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23 अप्रैल, 2024 का ज्ञानप्रसाद
हमारी सर्वप्रिय बेटी संजना ने परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” पुस्तक का रेफरेन्स दिया और गुरुदेव ने हमारी अज्ञानता के बावजूद हमसे आज तक 15 लेख लिखवा लिए ,आज इसी दिव्य कड़ी का 16 वां लेख प्रस्तुत है। गुरु चरणों में शत शत नमन करते है।
गुरुकक्षा में आज का लेख इतना सरल है कि हम में से हर कोई इसे प्रतिदिन अनुभव कर रहा है। हर कोई अपने घर में पूजा अर्चना कर रहा है, मंदिर जा रहा है, व्हाट्सप्प पर शांतिकुंज से अनवरत पोस्ट हो रहे अमृतवचन पढ़ रहा है, ज्ञानप्रसाद लेखों का अमृतपान कर रहा है, शुभरात्रि सन्देश में अमृतवाणी को धारण कर रहा है, शांतिकुंज जा रहा है, चिन्मय जी जैसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व के प्रातः काल में ही दिव्य दर्शन कर रहा है; इन सभी कृत्यों में कोई भी ऐसा कृत्य नहीं होगा जिसका प्रभाव हमारे ह्रदय में सीधा न उतरता हो, हमारे ह्रदय के तारों को झंकृत न करता हो। कई बार तो ऐसा होता है सुबह सवेरे किसी विचार का अमृतपान इस स्तर का होता है सारा दिन (यहाँ तक कि कई दिनों तक) यह विचार हमारे ह्रदय को झकझोड़ते रहते हैं। यह विचारों की विद्युत् है जिसे हम पहले ही आपके समक्ष रख चुके हैं।
हम सब यहीं तो नहीं रुक जाते, अच्छे दिव्य विचारों को अपनी-अपनी समर्था अनुसार शेयर भी करते हैं। ज्ञानप्रसाद की बात तो बिलकुल ही अलग है। पोस्ट होते ही कमेंट आने शुरू हो जाते हैं और रात सोने तक पोस्ट होते रहते हैं। ज्ञानप्रसाद की प्रक्रिया को अगर “सत्संग” की संज्ञा दी जाए तो शायद अतिश्योक्ति न हो।
आज का लेख सत्संग पर ही आधारित है, इससे प्रस्फुटित हो रही विद्युत तरंगों की बात बाद में आती है, पहले यह तो समझ लें कि जिसे हम “सत्संग” कहते हैं, क्या हमें सही अर्थो में इसका ज्ञान है ?
आशा करते हैं कि हम सभी इस प्रश्न पर स्वयं को केंद्रित करेंगें कि क्या ज्ञानप्रसाद में सत्संग हो रहा है, अगर हो रहा है तो क्या विद्युत तरंगों से हम करंट अनुभव कर रहे हैं। हम विश्व के किसी भी भाग में हों, ज्ञान की सूक्ष्म ज्योति को हमारा मार्गदर्शन अवश्य करना चाहिए, नहीं तो विज्ञान गलत साबित हो जाएगा।
तो आइए आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ करें।
सत्संग क्या है? सत्संगी कौन है ?
सत्संग अर्थात “सत्य का संग” अर्थात सत्य पर विश्वास करना “कथ्य यानि कही कहाई” पर नहीं।
जो व्यक्ति दुनिया में व्याप्त सच्चाई को मानता है उसका साथ देता हैं उस पर खुद भी अमल करता है और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है वह “सत्संगी” कहलाता है।
मान लीजिए कोई आदमी सत्संग में जाता है, वहां से अच्छी बातें सुनता है, सत्संग को बहुत ज़्यादा मानता लेकिन खुद उन पर अमल नहीं करता, उन्हें अपने जीवन में नहीं नहीं उतरता तो वह वहां जाने मात्र से ही सत्संगी नहीं ही जाता।
उसके लिए सत्य को अपने जीवन में उतारना बेहद जरूरी है। मनुष्य का मन, वचन और कर्म यदि सत्य के आधार पर संचालित हो, जीवन यदि सत्य से ओतप्रोत हो तो यही है, सत्संग।
संत कबीर के शब्दों में ” सत् सोई जो बिनसै नाहीं।” जिसका कभी विनाश नहीं होता ऐसे त्रयकाल अबाधित तत्व को सत्य कहते हैं। वह अविनाशी तत्व क्या है? उत्तर मिलेगा परमात्मा, इसलिए परमात्मा का संग ही उत्तम कोटि का सत्संग है। किन्तु यह सत्संग होना आसान नहीं है।
यहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को कई सीढ़ीओं को पार करना होता है। साधु-संतों का संग करना पड़ता है। वे हमारी वृत्ति को परमात्मा से जोड़ते हैं और परमात्मा को पाने का यत्न बताते हैं। इसलिये व्यवहारिक रूप में सत्संग का अर्थ है, साधु-संतों, महापुरुषों का संग होता है।
यदि हम सत्संग शब्द के भाव को और भी सरल रूप में समझना चाहें तो कहना पड़ेगा कि “ऐसा संग जिससे हमारे मन के विचार पवित्र रहे, वही सत्संग है”
मनुष्य जीवन को दिशा देने में “विचार” ही प्रधान है। मन के विचार एक दिन “वाणी” बनकर प्रकट होते हैं। वाणी एक दिन “कर्म” में परिणत हो जाती है। कर्म से आदतें बनती हैं। हमारी आदतें हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है और हमारा व्यक्तित्व ही हमारे भविष्य का जन्मदाता है।
विचार→ वाणी→ कर्म→ आदतें→ व्यक्तित्व→ भविष्य
अच्छी संगति से हमारे विचार पवित्र होंगे। विचार पवित्र होने से वाणी पवित्र होगी। वाणी पवित्र होने से हमारे कर्म पवित्र होंगे। कर्म पवित्र होने से आदतें पवित्र होंगी। आदतें पवित्र होने से हमारा व्यक्तित्व पवित्र और उत्तम होगा और उत्तम व्यक्तित्व से ही हमारे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होगा। यही सत्संग का उद्देश्य है। इसके विपरीत यदि मन के विचार अपवित्र हों, दूषित हों तो वाणी, कर्म, आदतें, व्यक्तित्व; सभी प्रदूषित हो जाएँगी और भविष्य अंधकार हो जाएगा।
बात रही सत्संगी होने की, तो जिन्होंने जीवन में सत्संग को अपना लिया है या जो सत्संग करते हैं वे सत्संगी कहलाते हैं।
आंतरिक सत्संग ही कल्याण करता है:
सत्संग यानि सत्य के साथ, अनश्वर के साथ, ईश्वर के साथ लग जाना। साथ का मतलब है उसी भाव में, अवस्था में, मानसिकता में ठहर जाना। जो मनुष्य तुम्हें सत्य के साथ कर दे वह संत है । जो जगह तुम्हें सत्य के निकट पहुंचा दे वह सत्संग-स्थल है । जो किताब तुम्हें सत्य की अनुभूति के लिए प्रेरित करे वह वेद ; वह उपनिषद ; वह पुराण है । किंतु ये सब बाहरी सत्संग है। इससे कल्याण नहीं होता है। सत् की बात जब तक अंदर नहीं उतरें तब तक ‘संग’ नहीं होता है। तुम सत्संग से लौटे और घर पर पत्नी से झगड़ लिए। तुम ने सत्संग वाली किताब पढी और दुकान पर जाते ही नौकर को लताड़ दिया। तुम कथा सुन कर नौकरी करने गये और वहां रिश्वत ले ली। सब गुड़ गोबर हो गया। तुम ने बस संत को सुना, ग्रहण नहीं किया। तुमने केवल वेद का कोई हिस्सा पढा, उसे स्वीकार नहीं किया। बाहर वाला सत्संग बाहर ही रह गया। अंदर गया ही नहीं। तुम सत् के साथ हुए ही नहीं। हमने कबीर की साखियां पढीं, पढाई, उनके अर्थ भी समझे लेकिन वे अंदर नहीं उतरीं। कबीर की रूह में भाव उठ कर “साखी” बनें । कबीर रूह में डूब कर बोले। इधर हमने कान से सुनी, आँखों से पढी, दिमाग से समझी और मुंह से बोल कर पढी। इनमें कहीं भी कबीर नहीं थे। केवल पाठ्यक्रम था और पढाने की नौकरी थी। कबीर और उनकी साखी जहां थी वहां तो हम पहुंचे ही नहीं। इसलिए 10,000 विद्यार्थियों को पढाने के उपरांत भी कबीर के साथ हमारा ‘सत्संग’ नहीं हुआ। क्या हम सब की भी यही दशा है? सत्संग में संत रूह से बोलता है और हम कान से सुनते हैं। यह सत्संग नहीं है। यही कारण है कि दस बीस वर्ष तक सत्संग में बैठ कर भी हम वैसे के वैेसे भौतिक ही हैं ; तनिक भी ‘रूहानी’ नहीं हुए। हम सत् से दूर ही रहे। बस, हमारे पास किस्से हैं, कहानियां हैं, गुट हैं, प्रसादी है, जुलूस हैं ; किंतु सत्संग नहीं है। मनुष्य के अंदर तो मोह,माया,लोभ, बेईमानी, छल-कपट है। वहां सत्संग है ही नहीं। मनुष्य ढिंढोरा तो बहुत पीटता है लेकिन अपने दिल से, सच्चे मन से पूछे, “क्या मैं माया से छूटना चाहता हूं?” उत्तर मिलेगा नही। इसलिए सत्संग बाहर ही रह जाता है। जहां सुना-पढा वहीं झाड़ दिया।
इसलिए जिस सत्संग की जरूरत है, उस सत्संग को “आंतरिक सत्संग” का नाम दिया गया है।
जब तक मनुष्य की सोच ही उसे सत्य की ओर न धकेलने लगे तब तक बात नहीं बनेगी । जब उसके भीतर सत्यानुभूति के लिए कसक जगेगी, तड़प उठेगी, प्यास लगेगी, ज्ञानप्रसाद ग्रहण करने की भूख से नस-नस थर्रा उठेगी, तब कहीं जाकर परिवर्तन की संभावना बनेगी।
यहाँ पर बात निश्चय की हो रही है, संकल्प की हो रही है, Resolution की हो रही है, Commitment की हो रही है। एक ऐसा संकल्प जो मनुष्य को स्वयं से लेना है। मनुष्य को स्वयं से ज़िद करनी है कि मुझे अपने “आत्मस्वरूप” को पहचानना है।
इस स्टेज तक पहुंचने के लिए शुभारंभ स्वयं से ही करना है। स्वयं को ही सत्संग के लिए तैयार करना है। परम पूज्य गुरुदेव का दिव्य साहित्य, उसमें से अथक परिश्रम से चुने गए ज्ञानप्रसाद लेख केवल इसलिए नहीं पढ़ने हैं कि सभी पढ़ रहे हैं। यह दिखावे वाला खेल नहीं है,विज्ञापन नहीं है कि मैने 10 व्हाट्सएप्प ग्रुपों में ज्ञानप्रसाद को शेयर कर दिया, अरे तूने खुद पढ़ा क्या? अगर पढ़ा है तो समझ आया कि गुरुदेव कहना क्या चाहते हैं, क्या उनके हृदय की बिजली के तार तुम्हारे हृदय की बिजली से जुड़े है, अगर जुड़े हैं तो क्या Spark हुआ है?
गुरुदेव के साहित्य का अमृतपान कोई बाबा जी का सत्संग नहीं है जिससे धन मिलेगा, सन्तान मिलेगी, नौकरी का जुगाड़ हो जाएगा।
मनुष्य का संकल्प “सत्य यानि परमात्मा “ को जानने का होना चाहिए । मनुष्य को अपने कर्तव्य का दायरा अधिकतम सीमा तक फैला देना चाहिए। यह “कर्म वाला सत्संग” हो जाएगा। मनुष्य को अपनेआप को, अपनी स्वयं की सत्ता को पूरे समाज से जोड़ देना चाहिए ; यह “सामाजिक सत्संग” हो जाएगा। मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी “खुदी” को ईश्वर में लीन कर दे ताकि ईश्वर पूछे कि तेरी रज़ा क्या है। यह “परम सत्संग” होगा। मनुष्य जब अंदर से संत बन जायेगा तब ही “आंतरिक सत्संग” होगा। तब ही कल्याण होगा। तब ही “सत् के आनन्द” की अनुभूति होगी।
गौतम बुद्ध ने एक भिक्षुक को नगर की सबसे सुंदर वेश्या के घर पर तीन माह तक साधना करने के लिये भेज दिया। उसे वहां विपश्यना(आत्मशुद्धि, आत्म निरीक्षण) करनी थी ; अपने आप में स्थिर रहना था। आंतरिक सत्संग में ठहरना था। वह भिक्षुक उस वेश्या के घर रहने लगा। वेश्या का मन उस युवा साधु के तेज पर डोल गया। वह उसके सामने बनती-सँवरती और उद्दीप्त करने वाली चेष्टाएं करती रहती थी। पूरे तीन माह तक वह ‘रति’ बनी रही किंतु भिक्षुक निष्काम ही रहा। विदा के दिन वेश्या ने सवाल किया – मैं साक्षात पथभ्रष्ट थी और तुम प्रत्यक्ष संकल्प निष्ठ ; यह कैसे सम्भव हुआ। भिक्षु बोला, “मैं बुद्ध के आदेश से अपने ही अन्दर स्थिर था। तुम वासना से उद्वेलित मेरे बाहर ही बाहर सक्रिय थी। तुम मेरे भीतर नहीं उतर सकी क्योंकि अंदर मैं सत्य के साथ था ; निष्काम था। तुम बाहर अज्ञान के साथ थी।”
उस स्त्री ने साधु को प्रणाम किया और अपना ‘वैश्यालय’ छोड़ कर बुद्ध की शरण में चली गयी। सत्संग (उस भिक्षु का साथ) वैश्या के भीतर उतर गया।
कल सत्संग की बिजली हमारे अंदर sparking कर रही है।
आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड मैडल रेणु जी और अरुण जी को जा रहा है,दोनों को बहुत बहुत बधाई ।सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद् ।
(1)संध्या कुमार-39(2)अरुण त्रिखा-24,(3)वंदना कुमार-29,(4 )चंद्रेश बहादुर-29,(5 ) निशा भारद्वाज-27,(6)रेणु श्रीवास्तव-51 ,(7)अनुराधा पाल-37,(8) सुजाता उपाध्याय-37,(9) नीरा त्रिखा-28 ,(10) अरुण वर्मा-51 ,(11)आयुष पाल-25 ,(12 ) पिंकी पाल-24,(13)मंजू मिश्रा-24,(14) मीरा पाल-26
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।