वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

विश्वास और आस्था से क्या कुछ नहीं हो सकता? 

18  अप्रैल 2024 का ज्ञानप्रसाद

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से हम परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” को आधार मानकर जिस  लेख श्रृंखला का  अमृतपान कर रहे हैं आज उस शृंखला का 14वां  लेख   प्रस्तुत है।  

2011 में प्रकाशित हुई 66 पन्नों की इस दिव्य पुस्तक के दूसरे  एडिशन  में परम पूज्य गुरुदेव हम जैसे नौसिखिओं,अनुभवहीन शिष्यों को मनुष्य शरीर की बिजली  से परिचित करा रहे  है। यह एक ऐसा जटिल विषय है जिसे साधारण मनुष्य (Layman) के अंतर्मन में उतार पाना कोई आसान कार्य नहीं है। 

आज का लेख कल वाले लेख, आस्था और विश्वास  को ही आगे बढ़ाने का प्रयास है। लेख अत्यंत सरल है, समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, ऐसा हमारा विश्वास है। 

विचारों की विद्युत् शक्ति वाला चैप्टर मात्र 5 पन्नों, यानि लगभग 2000 शब्दों का ही था जिसका   हमने समझने/समझाने के चक्र में चार लेखों यानि 8000 शब्दों तक विस्तार कर दिया। आज का लेख “विचारों की बिजली” का अंतिम लेख है, अगले सोमवार को स्त्री-पुरुष की आकर्षण शक्ति/विद्युत शक्ति  का विषय आरम्भ हो रहा है। 

तो आइए चलें गुरुकक्षा में और समर्पित हो जाएं गुरुचरणों में, विश्वशांति की कामना के साथ। 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!  

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श्रद्धा और भक्ति की भावना में “आत्मशक्ति” का बाहुल्य रहता है और जब यह आत्मशक्ति इष्टदेव से टकराकर वापस लौटती है तो उसमें पूरा बल होता है। देवतााओं से फल प्राप्त  करने के का सीधा गणित है जो साधक के विश्वास पर आधारित है। साधक में जितना कम विश्वास होगा, उतना ही कम वह फल मिलेगा। 

देखा जाए तो सही मायनों में मूर्ति आदि जड़ वस्तुओं में अपना स्वयं का कुछ  भी बल नहीं है। मंदिरों में भव्य प्रतिमाओं में, जिनकी भक्त लोग श्रद्धा भक्ति से पूजा  अर्चना करते हैं, केवल एक ही गुण है और वोह है : भगवान भक्त से जो कुछ भी लेते हैं,उसे कई गुना करके  भक्त को लौटा देते हैं। अक्सर देखा गया है कि भक्त मंदिर में मिठाई आदि का पूरा डिब्बा लेकर जाता है, लेकिन पुजारी उसमें से एक पीस निकाल कर रख लेता है और बाकी सारे डिब्बे को भगवान् के समक्ष कुछ मंत्र  आदि बोलकर वापिस कर देता है और वही मिठाई जो कुछ समय पैहले हलवाई की दूकान पर सज रही थी मंदिर में आकर, थोड़ी सी भगवान् को अर्पित करते ही प्रसाद बन जाती है। भक्त उस प्रसाद को लेकर सभी को यह कहते हुए बांटता है की यह भगवान् का प्रसाद है। यह है भक्ति,श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था। इसी प्रकार की आस्था एवं विश्वास हम सब ज्ञानप्रसाद लेखों में प्रतिदिन अनुभव कर रहे हैं। जिस प्रकार हम इन लेखों से एवं ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अन्य प्रयासों से लाभान्वित एवं ऊर्जावान हो रहे हैं, परिवार का एक एक सदस्य भलीभांति परिचित है।     

भक्त की श्रद्धा जब परिपक्व होती है तो पत्थरों की प्रतिमाओं को भी झुकने पर विवश कर  देती है।  

महाभारत की बहुचर्चित एकलव्य-द्रोणाचार्य कथा से शायद ही कोई परिचित न होगा। एकलव्य नामक भील (आदिवासी) ने गुरु द्रोणाचार्य से शस्त्र विद्या सीखनी चाही। जब उन्होंने सिखाने से मना कर दिया तो एकलव्य ने वन  में जाकर गुरु  द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित की और उसी को गुरु मानकर धनुर्विद्या सीखने लगा। फलस्वरूप वह इतना कुशल हो गया कि प्रत्यक्ष द्रोणाचार्य के शिष्यों में से उसकी तरह का एक भी शिष्य नहीं था। इस प्रसंग में यह न सोचना चाहिए कि द्रोणाचार्य की मूर्ति में कुछ चमत्कार था। एकलव्य की “आत्मिक भावना /आस्था”  ही थी जो उस मिट्टी मूर्ति से टकराकर लौटी थी और उसे संतोषजनक परिणाम प्राप्त हुआ था।

धर्मशास्त्र,योग शास्त्र एवं लगभग सभी शास्त्रों ने एक स्वर होकर गुरु की असीम महिमा गाई है। अनेकों  बड़े-बड़े ग्रंथ गुरु की महिमा में लिखे गए हैं। यहाँ तक कि गुरु को गोविंद से भी बड़ा बताया गया है। इस व्याख्या  का रहस्य यह है कि शिष्य  जितनी श्रद्धा से समर्पित होगा, उन्नति उससे अनेकों गुना multiply होकर वापिस आएगी। बोओ और काटो के सिद्धांत में परम पूज्य गुरुदेव हमें मक्के के एक दाने से multiplication की बात तो अनेकों बार समझा चुके हैं। आज का प्रज्ञा गीत गुरु-गोविंद के तथ्य को सार्थक कर रहा है। यूट्यूब पर इस भजन के अनेकों लिंक उपलब्ध है लेकिन यह वाला लिंक हमारे दिल के बहुत ही करीब है।        

गुरु कौन है ? 

गुरु भी तो आखिर शरीरदारी मनुष्य ही है, जब तक वह शरीर धारण किए  हुए है तब तक शरीरधारियों से होने वाली त्रुटियाँ गुरु से  भी होती रहेंगी। फिर साधारण या थोड़े बहुत उन्नत मनुष्यों को इतनी  बड़ी महिमा क्यों  प्रदान की गई है ?  उसका वास्तविक रहस्य यही है जो ऊपर कहा है । 

महर्षि दत्तात्रेय ने 24  गुरु (कबूतर, पृथ्वी, सूर्य, पिंगला, वायु, मृग, समुद्र, पतंगा, हाथी, आकाश, जल, मधुमक्खी, मछली, बालक, कुरर पक्षी, अग्नि, चंद्रमा, कुमारी कन्या, सर्प, बाण बनाने वाला, मकडी़, भृंगी, अजगर और भौंरा) धारण किये थे।  वे कहते थे कि जिस किसी से भी, जितना भी  सीखने को मिले, हमें अवश्य ही सीखने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। उनके 24 गुरुओं में  कई तो बिल्कुल ही अज्ञानी होंगें। पशु-पक्षी आदि तो दत्तात्रेय की अपेक्षा बहुत ही कम ज्ञान रखते होंगे और यह भी न जानते होंगे कि गुरु किसे कहते हैं यां  हम किसके गुरु हैं, फिर भी उन अज्ञानी गुरुओं द्वारा दत्तात्रेय ने उतना ही लाभ उठाया जितना एक पहुँचे हुए सिद्धगुरु से उठाया जा सकता है। 

आज के  युग में भक्ति का मज़ाक बनाया जाता है। ऐसे मज़ाक करने वालों को बिल्कुल ही ग़लत नहीं ठहराया जा सकता  क्योंकि पंचतत्त्वों के बने हुए इस प्रपंच में भ्रम या त्रुटियों की सम्भावना तो हो ही सकती है।  सत्य तो केवल परमात्मा ही  है। उसके अतिरिक्त और जो कुछ भी  दिखाई पड़ता है, सरासर भ्रम है, माया है  मिथ्या है। 

कई बार ऐसे प्रश्न भी मन में उठते  हैं जिनका कोई भी उत्तर नहीं होता, केवल  विश्वास ही एकमात्र समाधान होता है, जैसे  कौन कहता है कि पत्थर की प्रतिमा ईश्वर है ? या हाड़ मांस का कोई मनुष्य किसी का गुरु है। जो खुद भी चल फिर न सके वह कैसा ईश्वर है ? जो अपने विकार भी दूर न कर सके वह कैसा गुरु है ? वैसे तो परम पूज्य गुरुदेव ने प्रत्येक विषय पर विस्तृत साहित्य लिख कर छोड़ दिया है, लेकिन ईश्वर की सत्ता के सम्बन्ध में अनेकों छोटी-छोटी पुस्तकमालाएँ उपलब्ध हैं। वर्तमान लेख शृंखला के बाद इसी विषय के हाथ में लेने की योजना है।  

फिलॉसफर जानते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रयोग की जाने वाली सभी वस्तुएँ केवल  साधन हैं साध्य नहीं। आत्मा स्वयं अपना विकास या पतन करता है। बाहरी वस्तुएँ तो सहायक मात्र हैं लेकिन यहाँ यह  स्मरण रखना बहुत आवश्यक है  कि मनुष्य को इन साधनों की अनिवार्य आवश्यकता है । बिना साधनों के साध्य (लक्ष्य) तक पहुँचना असंभव है। विश्वास जब दृढ़ हो जाते हैं तो वे भी मूर्तिमान हो जाते हैं। 

विश्वाश की ही पराकाष्ठा है कि मनुष्य भूत-प्रेतों में भी ईश्वर को मान लेता है। भूत-प्रेत का अस्तित्व असत्य नहीं है, वे अवश्य होते हैं और कई बार अपनी  उपस्थिति का अनुभव भी करा ही देते हैं। मथुरा स्थित अखंड ज्योति संस्थान में परम पूज्य गुरुदेव और भूतों के बीच के संवाद को हम सब कैसे भूल सकते हैं।  

यदि कोई व्यक्ति विश्वास कर ले कि  बरगद के उस पेड़ पर भूत रहता है, अंधकार के समय वहाँ जाओ तो पेड़ की कोई टहनी भूत बन जायेगी एवं उसमें हाथ, पाँव, मुँह आदि सारे अंगभूत जैसे उग आवेंगे, हो सकता है कि वह चले-फिरे भी और कुछ बातचीत भी करे। सही मायनों में देखा जाए तो  वह “बरगद का भूत” नहीं था बल्कि  “विश्वास का भूत” था। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे मूर्ति पूजकों को मूर्तियां  अपना प्रभाव दिखाती हैं। देखा गया है कि अधिकांश भूत उन्हीं लोगों पर असर करते हैं, जो उन पर विश्वास करते हैं। हाँ, उन छुट-पुट  घटनाओं की बात अलग है, जिनमें वास्तविक प्रेतों का समावेश होता है। यहाँ एक लॉजिकल प्रश्न  उठता है कि अगर भूत पर विश्वास करने से भूत देखा जा सकता है तो अरे मुर्ख मनुष्य ईश्वर पर विश्वास कर और उसे देख। 

तांत्रिक अनुष्ठानों के द्वारा मारण, सम्मोहन , उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन आदि अनेकों  प्रकार के भले/बुरे काम भी होते देखे गए हैं, यह भी तो विश्वास ही है।  इन क्रियाओं में कितनी ही बार ऐसा देखा जाता है कि कुछ चमत्कारिक कार्य ऐसे होते हैं मानो कोई दूसरा अप्रत्यक्ष व्यक्ति हाथ पाँव से इन कामों को कर रहा है। यह कार्य किसी भूत प्रेत के नहीं वरन् तांत्रिक की भावना “प्रतिमा” के द्वारा होते हैं। तांत्रिक विद्या में  प्रमाणित हो चुका है कि यह सब  “विद्युत परमाणुओं ( Electric particles)  के द्वारा “विश्वास” के आधार पर रची गयी  एक सजीव मूर्ति करवा रही है , एक ऐसी मूर्ति  जो सूक्ष्म तत्त्वों के होने के कारण सूक्ष्मज्ञान रखती है और शरीरधारी की भांति कितने ही काम अच्छी तरह कर सकती है। स्थूल शरीर न होते हुए भी ऐसा सब कुछ संभव होता है। Frank Mesmer द्वारा अविष्कार किया गया Mesmerism का सिद्धांत चाहे 200 वर्ष पुराना ही क्यों न हो, इन्हीं में से एक है और बहुप्रचलित है। 

कर्ण पिशाचनी, यक्षिणी, भैरवी, दिव्यस्वप्ना आदि की सिद्धियों में भी आत्मतेज के प्रबल चित्र बनते देखे गए हैं। ऐसे चित्रों के पीछे विश्वास ही एकमात्र तथ्य है  जो कठिन साधना  द्वारा गहरे जमाये गये विश्वास के अनुसार कार्य करते हैं। देवताओं का या ईश्वर का दर्शन होना, दिव्य वाणी सुनाई पड़ना या कई  व्यक्तियों में कुछ विशेष चमत्कारिक शक्तियों का होना, सब “मानवीय विद्युत” के मूर्तिमान और जीते-जागते चमत्कार हैं।

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आज 10  युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड मैडल सुजाता   जी को जा रहा है,बहुत बहुत बधाई सुजाता   जी ।सभी साथिओं  का योगदान के लिए धन्यवाद् । 

(1)संध्या कुमार-43   ,(2)सुमनलता-33 ,(3)वंदना कुमार-27,(4 )चंद्रेश बहादुर-38 ,(5 ) सरविन्द पाल-30 ,(6)मंजू मिश्रा-30,(7)अनुराधा पाल-31,(8) सुजाता उपाध्याय-57,(9) नीरा त्रिखा-30,(10) अरुण त्रिखा-25                

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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