वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

स्वयं को तुच्छ समझना आत्महत्या है 

https://youtu.be/Dx9vGyiEXYM?si=rPHZeCOrBZ6ltgLO
6  मई  2024 का ज्ञानप्रसाद
आज सप्ताह का प्रथम दिन सोमवार है। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा संचालित  गुरुकुल की गुरुकक्षा में सभी गुरुशिष्यों का, सहपाठिओं का स्वागत,अभिवादन है। 
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से हम परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” को आधार मानकर,अपनी परमप्रिय बेटी संजना के सुझाव पर  जिस  लेख श्रृंखला का  अमृतपान कर रहे हैं आज उस श्रृंखला का 23वां एवं अंतिम   लेख   प्रस्तुत है।  
2011 में प्रकाशित हुई 66 पन्नों की इस दिव्य पुस्तक के दूसरे  एडिशन  में परम पूज्य गुरुदेव ने हम जैसे नौसिखिओं,अनुभवहीन शिष्यों को मनुष्य शरीर की बिजली जैसे जटिल विषय से परिचित कराया। इस लेख श्रृंखला की सफलता का श्रेय संजना बेटी के साथ-साथ उन  सभी सहकर्मियों/साथिओं को जाता है जिन्होंने प्रत्येक लेख को, कठिनता के बावजूद, कमैंट्स करते हुए अपने विचारों की आहुतियां प्रदान कीं जिनके कारण हर बार की भांति यह लेख शृंखला भी एक अद्भुत, दिव्य सत्संग से कम  नहीं रही। 
सही मायनों में यही है सच्ची गुरुभक्ति, अपने गुरु के प्रति श्रद्धा। हम विश्वास से कह सकते हैं कि हम सब अपने  गुरु  के अनुदानों की वर्षा से ओतप्रोत हो रहे हैं। सभी साथी बधाई के पात्र हैं।
आज के लेख में “आत्मतेज” के बारे में  बहुत ही संक्षिप्त सा विवरण है जिसे लेखशृंखला में कहीं कोई उचित स्थान न मिल सका, साथिओं से निवेदन है कि यह  विवरण अपनेआप में बहुत ही प्रैक्टिकल जानकारी लिए हए है, लगभग सभी ही इस जानकारी से परिचित हैं लेकिन फिर भी इसे एक प्रकार का Revision समझकर अवश्य ग्रहण करें। 
अति आदरणीय सुमनलता बहिन जी ने बिल्डिंग के ऊपर लगे  Lightning conductor का हिंदी अनुवाद “तड़ित चालक” लिख कर हमारे हिंदी शब्दकोश में बढ़ावा तो अवश्य किया लेकिन जिज्ञासावश एक रिसर्च टॉपिक भी प्रदान करा दिया जिसने हमें तड़ित चालक और वर्षों से प्रचलित “शिखा यानि चोटी” में सम्बन्ध ढूंढने को प्रेरित कर दिया। धन्यवाद् बहिन जी। दोनों में कोई सम्बन्ध है यां  नहीं यह तो नहीं जानते लेकिन वैज्ञानिक पक्ष है बहुत ही रोचक। 
जैसे आज के ज्ञानप्रसाद लेख की भूमिका बता रही है कि यह इस शृंखला का समापन लेख है तो कल से एक और नई दिव्य लेख श्रृंखला का शुभारम्भ हो रहा है, हमारी तरह आप भी जानने को उत्सुक होंगें कि आने वाली लेख शृंखला कौनसी  होगी  एवं ज्ञानभंडार में से  कौन से रत्न प्रदान होने वाले हैं।
जैसा पहले ही इशारा हो चुका  था कि कुछ एक अति दिव्य पुस्तकें हमारे पास लाइन अप हुई थीं, जिनका हम कई दिनों  से स्वाध्याय कर रहे थे। उनमें से दो पुस्तकें जिन्होंने हमें चुम्बक की भांति आकर्षित किया वोह “ईश्वर कौन है, कैसा है, कहाँ है” और “विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व” हैं। जब इन पुस्तकों (एवं इसी विषय पर अन्य)  को OGGP के मंच पर लाने का निर्णय किया तो एकदम ह्रदय ने प्रश्न किया कि ईश्वर जैसी असीमित सत्ता को जानने से पहले हम यह तो जान लें कि आखिर हम क्या हैं, हमारा क्या अस्तित्व है। परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ” ने मस्तिष्क पर दस्तक दी  कि उन पुस्तकों से पहले इस पुस्तक का अध्ययन करना उचित होगा। इस दिव्य पुस्तक के कुछ पन्ने ही स्वाध्याय किए थे  तो एक और जिज्ञासा ने जन्म लिया कि “मनुष्य शरीर में आत्मा का वास कहाँ होता है।” इस हाड़ मॉस के शरीररुपी पिंजर में से आत्मा निकल जाने पर बाकी तो केवल मिट्टी ही बच जाती है, इसी मिट्टी के पालन पोषण में, देह की सेवा में मुर्ख मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदान अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है।
तो साथिओ कल वाले लेख में  “जड़ और चेतन” के अंतर् को समझने का प्रयास होगा। 
इन्हीं शब्दों के साथ विश्वशांति की कामना से आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं। 
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!


मनुष्य के जीवन में अनेकों पल आते हैं जब दूसरों पर प्रभाव डालने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा प्रभाव केवल आत्मतेज से ही संभव है। नेत्रों में हीनता,वाणी में दीनता और चेहरे पर मुर्दापन जैसा व्यक्तित्व कौन पसंद करेगा क्योंकि  संसार देने की अपेक्षा लेना पसंद करता है। मनुष्य के चेहरे पर प्रकाश है तो उस प्रकाश की छाया दूसरों को प्रकाशमय बनाएगी  और वे प्रसन्न होकर तुम्हारी सहायता करेंगे। मलीन चेहरा खाने को  दौड़ता है, उससे सब लोग बचकर भाग निकलना चाहते हैं। अगर आपके सामने आकर कोई जंभाई लेता हो तो कहना अनुचित नहीं है कि “अपनी सुस्ती और उदासी मेरे ऊपर मत फेंकों” । 
तेजस्वी पुरुष जहाँ जाता है, उसका आदर होता है, लोग उसे प्रणाम करते हैं, उसकी बात मानते हैं, विरोधियों की बोलती बंद हो जाती है।  ऐसे ही व्यक्ति कुशल व्यापारी, सफल वकील, धनी किसान, पंच या प्रभावशाली उपदेशक बनते हैं। 
आत्मशक्ति,आत्मतेज एवं आत्मविद्युत् बढ़ाने का सबसे प्रथम उपाय आत्मविश्वास है। स्वयं को तुच्छ, निर्बल, अयोग्य या नीच समझना एक प्रकार की आत्महत्या है। गुरुदेव  बार-बार घोषणा करते हैं कि 
“मनुष्यो ! तुम क्षुद्र जीव नहीं हो, तुम तो सम्राटों के सम्राट उस ईश्वर  के अमर-पुत्र राजकुमार हो जिसने तुम्हारे ऊपर इतना श्रम इसलिए किया है कि तुम भी कीड़ों की तरह जिंदगी न बिताओ और कुत्तों की मौत न मर जाओ।” 
भौतिक वस्तुओं को अपनी समझकर उन पर अभिमान करना अज्ञान है लेकिन आत्मा के दिव्य स्वरूप की झाँकी करना आत्मदर्शन है, पुण्य है, कर्त्तव्य है, आत्मसम्मान है। अहंकार और आत्मसम्मान की तुलना करना मूर्खता है। ईश्वर का पवित्र अंश होने का विश्वास न करना और स्वयं को तुच्छ समझने का अर्थ है ईश्वर को दूर समझना। 
परम पूज्य गुरुदेव ने इसी तथ्य को सदैव स्मरण कराने की दृष्टि से युगतीर्थ शांतिकुंज में पांच दर्पण लगा कर विश्व का एकमात्र मंदिर “भटका हुआ देवता” का निर्माण करा दिया। पांच में से एक दर्पण के समक्ष लिखा वेदांत का प्रमुख मंत्र “ सोऽहम्”, जिसका अर्थ है “मैं वही हूँ  (परमात्मा )”, मनुष्य की भावना को जितना दृढ करेगा उसके अंदर उतना ही आत्मतेज जाग्रत होगा। 
परम पूज्य गुरुदेव ने अपनी प्रथम पुस्तक “मैं क्या हूँ”  में इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक एक अभ्यास बताया है जिसके अनुसार आत्मा के सूर्य समान तेजस्वी बिंदु की भावना करनी चाहिए और उसके आसपास समस्त विश्व को घूमते हुए अनुभव करना चाहिए। विचारों की भावना इतनी असीमित एवं पवित्र है कि ऐसा करने पर निश्चय ही आत्मशक्ति का विकास होता है। 
एक और दिव्य पुस्तक “स्वस्थ और सुंदर बनने की अद्भुत विद्या” में गुरुदेव  सिद्ध कर चुके हैं कि आत्मा का दिव्य तेज़  कुविचारों के आवरणों से ढका रहता है। यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, पाप, पाखंड के विचारों को हटाकर मनुष्य प्रेम, पवित्रता, दया, और उदारता की भावनाओं को अपना लें तो “आत्मा का प्रकाश” इंद्रियों की खिड़कियों में होकर जगमगाने लगेगा और वह पुण्यात्मा व्यक्ति असाधारण तेजस्वी बन जाएगा।
वैज्ञानिक अभी पूरी तरह से  खोज नहीं कर पाए हैं कि हँसने या मुस्कराने के समय चेहरे पर जो असाधारण तेज़  प्रकट होता है वह शरीर के किस-किस भाग से एवं किस प्रकार से  इकट्ठा होता है, लेकिन यंत्रों द्वारा यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि हँसते-मुस्कराते  चेहरे में साधारण चेहरे  की अपेक्षा लगभग 5 गुना अधिक विद्युत होती है। यह विद्युत  दूसरों पर आश्चर्यजक प्रभाव डालती है और Law of attraction के अनुसार जब यह विद्युत लौटकर वापस जाती है तो रक्त संचार एवं स्नायु मंडल पर बहुत बड़ा हितकर प्रभाव डालती है। 
चाहे थोड़ा सा ही सही,मुस्कराने से चेहरे के आसपास की नसें ऐसे तनती है कि उनमें मस्तिष्क की प्रभावशाली विद्युतधारा खिंच आती है। यह विद्युतधारा केवल होंठ  या गालों पर ही प्रदर्शित नहीं होती बल्कि  नेत्रों में भी उसका एक बड़ा भाग पहुँच जाता है और वे भी चमकने लगते हैं।


Lightning conductor एवं शिखा (चोटी) का सम्बन्ध :   
Lightning conductor जिसे हिंदी में तड़ित चालक कहते हैं  धातु की एक छड़ (Rod)  होती है जो किसी बिल्डिंग पर लगाई जाती है और इसका उद्देश्य बिल्डिंग को बिजली गिरने से बचाना होता है। बादलों के गरज़ने ने यदि बिजली किसी बिल्डिंग  से टकराती है, तो सबसे अधिक संभावना यह है कि यह मेटल रॉड  से टकराएगी और बिल्डिंग पर गिरने  के बजाय एक तार के माध्यम से जमीन में चली जाएगी जिससे बिल्डिंग नुक्सान से बच जाएगी। 
सनातन परम्परा में चोटी यानी शिखा का हमेशा से विशेष महत्व रहा है। सिर के जिस स्थान पर शिखा यानी चोटी रखने की परंपरा है, वही पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी होती है। शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्ना नाड़ी मनुष्य के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिखा सुषुम्ना नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, इसी के साथ में ब्रह्माण्ड से प्राप्त होने वाले सकारात्मक व आध्यात्मिक विचारों को ग्रहण भी करती है। बालों में भी तो चुंबकत्व  होता है 
वैदिककाल से सभी ऋषिमुनि  सिर पर शिखा धारण करते रहे हैं, हालांकि अब इसका चलन कम हो गया है। माना जाता है कि शिखा रखने से मन स्थिर रहता है। एकाग्रता बढ़ती है। क्रोध पर प्रभावी नियंत्रण हो पाता है। मानसिक व वैचारिक शक्ति प्रबल होती है। बच्चे का मुंडन और उपनयन संस्कार किया जाता है एवं  इस संस्कार के बाद ही बालक द्बिज कहलाता है। द्बिज का अर्थ दूसरा जन्म होता है । इसके उपरांत ही बालक को गुरुकुल में भेजने की परम्परा रही है। 
प्रकृति ने मानवशरीर को इतना सबल बनाया है  कि वह बड़े से बड़े आघात को भी सहन करके बच  जाता हैं लेकिन इसी शरीर में कुछ स्थान ऐसे भी  हैं, जिन पर आघात होने से तत्काल मृत्यु हो सकती हैं। इन्हें मर्मस्थान कहा जाता हैं। शिखा के नीचे भी मर्मस्थान होता हैं, जिसके लिये सुश्रुताचार्य ने लिखा हैं
मस्तकाभ्यन्तरो परिष्टात् शिरा सन्धि सन्निपातों ।
रोमावर्तोऽधिपतिस्तत्रपि सधो मरण्म् ।
भावार्थ- मस्तक के भीतर ऊपर जहाँ बालों का आवर्त(भँवर) होता हैं, वहाँ संपूर्ण नाङियों व संधियों का मेल हैं, उसे “अधिपतिमर्म” कहा जाता हैं। अक्सर देखा गया है कि  यहाँ चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती हैं।
समापन 


736  आहुतियां, 17 साधक आज की महायज्ञशाला को सुशोभित कर रहे हैं, बहिन सुजाता   जी एवं भाई चंद्रेश जी ने इस महायज्ञ में सबसे अधिक आहुतियां प्रदान करके गोल्ड मेडलिस्टों  का सम्मान प्राप्त किया है, उन्हें हमारी बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
सरविन्द जी के सारे परिवार को बधाई।  
(1),रेणु श्रीवास्तव-49 ,(2)संध्या कुमार-46 ,(3)सुमनलता-36 ,(4 )सुजाता उपाध्याय -56    ,(5)नीरा त्रिखा-28 ,(6 )चंद्रेश बहादुर-58 ,(7 )उमा साहू-25,(8) अरुण वर्मा-30,(9 ) सरविन्द पाल-33 , (10 )वंदना कुमार-24 ,(11)पूजा सिंह-29 ,(12) अनुराधा पाल-29, (13)राधा त्रिखा-36,(14)पिंकी पाल-27,(15)मीरा पाल-26,(16) आयुष पाल-26, (17)आकांशा मिश्रा-34                     
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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