पुस्तक को हम कितना समझ पाते हैं, कितना आपके समक्ष सरल करके प्रस्तुत कर पाते हैं और आप अपने कमैंट्स द्वारा कितनों के ह्रदय में गुरुदेव को स्थापित कर पाते हैं, ज्ञानप्रसाद लेखों के साथ-साथ आपके कमैंट्स से दृश्यमान होता जाएगा। परम पूज्य गुरुदेव इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर लिखते हैं कि “मैं क्या हूँ ?” प्रश्न का उत्तर,शब्दों द्वारा नहीं बल्कि साधना द्वारा हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है।
गुरुदेव का यह प्रयत्न तभी सार्थक होगा जब प्रत्येक साथी संकल्पित होकर ज्ञानप्रसाद लेखों को हृदयंगम करेगा, चाहे उसने पहले कितनी ही बार इस पुस्तक को क्यों न पढ़ा हो। ऐसा हम इसलिए निवेदन कर रहे हैं कि “केवल पढ़ने” और “समझ कर पढ़ने” में बहुत बड़ा अंतर् है। पढ़ने के बाद आपके अंतर्मन से निकल रहे शब्द ही अनेकों विश्व्यापी साथिओं के हृदयों में उतरेंगें। सबसे बड़ी बात है कि यह ज्ञानरथ परिवार का सत्संग है ,कोई साधारण Book reading नहीं है।
आज का Introductory लेख आरंभ करने से पहले बता दें कि यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय है कि दैनिक जागरण समाचार पत्र के 6 अप्रैल 2013 स्पिरिचुअल सेक्शन में इसके कुछ अंश प्रकाशित हो चुके हैं।
परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं :
इस संसार में जानने योग्य अनेक बातें हैं। विद्या के अनेकों सूत्र हैं, खोज के लिए, जानकारी प्राप्त करने के लिए, अमित मार्ग हैं। अनेकों विज्ञान ऐसे हैं, जिनकी बहुत कुछ जानकारी मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृति है। मनुष्य ने हमेशा से ही क्यों ? कैसे ? कहाँ ? कब ? जैसे प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा दिखाई है। इसी जिज्ञासा भाव के कारण मनुष्य अब तक इतना ज्ञानसंपन्न और साधनसंपन्न बन पाया है। सचमुच “ज्ञान ही जीवन का प्रकाश स्तंभ” है।
परमपूज्य गुरुदेव अपनी प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ ?” में बताते हैं कि जानकारी की अनेक वस्तुओं में से “स्वयं की जानकारी” प्राप्त करना सर्वोपरि है। मनुष्य को अनेकों बाहरी बातों को जानने की जिज्ञासा रहती है और हर समय इसी दिशा में प्रयत्न करता रहता है लेकिन वह यह भूल जाता कि वह स्वयं क्या है। स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त किए बिना जीवनक्रम बड़ा ही डाँवाडोल, अनिश्चित और कंटकाकीर्ण हो जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी न होने के कारण मनुष्य न सोचने लायक बातें सोचता है और न करने लायक कार्य करता है। सच्ची सुख-शांति का राजमार्ग एक ही है, और वह है- “आत्मज्ञान ।”
गुरुदेव के विशाल दिव्य साहित्य की भांति यह पुस्तक भी अपनेआप में एक उत्कृष्ट रचना है। इस पुस्तक में आत्मज्ञान की शिक्षा है।
गुरुदेव बताते हैं कि यह पुस्तक उत्कृष्ट तभी साबित हो पायेगी अगर इसके अध्ययन से अध्यात्म मार्ग के पथिकों का उपयोगी पथ प्रदर्शन हो पायेगा। इस पुस्तक में “मैं क्या हूँ ?” प्रश्न का उत्तर शब्दों द्वारा नहीं बल्कि साधना द्वारा हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय का शुभारम्भ, निम्नलिखित चाणक्य नीति-4-18 से होता है :
“कः काल कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययाऽऽगमौ । कश्चाहं का च मे शक्तिरितिचिन्त्यं मुहुर्मुहुः” देवभाषा संस्कृत के इस श्लोक का अर्थ है :
“कौन-सा समय है, मेरे मित्र कौन हैं-शत्रु कौन हैं, कौन-सा देश (स्थान) है, मेरी आय-व्यय क्या है, मैं कौन हूँ, मेरी शक्ति कितनी है ?”
अखंड ज्योति के अगस्त 1970 अंक के पृष्ठ 10 पर भी यह सन्देश प्रकाशित हुआ था और उसमें भी गुरुदेव हमें सचेत कर रहे थे कि मनुष्य को इन 6 बातों को हर समय याद रखना चाहिए।
यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि “आप कौन हैं?” तो वह अपने वर्ण, कुल, व्यवसाय, पद या संप्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूँ,अग्रवाल हूँ, बजाज हूँ, तहसीलदार हूँ, वैष्णव हूँ आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर वह अपने निवास स्थान, वंश, व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। इसका कारण है कि मनुष्य “शरीर भाव” में इतना तल्लीन हो गया है कि वह शरीर को ही सब कुछ समझ बैठा है। वंश, वर्ण, व्यवसाय, पद आदि तो सब शरीर के होते हैं । शरीर मनुष्य का एक परिधान है क्योंकि वही तो सामने दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि वोह केवल उसी के पालन पोषण, लाड़-प्यार में लिप्त रहता है जो उसे प्रतक्ष्य दिख रहा है। वह इस प्रतक्ष्य के स्वार्थ को ही सब कुछ मान लेता है। मनुष्य भूल जाता है कि उसके शरीर के मंदिर में विराजमान “आत्मा” का भी कोई स्वार्थ है, उसकी क्या ज़रूरतें हैं, उसका पोषण कैसे होता है, उसका भोजन क्या है। मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम और अज्ञान यही है कि वोह स्वयं को न केवल शरीर ही मान बैठता है बल्कि सब कुछ ही मान लेता है।
मनुष्य की यही अज्ञानता उसे जीवनभर अनेकों अशांतियों, चिंताओं और व्यथाओं के दलदल में इस तरह से फंसाए रखती हैं कि चाहने पर भी मनुष्य इस दलदल में से निकल नहीं पाता । मनुष्य शरीर में रहता है, यह ठीक है लेकिन यह भी ठीक है कि वह शरीर नहीं है। जब प्राण निकल जाते हैं, तो परिवार वाले उसे मृत शरीर घोषित कर देते हैं जो नाकाम हो जाता है। उसे थोड़ी देर रखा रहने दिया जाए, तो लाश सड़ने लगती है, दुर्गंध उत्पन्न होती है और कीड़े पड़ जाते हैं। देह वही है, ज्यों की त्यों लेकिन प्राण निकलते ही उसकी दुर्दशा होने लगती है। इससे प्रकट है कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है लेकिन वह शरीर से भिन्न है। इस भिन्न सत्ता को “आत्मा” कहते हैं। वास्तव में यही मनुष्य है। मैं क्या हूँ ? इसका सही उत्तर यह है कि “मैं आत्मा हूँ।” उस परमसत्ता का अंश हूँ। जब मनुष्य को इस परम सत्य का ज्ञान हो जाता है, तभी उसे “आत्मज्ञानी” कहा जा सकता।
सभी विचारकों ने ज्ञान का एक ही स्वरूप बताया है, वह है-“आत्मबोध” यानि स्वयं का बोध। अपने संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता। जीव असल में ईश्वर ही है। विकारों में बँधकर वह बुरे रूप में दिखाई देता है लेकिन उसके भीतर अमूल्य निधि भरी हुई । वह शक्ति का केंद्र है , एक पावर हाउस है। मनुष्य के अंदर इतनी शक्ति भरी पड़ी है जिसकी वोह कभी कल्पना भी नहीं कर सकता। सारी कठिनाइयाँ, सारे दुःख तो इसी बात के हैं कि मनुष्य स्वयं को ही नहीं जानता। जब मनुष्य अपने असली रूप को,आत्मस्वरूप को जान जाता है तो उसे कोई दुःख, चिंता आदि अनुभव नहीं होता, किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं रहता।
आत्मस्वरूप का अनुभव करने पर वह कहता है:
मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, फिर मेरी मृत्यु कैसे ? मैं प्राण नहीं हूँ, फिर मुझे भूख-प्यास मुझे कैसी ? मैं चित्त नहीं हूँ, फिर मुझे शोक-मोह कैसे ? मैं कर्ता नहीं हूँ फिर मेरा अंध मोक्ष कैसे ?
जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ ? तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों का रूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है। चाहे किसी दृष्टि से देखा जाए, आत्मज्ञान ही सर्वसुलभ और सर्वोच्च ज्ञान ठहरता है।
शरीर और आत्मा की पृथकता की बात हम सबने सुन रखी है। सिद्धांतत: हम सब उसे मानते भी हैं। इस पृथकता की मान्यता सिद्धांत रूप से जैसे अधिकतर लोगों को स्वीकार है, वैसे ही व्यवहार में अधिकतर लोग उसे अस्वीकार भी करते हैं। लोगों का व्यवहार ऐसा होता है मानो वे शरीर ही हैं। किसी व्यक्ति का अगर सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण किया जाए और देखा जाए कि वह क्या सोचता है, क्या कहता है और क्या करता है तब पता चलेगा कि वह शरीर के बारे में ही सोचता है। शरीर को ही उसने सब कुछ मान रखा है। शरीर आत्मा का मंदिर है। उसकी स्वच्छता, स्वास्थ्य व सुविधा के लिए काम करना उचित और आवश्यक है लेकिन यह बात अहितकर है कि उसे केवल शरीर ही मान लिया जाए और अपने वास्तविक स्वरूप को भुला दिया जाए। स्वयं को शरीर मान लेने के कारण शरीर के हानि-लाभों को भी वह अपना हानि-लाभ मान लेता है और वास्तविक हितों को भूल जाता है।
यही भूल-भूलैयां का खेल है जो जीवन को नीरस बना देता है।
820 आहुतियां,14 साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं, आदरणीय सरविन्द जी और अरुण जी ने लगभग बराबर की आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्ट का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)रेणु श्रीवास्तव-47,(2)संध्या कुमार-53,(3)सुमनलता-44,(4 )सुजाता उपाध्याय -39 ,(5)नीरा त्रिखा-32,(6 )चंद्रेश बहादुर-54 ,(7 ) अरुण वर्मा-28,45,(8) राधा त्रिखा-27 ,(9 ) सरविन्द पाल-27,48,(10 )वंदना कुमार-36,(11)पूजा सिंह-38 ,(12)पुष्पा सिंह-24, मंजू मिश्रा-26,(13)निशा भारद्वाज-38,(14) अनुराधा पाल-25