4 अप्रैल 2024 का ज्ञानप्रसाद
Source: मानवीय विद्युत के चमत्कार
परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” को आधार मानकर जिस लेख श्रृंखला की अमृतपान कर रहे हैं आज उसका छठा लेख प्रस्तुत है।
2011 में प्रकाशित इस दिव्य पुस्तक में परम पूज्य गुरुदेव मनुष्य शरीर की बिजली से परिचित करा रहे हैं । इस विस्तृत एवं जटिल विषय को समझना सरल तो नहीं है लेकिन जितना भी समझ आ जाए लाभदायक ही होगा।
आज के लेख कल वाले लेख “भोजन की आंतरिक स्वच्छता” की ही extension है। लेख बहुत ही सरल है एवं हम सबसे सम्बंधित है।
शब्द सीमा के कारण सीधा गुरुकक्षा की ओर जाना ही उचित होगा।
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जूठा भोजन खाने की आदत:
एक साथ, एक थाली में खाने से शेष बचा हुआ झूठा भोजन करना तो बहुत ही घृणित है, लार का कुछ अंश जिसमें सम्मिलित हो जाय ऐसा भोजन देखते ही मन को घृणा उत्पन्न होती है। कहते हैं कि इससे प्रेम उत्पन्न होता है, इस कथन में कुछ सच्चाई तो है, लेकिन वह लाभ हानि की तुलना में न बराबर है। एक व्यक्ति का शारीरिक अंश (थूक लार) आदि दूसरे के शरीर में पहुँच जाता है, तो उसके शरीर को अपनी ओर आकर्षित तो करता है लेकिन जब तक गुण, स्वभाव आदि एक से न हों तब तक वह प्रेम स्थायी नहीं हो सकता। यह प्रेम बहुत ही हल्का उत्पन्न होता है। साथ ही दूसरे के भले-बुरे विचार भी प्रवेश कर जाते हैं। बुरे विचार अधिक तीव्र होते हैं, यही कारण है कि सबसे पहले इन्हीं का असर होता है। ऐसा करने से अनेकों बार छूत वाले संक्रामक रोगों का एक-दूसरे पर आक्रमण होने का अंदेशा रहता है।
इसलिए हर व्यक्ति को सदैव अलग-अलग पात्रों में भोजन करना चाहिए। यदि प्रेमवश कहीं ऐसी स्थिति बन भी जाए कि कोई व्यक्ति ज़िद पर अड़ जाए कि मैंने तो आपको अपना भोजन शेयर करवा के ही छोड़ना है तो बड़ा ही सरल विकल्प है कि उसके भोजन में से लेकर अपनी प्लेट में डाल लिया जाए, किसी की प्रेम-भावना का तिरस्कार करना भी तो उचित नहीं है। इसी प्रेम-भावना के अभाव में मानव कहाँ से कहाँ पँहुच चुका है, कोई भी इससे अपरिचित नहीं है।
इस सन्दर्भ में बड़ी ही सावधानी बरतनी पड़ेगी क्योंकि नन्हें बच्चे जिन्हें हम “Sharing is caring” का उपदेश देते हैं, जब स्कूल में लंच टाइम में एक दुसरे के टिफिन में से शेयर करेंगें तो कहीं कोई समस्या न उठ खड़ी हो। यह आयु बड़ी ही भावुक होती है और माता पिता को ही सही मार्गदर्शन प्रदान करना पड़ेगा। मार्गदर्शन देने से पहले यह भी बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हम माता पिता भी इन तथ्यों से परिचित एवं शिक्षित हो जाएँ। बैलेंस होकर ही जीवन जीना उचित होता है, सख्त एवं कठिन मापदंड एक दूसरे को दूर ही करते हैं। अपनत्व एवं स्नेह तो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार एवं परम पूज्य गुरुदेव के मूल मंत्र हैं।
मिल बाँट कर भोजन करना एवं एक दूसरे की जूठन से सम्बंधित “हिंदुस्तान समाचार पत्र” में प्रकाशित एक न्यूज़ आइटम में इस विषय के वैज्ञानिक पक्ष पर चर्चा की गयी है जिसका संक्षिप्त वर्णन हमने निम्नलिखित पंक्तियों में करने का प्रयास किया है :
जाने-अनजाने में यां प्रेमवश हम एक-दूसरे का जूठा खा लेते हैं लेकिन कई बार ऐसा करना बहुत ही हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
विज्ञान के अनुसार ऐसा करने से एक मनुष्य के लार (थूक) के अंश दूसरे मनुष्य के पेट में चले जाते हैं जो कई बीमारियों का कारण बनते हैं। चिकित्सकों के अनुसार, एक-दूसरे का जूठा खाने वाले लोगों में अनेकों बीमारियां घर कर जाती हैं।
कॉलेज में मित्रों के प्रति प्यार दर्शाने के लिए एक ही बर्तन में एवं साथ-साथ खाना या पीना एक सामान्य सी बात है। इस एक-दूसरे का जूठा खाने अथवा खिलाने वाली पद्धति को “मॉड कल्चर” कहा जाता है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि यह “मॉड कल्चर” कितने गंभीर रोग फैला रहा है।
वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि एक-दूसरे का जूठा खाने पर लार के अनेक अंश एक-दूसरे के पेट में चले जाते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि एक- दूसरे के साथ जूठा खाने वाले लोगों में अक्सर खट्टी-मीठी डकारें आना, सीने में जलन होना बहुत कॉमन है ।
वास्तव में इसका कारण एक विशेष प्रकार का रोगाणु होता है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में “हालिको वैक्टर पाइलोराइ” Helicobacter pylori कहते हैं। यह बैक्टीरिया संक्रमित तब होता है जब यह मनुष्य के आपके पेट में पंहुचता है। देखा गया है कि दूषित भोजन खाने से या दूषित पानी पीने से भी यह बैक्टीरिया फैल सकता है। Helicobacter pylori बैक्टीरिया कुछ लोगों में गैस्ट्रिटिस या पेप्टिक अल्सर का कारण कैसे बनता है यह अभी भी अज्ञात है।
यह जीवाणु लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में अधिक तेजी से संक्रमित होता है क्योंकि लड़कियां जूठा खाने में या साथ-साथ खाने में लड़कों से कुछ अधिक विश्वास रखती हैं। यही कारण है कि उन्हें अपच, खट्टी डकारें आना, सीने में जलन जैसी बीमारियां अधिक घेरे रहती हैं।
एक विशेष बात यह है कि यदि कोई व्यक्ति किसी संक्रामक रोग से ग्रसित है जिसके रोगाणु लार में उपस्थित हैं तो उस व्यक्ति के साथ खाने-पीने वाला व्यक्ति Helicobacter pylori बैक्टीरिया से तो संक्रमित होगा ही, साथ ही वह संबंधित रोग के जीवाणुओं से भी संक्रमित हो सकता है। डिप्थीरिया, दिमागी बुखार आदि कुछ ऐसे रोग हैं जिनके रोगाणु पीड़ित की लार में मौजूद होते हैं। एक-दूसरे की जूठन खाने पर इन रोगों का संक्रमण आसानी से हो सकता है।
यदि अन्य व्यक्तियों के यहाँ या अपने से भिन्न प्रकृति के लोगों के यहाँ भोजन करने का अवसर आए तो उचित होगा कि उनके यहाँ प्रयोग होने वाले धातुओं के बर्तन प्रयोग में न लाए जाएँ। धातुएँ, दोषों को बहुत ही शीघ्रता से अपने अंदर धारण कर लेती हैं। इसका कारण भी बिल्कुल वैज्ञानिक ही है। Metals are good conductors, यानि धातुओं में बिजली बड़ी आसानी से travel कर सकती है और किसी अजनबी के साथ उनके बर्तनों में भोजन करने से उनके दोष शरीर की बिजली बहुत ही जल्दी प्राप्त कर लेती है। इसका एक ही विकल्प है कि इन बर्तनों को अग्नि में तपाया जाए क्योंकि अग्नि सब दोष भस्म कर देती है। कई बार अपने से बहुत भिन्न स्वभाव के मनुष्यों द्वारा बहुत काल तक प्रयोग किये हुए पात्र उनकी भावनाओं को इतना अधिक ग्रहण कर लेते हैं कि बार-बार तपाने पर भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ते। इसलिए ऐसे लोगों के साथ भोजन करने के लिए यदि थाली, गिलास लेने की अपेक्षा पत्तों की पत्तल एवं मिट्टी के गिलास, कुल्लड़, मटके काम में लाये जाएँ तो बहुत ही अच्छा है, क्योंकि यह एक बार ही प्रयोग होते हैं।
आजकल तो डिस्पोजेबल का युग है, यह सब पुरातन युग की बातें हैं, हमारे बाप-दादाओं के युग की।
हम में से अनेकों के परिवारों में हाथ-मुँह धोकर भोजन करने की प्रथा होती थी/ है। इसका भी अर्थ मानवी विद्युत ही है। मान्यता है कि ऐसा करने से मन में उठ रही दुर्भावनाओं का निवारण हो जाता है। चूल्हे के पास, चौके में, भूमि पर भोजन करने से वहाँ का उष्ण वातावरण बुरे प्रभावों को बहुत हद तक दूर कर सकता है। कपड़ों की अशुद्धि भोजन तक उड़कर न पहुँचे इसलिए भोजन करते समय जितने कम हो सकें उतने कम कपड़े पहनने चाहिए। बैठने का स्थान पवित्र हो। जहाँ तक हो सके, ध्यान रखना चाहिए कि परोसने वाले भोजन को कम से कम हाथ से छुएँ। जल जैसे तरल पदार्थों को बार-बार छूना,उनमें उँगली डालना तो बहुत ही बुरी आदत है। ऐसा बिल्कुल वर्जित रहना चाहिए क्योंकि विज्ञान इस तथ्य का समर्थन करता है कि Electricity flows faster in liquids than in solids अर्थात सूखे पदार्थों की अपेक्षा तरल पदार्थ बहुत जल्द विद्युत प्रवाह को अपने अंदर धारण कर लेते हैं।
“स्वयं अपने हाथ से तैयार किया हुआ सर्वोत्तम है और वह पहले स्थान पर आता है।” उसके बाद दूसरा स्थान अपने प्रिय परिजनों या सामान विचार वालों के भोजन का आता है। आजकल तो सब कुछ रेडीमेड का ही प्रचलन है। भावनाओं आदि का युग तो शायद लुप्त ही होता जा रहा है। हमारे माता-पिता के युग में भी परिवारों में Get-together का प्रचलन था लेकिन उन दिनों सुबह से लेकर (यहाँ तक कि दो दिन पहले से ही) मेहमानों के आने तक सारा परिवार ही व्यस्त होता था, सब कुछ घर में ही बनाया जाता था और ऐसे आयोजन कभी-कभार ही होते थे। इसके विपरीत 5 day week होने के कारण और उससे भी बढ़कर work-from-home होने के कारण वीकेंड मनाने का प्रचलन बहुत ही पॉपुलर हो गया है। इस लोकप्रिय प्रचलन में हर वीकेंड को किसी के घर में इक्क्ठे तो हुआ ही जाता है लेकिन आवभगत, भावना जैसी बात कहीं भी देखने को नहीं मिलती। भावना तो वहां होती है जहाँ समर्पण, परिश्रम, श्रद्धा आदि होती है। जब सब कुछ बाहिर से ही रेडीमेड आता है तो फिर होटल वाले की ही सराहना की जाएगी।
इस विस्तृत एवं भावनात्मक विषय से हम में से कोई भी अपरिचित नहीं है।
भिन्न स्वभाव के मनुष्यों के यहाँ भोजन का अवसर आए तो सूखा भोजन ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि उनमें बाहरी पदार्थों का समावेश बहुत ही कम होता है। दूध या दूध से बने हुए तरल पदार्थ प्रतिकूल विचार वालों से कदापि नहीं लेने चाहिए क्योंकि दूध जल से भी अधिक सजीव होने के कारण विचार जल्दी ग्रहण कर लेता है।
वस्तुओं पर गुप्त रूप से बहुत दूर तक के संस्कारों का प्रभाव बना रहता है। छुआछात के प्रभाव अग्नि पर पकाने से नष्ट हो सकते हैं लेकिन चुराए हुए धन से पकाया गया भोजन, भिक्षा द्वारा प्राप्त किया हुआ अन्न, ऐसे मनुष्यों की भावनाओं को अग्नि पर पक जाने के उपरांत भी नहीं छोड़ेगा।
माँसाहारी भोजन के लिए यह बात कहना बहुत ही उचित होगा कि यह भोजन वेदनामय भावों से भरा हुआ है। पीट-पीट कर निकाले गए पशु-दुग्ध से भला कौन लाभ की आशा कर सकता है।
थाली के इर्द-गिर्द जल फेरने की बहुप्रचलित प्रथा :
भोजन के कई प्रकार के प्रभावों को हम अपनी “इच्छा शक्ति” द्वारा भी दूर कर सकते हैं। जब थाली सामने आए तो थोड़ा सा जल लेकर उसके चारों तरफ फेर दो और एक मिनट तक आँखें बंद करके इस सामग्री को परमात्मा को समर्पण करते हुए मन ही मन प्रार्थना करो कि
“हे प्रभो ! ” यह भोजन आपको समर्पित है। इसे पवित्र और अमृतमय बना दीजिए।” जब नेत्र खोलो तो विश्वास करो कि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी है और उसमें अब केवल लाभकारी तत्त्व ही रह गये हैं। सच्चे हृदय से प्रभु की प्रार्थना अवश्य ही सुनी जाती है क्योंकि ईश्वर तो समर्पण और प्रेम के ही भूखे हैं।
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आज 13 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।आज रेणु बहिन जी गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें हमारी बधाई एवं संकल्प पूरा करने वाले सभी साथिओं को बधाई।
(1),रेणु श्रीवास्तव-49,(2)संध्या कुमार-37,(3)अरुण वर्मा-39,(4) सुजाता उपाध्याय-32,(5) चंद्रेश बहादुर-29,(6)सरविन्द पाल-44 ,(7) सुमनलता-35 ,(8)विदुषी बंता-26,(9) निशा भारद्वाज-37,(10) मंजू मिश्रा-28,(11) नीरा त्रिखा-25,(12) पुष्पा सिंह-25,(13) वंदना कुमार-25
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।