वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

विचार ही विश्वास और आस्था के जन्मदाता हैं। 

(1961की सुपरहिट मूवी घराना का भजन रामनवमी को समर्पित)

17 अप्रैल 2024 का ज्ञानप्रसाद

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से हम परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” को आधार मानकर जिस  लेख श्रृंखला का  अमृतपान कर रहे हैं आज उस शृंखला का 13वां  लेख   प्रस्तुत है।  

2011 में प्रकाशित हुई 66 पन्नों की इस दिव्य पुस्तक के दूसरे  एडिशन  में परम पूज्य गुरुदेव हम जैसे नौसिखिओं,अनुभवहीन शिष्यों को मनुष्य शरीर की बिजली  से परिचित करा रहे  है। यह एक ऐसा जटिल विषय है जिसे साधारण मनुष्य (Layman) के अंतर्मन में उतार पाना कोई आसान कार्य नहीं है। 

आज का लेख कल वाले लेख “विचारों की फैक्ट्री मस्तिष्क” को ही आगे बढ़ाने का प्रयास है।

यह विचार ही हैं जो जब परिपक्व हो जाते हैं तो विश्वास बन जाते हैं, दृढ विश्वास ही आस्था है और यही आस्था साधारण मानव को इतनी शक्ति प्रदान कर देती है वोह पत्थर में भी भगवान् प्रकट करवा लेता है। 

आइए हम सब  राम नवमी की हार्दिक शुभकामना के साथ गुरुचरणों में समर्पित होकर आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें 

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पिछले कुछ दिनों से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर  विचारों की चर्चा चल रही है। जब विचार उच्च कोटि के होते हैं तो वोह नियमित अभ्यास से  विश्वास का रूप धारण कर लेते हैं। यह विश्वास ही है जो अद्भुत प्रभाव  दिखा देता है, तभी तो  कहा गया है :  “विश्वासो फलदायकः ।” अर्थात  विश्वास ही फलदायी है। 

विश्वास पर आधारित हम सबने अनेकों कहानियां पढ़ी होंगीं, वीडियोस देखी होंगी,उसी तरह की एक लोकप्रिय कहानी, विश्वास  का समर्थन करती संलग्न है। हो सकता है यह कहानी भी हमारे साथिओं ने पढ़ी हो।  

अंगदसिंह का विश्वास:   

बहुत समय पहले रायगढ़ नामक नगर में राजा दीनदयाल सिंह राज्य करते थे । उनके भतीजे का नाम था अंगदसिंह । वह वास्तव में बालिपुत्र अंगद की तरह वीर, निडर और भक्त युवक था ।

एक बार किसी मुसलमान सूबेदार ने रायगढ़ पर चढ़ाई कर दी । दीनदयाल सिंह की सेना छोटी थी । वे घबरा गये और सोच में पड़ गये कि अब रक्षा के लिए क्या उपाय किया जाय ? उनकी घबराहट देखकर अंगदसिंह ने उनकी चिंता का कारण पूछा । दीनदयाल बोले : ‘‘बेटा ! हमारे पास इतनी सेना नहीं है कि हम उनका मुकाबला कर सकें ।’’अंगदसिंह ने कहा : ‘‘चाचाजी ! युद्ध में विजय सेना के कम या ज्यादा होने से नहीं होती । इतिहास साक्षी है कई बार मुट्ठीभर वीरों ने दुश्मन की विशाल सेना को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर किया है । आप आज्ञा दें तो मैं सेना को लेकर युद्ध करने जाता हूँ और देखता हूँ कि दुश्मन कितना वीर है ।’’

‘‘बेटा ! तेरा साहस बता रहा है कि विजय तेरी ही होगी । जा अंगद ! दुश्मन के दाँत खट्टे करके आ ।’’ दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ । अंगदसिंह के शौर्य के आगे शत्रुओं के हौसले पस्त हो गये । अंगदसिंह और सूबेदार में बहुत देर तक युद्ध चलता रहा । अंत में सूबेदार का मस्तक जमीन पर लुढ़क गया । अंगदसिंह ने उसका मुकुट उतार लिया और जयघोष के साथ रायगढ़ वापस लौट आया ।

सूबेदार के मुकुट में बहुमूल्य सुंदर रत्न जड़े हुए थे । अंगदसिंह ने उसमें से एक हीरा निकाल लिया और उसे भगवान जगन्नाथजी को चढ़ाने का संकल्प किया । शेष रत्नोंसहित मुकुट राजा को भेंट कर दिया ।ईर्ष्यावश  किसीने राजा के कान भर दिये कि सबसे कीमती हीरा तो अंगदसिंह ने निकाल लिया है । राजा ने अंगदसिंह को बुलाकर हीरा माँगा तो उसने राजा को सच्चाई बता दी कि ‘‘मैंने इस हीरे को भगवान जगन्नाथजी के मंदिर में चढ़ाने का संकल्प किया है । ऐसे पवित्र संकल्प को त्याग देना बड़े  पाप की बात होगी। अतः आप उस हीरे को पाने का आग्रह न करें ।’’

लेकिन  राजा दीनदयाल सिंह संसारी व्यक्ति थे। धर्म-कर्म में उनको विश्वास नहीं था और भगवान की पूजा वे केवल लोगों को दिखाने के लिए करते थे। ऐसे बहुमूल्य हीरे को मंदिर में चढ़ाने की बात उनको अच्छी नहीं लगी । वे अंगदसिंह पर हीरा देने के लिए दबाव डालने लगे लेकिन अंगदसिंह ने स्पष्ट इनकार कर दिया ।

राजा ने देखा कि इस पराक्रमी और साहसी युवक से झगड़ा करके हीरा लेना सम्भव नहीं है । उन्होंने लालच और धमकी देकर अंगदसिंह के रसोइये को अपने साथ मिला लिया और एक दिन अंगदसिंह के भोजन में विष मिलवा दिया।अंगदसिंह ने अपने नियमानुसार भगवान को भोग लगाया। रसोइये को अपनी करनी पर पछतावा होने लगा। विश्वासघात का विचार  करके रसोइये के  हृदय में तीव्र अग्नि जलने लगी । जैसे ही अंगदसिंह ने पहला ग्रास मुँह में डालने को उठाया कि उसने अंगदसिंह का हाथ रोककर सारी बात बता दी।  अंगदसिंह बोला : ‘‘अब तो मैं भगवान को इस भोजन का भोग लगा चुका हूँ । अतः इस प्रसादरूप भोजन का मैं त्याग नहीं कर सकता ।’’

अंगदसिंह ने पूरा भोजन खत्म कर दिया। उसके अटल विश्वास का ऐसा परिणाम निकला कि विष का उस पर कोई प्रभाव न पड़ा लेकिन राजा का दुष्ट व्यवहार, कपटनीति और स्वार्थबुद्धि देखकर अंगदसिंह को बड़ा खेद हुआ। उसने निश्चय किया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा। सबसे पहले जगन्नाथपुरी जाकर हीरा भगवान को चढ़ा दूँगा। वह महल से निकल पड़ा। जब यह समाचार राजा तक पहुँचा तो उसने 100  सिपाहियों को भेजा कि ‘‘कैसे भी अंगदसिंह से वह हीरा छीनकर लाओ।’’ अंगदसिंह रायगढ़ से पाँच-सात मील दूर एक तालाब के किनारे शांत भाव से भगवान की पूजा कर रहा था। सिपाहियों ने उसे घेर लिया और कहा :‘‘हमें हीरा दे दीजिये,नहीं तो हम आपको मारकर उसे ले जायेंगे ।’’

अंगदसिंह सोचने लगा: अब क्या करू, मैं तो निःशस्त्र हूँ और सिपाहियों से घिरा हूँ। उसने आँखें मूँद लीं, तन-मन एवं बुद्धि के प्रयासों को विराम दे दिया और अंतर्यामी की शरण हो गया  और कहने लगा, “शस्त्र नहीं तो क्या, शस्त्र चलाने की सत्ता जिससे आती है वह परम समर्थ सत्ता तो मेरे साथ है। अब वही मेरा संकल्प पूरा करेंगें। महान असमंजस की इन घड़ियों में, हे अंतर्यामी आप ही  मुझे मार्ग दिखाइए”  सिपाहियों ने देखा कि कुछ ही क्षणों में अंगदसिंह के मुख पर एक “स्वर्णिम आभा” देदीप्यमान होने लगी । अंगदसिंह ने धीरे से आँखें खोलीं और “एतत् ईश्वरार्पणमस्तु..” अर्थात इसे भगवान के लिए प्रसाद बनने दो, कहकर हीरे को गहरे तालाब में फेंक दिया। सिपाही यह देखकर अवाक् रह गये और अब हीरे को पाने का कोई उपाय न देखकर वापस लौट गये । 

लोभ में अंधा राजा बहुत-से सिपाहियों को लेकर उस तालाब पर जा पहुँचा। तालाब में से हीरे को निकालने के उसने बहुत-से उपाय किये लेकिन वह हीरा उसके हाथ न आया । अंगदसिंह चलते-चलते कई दिनों के बाद जगन्नाथजी के मंदिर पहुँचा तो भगवान के गले के रत्नहार में वही हीरा चमक रहा था। भगवान की सर्वसमर्थता, परम सुहृदता देख उसकी आँखों से प्रेमाश्रुओं की सरिताएँ बह चलीं और वह भगवान को बारम्बार प्रणाम करने लगा । जब वह कुछ बोलने का सामर्थ्य  जुटा पाया तो उसने कहा, ‘‘हे परम प्रेरक ! हे सर्वसमर्थ ! हे सर्वरक्षक ! आपने कदम-कदम पर मेरी रक्षा की। पहले जहर से और फिर युक्ति देकर सैनिकों से बचाया। संसार की असलियत दिखाकर वैराग्य दिलाया और मुझे अपने पास बुलाया। मेरे द्वारा मन-ही-मन किये गये संकल्प को इस अद्भुत ढंग से पूरा कर मेरी लाज बचायी। अब मैं सर्व प्राणियों के परम सुहृद आपके अलावा कहीं मन न लगाकर आपको ही रिझाऊँगा,आपको ही पाऊँगा।’’

अंगदसिंह ने अपना शेष जीवन भगवद्भक्ति एवं भगवत्शरणागति में लगाकर कृतकृत्य किया। 

त्रिभुवन सिंह एवं दीप उपाध्याय जैसे  लोग तो इस कहानी को मनगढंत  कह कर नकार सकते हैं लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का  कोई भी सदस्य ऐसा नही सोच  सकता क्योंकि विश्वास, पात्रता, श्रद्धा, समर्पण आदि मानवीय एवं ईश्वरीय मूल्य इस परिवार के  रक्तकणों  में ठीक उसी तरह घुले हैं जैसे  क्षीर में नीर यानि दूध में जल। केवल हंसवृत्ति ही क्षीर से नीर अलग कर सकती है।  

कल वाले लेख में वर्णन किया था कि हमारा मस्तिष्क विचारों की फैक्ट्री है, जिसमें प्रतिक्षण अनवरत अजीबोगरीब,नित नए विचारों का उत्पादन होता रहता है और मनुष्य है कि इन्ही विचारों के वशीभूत हवाई किले बनाता रहता है। 

विचारों से ही विश्वास का जन्म होता है। अनवरत,नियमितता से किया गया अभ्यास अक्सर इतना प्रबल होता है कि इसके द्वारा प्राप्त होने वाले फल भी आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय होने के साथ-साथ सत्य भी होते हैं। अटल एवं प्रबल विश्वास के सन्दर्भ लिखी जा रही पंक्तियाँ केवल पन्ने भरने के लिए नहीं लिखी जा रही हैं, हम सबने इसी छोटे से परिवार में आस्था को साक्षात् प्रकट होते देखा है। परम पूज्य गुरुदेव एवं गायत्री परिवार में घटित आश्चर्यों के बारे में कोई  भी विवरण देने की आवश्यकता नहीं है,नमन के सिवाय  कुछ भी  कहना व्यर्थ ही होगा। 

विश्वास और योग्यता का चोली दामन का साथ है। एक चिकित्सक, चिकित्सा शास्त्र में बड़ा कुशल है, रोग विज्ञान का वह बड़ा भारी पंडित है, औषधियाँ एक से एक बढ़िया रखता है, किंतु बीमार को लाभ नहीं होता जबकि दूसरा वैद्य जो बीमारी के बारे में बहुत ही कम जानता है और मामूली सा चूरन दे देता है, जिससे  बीमार को तुरंत  ही लाभ हो जाता  है। इसका मूल कारण विश्वास है। रोगी को उस विद्वान चिकित्सक पर विश्वास न था लेकिन अनाड़ी वैद्य पर भरोसा था।  इसीलिए वे कीमती दवायें बेकार हो गईं और घास-फूस संजीवन साबित हुआ। डॉक्टर लोग भी  अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि विश्वास से बढ़कर और कोई दवा नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि इलाज तो एक बहाना है। उसका असर 10 % और विश्वास का असर 90 %  होता है । लोग अपने विश्वास के आधार पर अच्छे होते हैं, किंतु समझते यह हैं कि हमें दवा ने अच्छा कर दिया।

हम देखते हैं कि नदी, पर्वत, मूर्ति, मठ, मंदिर, देवी, देवताओं को पूजने वालों को ये ही वस्तुएँ उनकी इच्छित कामना पूरी करती हैं और मन चाहा फल देती हैं। वैसे इन जड़ वस्तुओं में अपनी स्वयं  की कुछ भी शक्ति नहीं है। एक तत्त्वदर्शी ने इस संबंध में गहरा अनुसंधान करके बताया है कि गहरे विश्वास के साथ की हुई आराधना जिस पर समर्पित की जाती है, उससे टकराकर वापस लौट आती है। रबड़ की गेंद को जितने जोर से खींच कर दीवार पर मारा जायगा, वह उतने ही वेग के साथ लौटकर वापस हमारे पास आ जायेगी। श्रद्धा और भक्ति की भावना में “आत्मशक्ति” का बाहुल्य रहता है।

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आज 8 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। आज का गोल्ड मैडल सरविन्द  जी को जा रहा है,बहुत बहुत बधाई सरविन्द  जी ।सभी साथिओं  का योगदान के लिए धन्यवाद् । 

(1)संध्या कुमार-30  ,(2)सुमनलता-24,(3)वंदना कुमार-24,(4 )चंद्रेश बहादुर-29,(5 ) सरविन्द पाल-43 ,(6 )रेणु श्रीवास्तव-28,(7 )अरुण वर्मा-39,(8 )मंजू मिश्रा-24             

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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